कोरोना के बाद की दुनिया - 2

इष्ट देव सांकृत्यायन  

जंगल में दो गैंडे आम तौर पर लड़ते नहीं हैं। शायद इसलिए कि गैंडे अमूमन शांतिप्रेमी होते हैं और शायद इसलिए भी कि उन्हें एक दूसरे की ताक़त का अंदाज़ा होता है, लेकिन ऐसा भी नहीं है कि वे लड़ते ही नहीं हैं। वे लड़ते भी हैं और तभी लड़ते हैं जब उनके बीच कोई सीमा विवाद होता है। जब वे लड़ते हैं तो खरगोश, चूहे, गिलहरी, नेवले जैसे कई जानवर बेवजह जान से हाथ धो बैठते हैं। हालांकि अपनी लड़ाई में किसी दूसरे जानवर को मारना उनका इरादा कतई नहीं होता। लेकिन यह हो जाता है।

किसी दूसरे जानवर को बेवजह मारना उनका इरादा इसीलिए नहीं होता क्योंकि वे जानवर होते हैं। अगर वे इंसान होते तो बौद्धिकता के दंभ से भरे होते और बौद्धिकता का कुल मतलब उनके लिए केवल निहायत घटिया दर्जे का काइयांपन होता। और तब वे अनजाने में नहीं, जान बूझकर तमाम छोटे-मोटे जंतुओं को मार डालते केवल अपने को सबसे ताक़तवर बनाने के लिए। इसमें वे ऐसे गैर परंपरागत तौर-तरीकों (मनुष्य के लिहाज से कहें तो हथियारों) का भी इस्तेमाल कर सकते थे जो पशुता को शर्मसार कर देते (मनुष्यता के पास तो अब शर्मसार होने लायक कुछ बचा नहीं)। और यहाँ तक कि अपने ही बच्चों को भी मार सकते थे, प्रयोग के नाम पर इस बहाने से कि, जी हमें तो पता ही नहीं चला। बिलकुल वैसे ही जैसा कि अभी चीन ने किया और उसके जिस किए का खमियाजा अभी पूरी पृथ्वी भुगत रही है।

बात की शुरुआत वैश्विक परिदृश्य से ही हुई है तो आज की बात कोरोना के बाद की नई विश्व व्यवस्था पर। केवल उन बुद्धिजीवियों को छोड़कर जिन्हें कोविड 19 महामारी को दुनिया भर में फैलाने में चीन और तब्लीगियों का हाथ होने की बात पर गहरा एतराज है, बाक़ी पूरी दुनिया यह समझ चुकी है कि यह वैश्विक महामारी वास्तव में दो गैंडों के बीच का आभासी महायुद्ध है, जिसका खमियाजा पूरी दुनिया भुगतने को विवश है। यह बात कोई एक-दो लोग नहीं, दुनिया के कई जिम्मेदार राजनेता कह चुके हैं कि चीन विश्वशक्ति बनने के लिए कुछ भी कर सकता है। प्रश्न यह है कि विश्वशक्ति बनने के लिए उसकी यह लड़ाई आख़िर है किससे? अमेरिका के अलावा और कौन है जिससे वह यह लड़ाई लड़ेगा?

रूस अपनी सारी प्रगति के बावजूद आज इस हैसियत में नहीं है कि वह विश्वशक्ति बनने की बात भी करे। ब्रिटेन के लिए अब यह गए दिनों की बात हो चुकी है। फ्रांस, इटली, स्पेन और भारत दुनिया में अपनी हैसियत जरूर रखते हैं लेकिन ये नंबर दो की भी लड़ाई में नहीं हैं। चीन की आज की जो आर्थिक और सामरिक हैसियत है वह इसे दुनिया में नंबर दो का दर्जा दिला सकती थी, अगर इसके पास अपनी हैसियत के साथ-साथ दुनिया के किन्हीं देशों का भरोसा भी होता। सच यह है कि चीनी हुक्मरानों के पास उनके अपने ही देशवासियों का भरोसा नहीं है।

ध्यान रहे, भरोसे की जगह भय कभी नहीं ले सकता और चीन के लोगों में अपनी सरकार के प्रति जो है उसे भय कहते हैं, भरोसा नहीं। वैश्विक कूटनीति में सच यही है कि सभी लोमड़ी होते हैं। वहाँ आत्यंतिक भरोसे जैसा कुछ नहीं होता। लेकिन इसका यह अर्थ भी नहीं है कि वहाँ किसी वादे, किसी संधि, किसी संकल्प का कोई अर्थ ही नहीं होता। अगर नहीं होता तो दुनिया में कूटनीति का अस्तित्व ही नहीं होता। कूटनीति की जगह वही मध्यकालीन युद्धों का दौर चल रहा होता। आज के अत्याधुनिक परमाणु और जैविक हथियारों के दौर में एक बार सोच कर देखिए। छोटे देशों का अस्तित्व ही समाप्त हो गया होता। वहाँ किसी भी तरह की स्वतंत्रता और नागरिक अधिकारों की कल्पना सिर्फ कपोलकल्पना होती।

