kaisa chandan
कैसा चन्दन होता है
( यह गज़ल १९९४ में लिखी गई थी और आज अचानक ही कागजों में मिल गई . बिना किसी परिवर्तन, संशोधन के आपके लिए प्रस्तुत कर रहा हूँ.बीते दिनों का स्वाद लें .)सूनेपन में कभी- कभी जब यह मन आँगन होता है।
स्मृतियों के सुर-लय पर पीड़ा का नर्तन होता है।
क्या स्पर्श पुष्प का जानूँ, क्या आलिंगन क्या मधुयौवन
जी करता भौंरे से पूछूँ - कैसा चुम्बन होता है।
लोग पूछते इतनी मीठी बंशी कौन बजाता है
ध्वस्त हो रहे खंडहरों में जब भी क्रंदन होता है।
हिमकर के आतप से जलकर शारदीय नीरवता में
राढ़ी ने ज्वाला से पूछा - कैसा चंदन होता है।
प्यार मर गया सदियों पहले, जिस दिन मानव सभ्य हुआ
अब तो उसके पुण्य दिवस पर केवल तर्पण होता है।
वाह राढ़ी जी, बहुत सुन्दर लिखा है..
ReplyDeleteबहुत उम्दा..वाह! १९९४ में भी कलम में रवानी थी.
ReplyDeleteप्यादा तो तभी से मरा हुआ है।
ReplyDeleteप्यार मर गया सदियों पहले, जिस दिन मानव सभ्य हुआ
ReplyDeleteअब तो उसके पुण्य दिवस पर केवल तर्पण होता है।
अद्भुत. अभिभूत कर देने वाली पंक्तियां हैं.
रचना तो जो है सो है...पर ये पंक्तियाँ...
ReplyDeleteप्यार मर गया सदियों पहले, जिस दिन मानव सभ्य हुआ
अब तो उसके पुण्य दिवस पर केवल तर्पण होता है।
किन शब्दों में प्रशंसा करूँ ????
बस वाह वाह वाह...
प्यार मर गया सदियों पहले, जिस दिन मानव सभ्य हुआ
ReplyDeleteअब तो उसके पुण्य दिवस पर केवल तर्पण होता है।
१९९४ में भी कलम में रवानी थी.....
:))
ग़ज़ल का प्रत्येक लफ्ज़ अद्भुत कारीगरी का नमूना है...इस बेजोड़ लेखन पर बधाई स्वीकारें...ग़ज़ल लेखन बंद न करें नियमित लिखें क्यूँ के आपसी प्रतिभा विरलों के पास ही होती है.
ReplyDeleteनीरज
शानदार सर जी आनद आ गया
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