वचन लल्लेश्वरी के


कुस मरि तय कसू मारन।
मरि कुस तय मारन कस॥
युस हर-हर त्राविथ गर-गर करे।
अद सुय मरि तय मारन तस॥

[कौन मरता है और कौन है जो मारा जाता है
बस वही जिसने भुला दिया ईश्वर का नाम
और खो गया संसार की विषय-वासनाओं में
वही है जो मरता है और वही है जो मारा जाता है॥]

शिव चुय थाली थाली रोज़न।
मो ज़न हिंदू ता मुसलमान॥
त्रुक अय चुक पन पनुन प्रजनव।
सोय चय साहिबस जानिय जन॥

[सर्वत्र व्याप्त हैं शिव, कण-कण में शिव का वास।
कभी न करो भेद क्या हिंदू और क्या मुसलमान॥
देखो अपने भीतर, यदि हो तुम चतुर सुजान।
मन के मंदिर में ही तेरे है बैठा भगवान॥]

मूढस ज्ञानच कथ न वएंजे।
खरस गोरे दिना रवि दोह॥
स्येकि शठस बोलि न वएंजे।
कोम यज्ञन रावी तील॥

[मूढ़ को कभी न दो भक्ति का ज्ञान
वृथा प्रयत्न यह वैसे जैसे गधे को खिलाओ गुड़
यह है वैसे जैसे मरुथल में बो देना बीज
ऐसे जैसे व्यर्थ गंवाना तेल
चोकर से पूड़ियां बनाने में]

चाहे कोई हिंदू हो या मुसलमान, अगर बात-बात में बतौर उदाहरण इन पदों का इस्तेमाल करता न मिले तो समझिए कि वह और चाहे कुछ भी हो, कश्मीरी तो नहीं हो सकता। जानते हैं ये क्या हैं? कश्मीर के लोग इन्हें लल्ल वख कहते हैं। वख यानी पद, दोहे या कवित्त... जो चाहें समझ लें। मुझे लगता है कि वख शायद संस्कृत के वाक् शब्द का ही अपभ्रंश है। वही जिससे वचनया वाक्यबनता है, कथन या उक्ति का अर्थ देता है। लल्ल वख, यानी लल्लेश्वरी के वचन।

लल्लेश्वरी के वचन काव्यरूप में ही हैं, लेकिन कश्मीरी लोग इन्हें कहावतों-मुहावरों के रूप में भी याद रखते हैं। कश्मीर में इनका वही स्थान है जो हिंदीभाषी क्षेत्रों में तुलसी या कबीर का, बंग्ला में रबींद्र या नजरुल का और दक्षिण में कम्बन का। सही अर्थों में जनकवि। कश्मीर के हिंदू इन्हें ऋषि मानते हैं तो मुसलमान सूफी संत। दोनों समुदायों के बीच इन्हें समान रूप से सम्मान प्राप्त है।

चौदहवीं शताब्दी की इस संत कवयित्री का जन्म एक कश्मीरी पंडित परिवार में पंद्रेथान में हुआ था। आज के पंद्रेथान गाँव को ही कभी पुराणाधिष्ठान नाम से जाना जाता था। यह श्रीनगर से लेह वाले हाइवे पर करीब 10 किलोमीटर की दूरी पर है। लेह हाइवे और झेलम नदी के दोनों तरफ फैला यह स्थान कस्बेनुमा बाजार लगता है। जगह का सौंदर्य बस यूँ समझिए कि संसार में कहीं कोई उपमा नहीं है।

किसी जमाने में यहीं कश्मीर की राजधानी हुआ करती थी। अब एस्टैब्लिश्मेंट के नाम पर यहाँ सिर्फ एक सैन्य छावनी है। यहाँ एक मेरुवर्धनस्वामी मंदिर भी है। मेरुवर्धनस्वामी के रूप में यहाँ भगवान विष्णु पूजे जाते हैं। यह कभी बौद्ध धर्म का भी एक प्रमुख केंद्र हुआ करता था।