कल्पना करें कि ऐसी ही दुनिया की बादशाहत अगर कहीं चीन के हाथ चली गई होती तो क्या होता। पूरी दुनिया चीन हो गई होती। जहाँ 90 प्रतिशत आबादी अपने मौलिक अधिकारों से समझौता कर चुकी होती। बाकी बची 10 प्रतिशत जनसंख्या या तो दुनिया से ही निर्वासित होती या फिर उइगुर लोगों की तरह जीवन को झेलने के लिए विवश होती। हमारे कुछ बुद्धिजीवियों को इस बात पर सख्त एतराज होगा। लेकिन उनका क्या! उन्हें तो इस पर भी एतराज हो सकता है कि थ्येन आन मन‌ चौक जैसी घटना की कभी चर्चा भी की जाए। उनका बस चले तो वे थ्येन आन मन चौक के होने से ही इनकार कर दें। भारत के स्वघोषित बुद्धिजीवियों का बस चले तो वे तो थ्येन आन मन चौक का नाम ही बदल दें और उसके नए नाम को ही चीन के इतिहास में शुरू से दर्ज करा दें। या यह भी तो लिखवा सकते हैं कि वे सब गुंडे थे जो वहाँ मारे गए। चीन के बहुत अच्छे कम्युनिस्ट शासन में उन्हें गुंडागर्दी का मौका नहीं मिल पाता था और बस इसीलिए उन्होंने इतना बड़ा प्रदर्शन कर डाला। आख़िर पटवारी छाप इतिहास सन् 1947 के पहले से ही भारत में चल ही रहा है न। आलोचना के नाम पर अमीन लोग कविता-कहानी का रकबा भी नाप ही रहे हैं। वैसे भी अभिव्यक्ति से लेकर जीवन तक की स्वतंत्रताओं को वे केवल अपना मौलिक अधिकार मानते हैं, बाकी दुनिया के लिए इनकी चाहत भी उनकी नज़र में अपराध ही तो है।

सोवियत संघ भी एक कम्युनिस्ट देश था लेकिन दुनिया में उसने अपना भरोसा कायम किया था। यह भरोसा उसने कमाया था जो आज तक उसके पास है। लेकिन चीन न्यूनतम भरोसे की उस शर्त को भी पूरा नहीं करता। इसीलिए मित्र के नाम पर उसके पास केवल वे देश हैं जिनके पास कोई और चारा नहीं है। पाकिस्तान और उत्तर कोरिया जैसे देश इसी श्रेणी में आते हैं। रूस से चीन के संबंध किन-किन शर्तों पर हैं, यह चर्चा का अलग विषय है। जिन देशों के साथ उसके व्यापारिक समझौते हैं, वे भी कितने अस्थिर क़िस्म के हैं, यह कहने की ज़रूरत नहीं। कुछ लोगों को इसके बावजूद ऐसा लगता है कि वैश्विक महामारी का यह दौर गुज़र जाने के बाद भी चीन को तोड़ना आसान नहीं होगा।

निस्संदेह! यह सोच कोरी कयासबाज़ी नहीं है। इसके पर्याप्त कारण हैं। पहले उन कारणों की ही चर्चा कर लेते हैं। चीन की आर्थिक और सामरिक ताक़त अपनी जगह है। वह चाहे जितनी हो, पर इतनी नहीं है कि वह अमेरिका या रूस के सामने टिक सके। भारत भी उससे दो-दो हाथ कर सकता है। दुनिया की चाहे कितनी भी बड़ी आर्थिक और सामरिक ताक़त हो, उससे निबटा जा सकता है। आर्थिक ताक़त का आलम यह है कि जब पूरी दुनिया कोरोना की मार से कराह रही थी और कई देशों में लॉक डाउन के चलते शेयर बाजार धड़ाम हो रहे थे, ठीक तभी चीन फटाफट कंपनियों के शेयर खरीदने में लगा था। यह तब हुआ जबकि वह अपने यहाँ वुहान में खुद ही जान बूझकर  फैलाई गई महामारी पर काबू नहीं पा सका था। जिस तरह उसने पहले वुहान में कोरोना फैलने को लेकर झूठ बोला और पूरी दुनिया को धोखे में रखा, ठीक उसी तरह उसने अपने अहद में इस महामारी पर काबू पा लेने को लेकर भी झूठ ही बोला। जिन डॉक्टरों और पत्रकार ने पहली बार इस मामले पर बोला उनके पार्थिव शरीर को कहाँ ठिकाने लगाया गया, यह तो अब चर्चा से ही बाहर है। एक भयावह महामारी के सच को दबाकर चीन अपने ही नागरिकों तक की जान की परवाह छोड़कर किस तरह विश्वशक्ति बनने में जुटा था इसका ताज़ा उदाहरण बिजनेस पत्रिका ब्लूमबर्ग के एक स्तंभकार माक्सी यिंग का यह प्रेक्षण है कि पिछले सप्ताह चीन के स्टॉक शंघाई और शेनजेन ने पिछले दो साल में सबसे बेहतरीन प्रदर्शन किया। उनमें पाँच प्रतिशत की वृद्धि देखी गई। भारत ने समय रहते बिना कुछ बोले अपने केवल एक निजी बैंक में चीन के शेयर एक प्रतिशत से अधिक होते ही उसकी बाकी खरीदारी पर रोक लगा दी। जाहिर है, यह बात चीन को नागवार गुजरी और तुरंत उसके भारत स्थित दूतावास की बिलबिलाहट भी सामने आ गई। इससे ज्यादा न तो कुछ करना उसके बस में था और न वह कर सका। इसके बावजूद जाहिर है, दुनिया के पैमाने पर चीन आर्थिक महाशक्ति होने की ओर बढ़ चुका है, जो कि वह पहले भी कुछ बहुत कम नहीं था।

©Isht Deo Sankrityaayan

 

 


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