कलियां भी आने दो
रतन
कांटे हैं दामन में मेरे
कुछ कलियां भी आने दो
मुझसे ऐसी रंजिश क्यों है
रंगरलियां भी आने दो
सूखे पेड़ मुझे क्यों देते
जिनसे कोई आस नहीं
कम दो पर हरियाला पत्ता
और डलियां भी आने दो
तेरी खातिर भटका हूं मैं
अब तक संगी राहों पर
जीवन के कुछ ही पल तुम
अपनी गलियां भी आने दो
jnaab bhut achchi prstuti. bdhaayi ho. akhtar khan akela kota rajsthan
ReplyDeleteएक एक कर कर,
ReplyDeleteउम्मीदें टूट है जाती,
बची हुई भी जाने दो अब,
और सुकूँ को आने दो ..
अच्छी प्रस्तुति ...
अच्छी प्रस्तुति। आभार।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर, आपका अधिकार है।
ReplyDeleteवाह....बहुत ही सुन्दर भावाभिव्यक्ति...
ReplyDeleteशानदार
ReplyDeleteअनुपम कविता !