श्रीनगर आने वाले इक्के-दुक्के पर्यटक माहौल सामान्य होने पर इधर भी आ जाते हैं। वरना लोगों का आना-जाना अब यहाँ बहुत कम ही होता है। आवागमन घटने का सबसे बड़ा कारण है केवल दो-तीन कुनबों द्वारा फैलाया गया अलगाववाद और इसी की आड़ में पनपा पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद। कश्मीरी हिंदुओं का पलायन किसी के लिए कोई नई बात नहीं है। जाहिर है, अब यहाँ केवल मुसलमान बचे हैं। लेकिन जो बचे हैं वे लल्लेश्वरी के प्रति आदरभाव से भरे हुए हैं और जिस चीज से वे बेहद दुखी हैं, वह है अलगाववाद, आतंकवाद और इन सबका जड़ अनुच्छेद 370 और 35 क। ख़ैर, इसका जिक्र आगे की किसी कड़ी में करूंगा। अभी बात लल्लेश्वरी की।

लल्लेश्वरी ने घर पर ही अपने पिता से भाषा, साहित्य, दर्शन और अध्यात्म की उच्च शिक्षा प्राप्त की। इसके बाद 24 वर्ष की आयु में उन्होंने संन्यास ले लिया। उन्होंने शैव गुरु सिद्ध श्रीकंठ से दीक्षा ली और बहुत शीघ्र ही उन्होंने आध्यात्मिक ऊँचाइयां प्राप्त कर लीं।

लल्लेश्वरी की जितनी प्रतिष्ठा हिंदुओं में है, उतनी ही मुसलमानों में। उन्होंने लल्लेश्वरी, लल्ल दिद्दीदिद्दी, लल्ल योगेश्वरी, लल्ल दय्द और लल्ल आरिफा के नाम से जानते हैं। हिंदुओं को वहाँ से पूरी तरह से विस्थापित कर देने के बाद से उनका एक दूसरा नाम वहाँ ज्यादा प्रचलित करने की कोशिश हुई और वह है लल्ल आरिफा। इस नाम से उन्हें सूफी संत के रूप में लोग याद करते हैं।

यह कुछ-कुछ वैसा ही है जैसा उत्तर प्रदेश में कबीर के साथ हुआ। लेकिन लल्लेश्वरी के जीवन काल में या उसके तुरंत बाद भी ऐसा कुछ नहीं हुआ। यह बहुत बाद में शुरू हुआ शेख अब्दुल्ला के शासनकाल में और इसके सूत्रधार वे विश्वविद्यालयी विद्वान बने जो जिन्हें जम्मू-कश्मीर सरकार या उसके विदेशी मददगारों की कृपा की दरकार थी।

स्थानीय लोग आज भी उन्हें अधिकतर लल्लेश्वरी या लल्ल दिद्दी नाम से ही याद करते हैं। खैर नाम कुछ भी हो, उसकी पहचान कुछ भी बनाई जाए, व्यक्ति और शिक्षाएँ तो वही हैं और इससे कश्मीरी लोगों का, चाहे वे हिंदू हों या मुसलमान, कतई कोई इनकार नहीं है। लल्लेश्वरी के संबंध में कश्मीर में कई तरह लोकश्रुतियाँ प्रचलित हैं। जैसा कि होता ही है, इनमें कुछ परस्पर विरोधी भी हैं। कई चमत्कार भी उनके नाम से बताए जाते हैं और कई महत्वपूर्ण शिक्षाएँ भी।

लल्लेश्वरी के शिष्यों में सबसे प्रमुख माने जाते हैं नंद ऋषि। एक मुसलिम परिवार में नंद ऋषि का मूल नाम शेख नूरुद्दीन वली था। उन्हें लुंद ऋषि, नूरुद्दीन ऋषि और नंद ऋषि आदि नामों से जाना जाता है। स्वयं तप और लल्लेश्वरी के प्रभाव से शैव मत के महत्वपूर्ण ऋषियों में गिने जाते हैं। कश्मीर के हिंदू और मुसलमान दोनों समुदायों में समान रूप से सम्मान्य नंद ऋषि सूफी संतों की ऋषि परंपरा स्थापित करने के लिए जाना जाता है। नंद ऋषि की चर्चा अगली कड़ी में।


©इष्ट देव सांकृत्यायन 

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