बिहार में रिफोर्मिस्ट की कमी है
कल रात अचानक बिहार आर्ट थियेटर की दुनिया के एक मजे हुये सख्सियत से मुलाकात हो गई। बातों ही बातों में मैंने पूछा, भारंगम में बिहार आर्ट थियेटर की क्या उपस्थिति है। उन्होंने कहा, कुछ भी नहीं। एक बार हमने भारंगम में बिहार आर्ट थियेटर से एक नाटक भेजा था। जानते हैं उसका जवाब क्या आया? एनएसडी का लेटर आज भी पड़ा है। उसमें लिखा है कि आपका नाटक बेहतर है, लेकिन हम इसे अपने सम्मेलन में शामिल नहीं कर सकते हैं। अगले वर्ष इस पर विचार करेंगे। थोड़ा हिचकते हुये मैंने छेड़ा, अगले वर्ष से क्या मतलब है। उन्होंने कहा, आपको बात बुरी लगेगी लेकिन इसमें सच्चाई है। भारंगम एनएसडी का कार्यक्रम है, और इसमें उन्हीं लोगों के नाटक को सम्मिलित किया जाता है, जो लोग एनएसडी से जुड़े हुये हैं। हां, दिखावे के लिए एक-दो नाटक यहां- वहां से वे लोग ले लेते हैं। सब पैसे बटोरने का खेल है। एनएसडी का लेटर अभी भी मेरे पास पड़ा हुआ है। आप कहें तो मैं दिखाऊं।
पटना के कालिदास रंगायल में मेरे साथ दो-तीन लोग और बैठे हुये थे। उस सख्सियत की बातों में मुझे रस मिल रहा था। बात को आगे बढ़ाते हुये मैंने कहा, महाराष्ट्र में लोग टिकट खरीद कर नाटक देखने आते हैं। दिल्ली में भी कमोवेश यही स्थिति है। फिर बिहार में रंगमंच प्रोफेसनलिज्म की ओर क्यों नहीं बढ़ रहा है ? इतना सुनते ही एक लंबी सांस लेने के बाद वह बोले, आपको पता है कालिदास रंगालय में किस तरह के दर्शक आते हैं। लुंगी-गंजी पहन कर कांधे पर गमछा रखकर लोग नाटक देखने आते हैं। इतना ही नहीं वे पैर को अगली सीट पर फेंक कर बैठते हैं। और यदि उन्हें मना करो तो मरने-मारने पर उतारू हो जाते हैं। रंगमंच सजग दर्शक की मांग करती है। आपको पता है बंगाल में लोग बड़े शौक से नाटक देखने जाते हैं। वो भी पूरे परिवार के साथ। घर में सुबह से ही जश्न का माहौल रहता है। लेकिन पटना में रंगमंच पूरी तरह से उपेक्षित है।
बातों के दौरान एक नेता जी बीच में कुद पड़े और लगे बोलने, बिहार का युवावर्ग नपुंसक है। वह सामाजिक सरोकारों से पूरी तरह से दूर हो चुका है। मैंने छूटते ही पूछा, यदि यहां का युवावर्ग सामाजिक सरोकारों से दूर हो रहा है तो दोष किसका है। उसका एजेंडा क्लियर है। यदि वह आज पढ़ाई कर रहा है तो यही सोंचकर कि कल उसे 30-40 हजार की नौकरी मिल जाएगी। और यदि उसे 30-40 हजार की नौकरी मिली हुई तो वह यही सोंच रहा है कि वह 50-60 रुपये महीने में कैसे कमाये। वह ऐसा ना सोचे तो क्या करे? नेता जी के पास इसका कोई सटीक जवाब नहीं था, लेकिन थियेटर से जुड़े सख्सियत ने कहा, मैं भले ही थियेटर से जुड़ा हुआ हूं। लेकिन मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि थियेटर की कोई भूमिका नहीं रही गई है। हिंदी रंगमंच महाराष्ट्र और बंगाल में पूरी तरह से प्रोफेशन हो गया है। वहां पर लोग टिकट खरीद कर नाटक देखने आते हैं। लेकिन भोपाल, इलाहाबाद, लखनऊ जैसे शहरों के बारे आप क्या कहेंगे, जहां पर रंगमंच से वही लोग जुड़े हुये हैं जो इसमें शिरकत करते हैं। उनकी बातों को मजबूती प्रदान करते हुये नाटक से जुड़े एक अन्य बंदे ने कहा, लोग यहां पर फ्री में थियेटर कर रहे हैं। वो भी इसलिए कि उन्हें फिल्मों में काम करने का मौका मिल जाये। नेता जी ने एक बार फिर अपना फंडा समझाते हुये कहा, दिल्ली और मुंबई में नाटकों में सेक्स परोसा जा रहा है। रंगमंच पर लड़कियां नंगी होने के लिए तैयार हैं। उनकी बातों को क्रास करते हुये मैंने कहा, दिल्ली में अरविंद गौड़ की अस्मिता नामक संस्था बेहतरीन नाटक कर रही है। जन सरोकार से जुड़ी हुई चीजों को वे लोग बहुत ही फोर्सफूली उठा रहे हैं और उनका एक आडियेन्स भी है। वे लोग वहां की जनता को अपने साथ जोड़कर थियेटर को समृद्ध कर रहे हैं। उनके नाटकों में सेक्स नहीं होता। उसी तरह नटसम्राट जैसी संस्था भी कामेडी नाटक करके लोगों को अपने से जोड़े हुये हैं। फिर आप कैसे कह सकते हैं कि नाटकों में सेक्स परोस कर इसे प्रोफेशन लुक दिया जा रहा है। नेता जी को कोई जवाब नहीं सूझा और वे बगल झांकने लगे।
बातों के क्रम में थियेटर से जुड़े सख्सियत ने कहा, बिहार में रिफोर्मिस्ट की कमी है। आप बंगाल को देखिये। वहां राजा राममोहन राय, स्वामी विवेकानंद, केशवचंद सेन जैसे रिफार्मिस्ट हुये, जो लगातार वहां के जनमानस को आंदोलित करते रहे। बिहार में लोग जबरदस्ती के नेता बने हुये हैं। इनके पास कोई दूरगामी योजना नहीं है। आप नीतिश को लीजिये। वो कह रहे हैं गर्व से कहो हम बिहारी है। मैं आपको बताता हूं कि कुछ दिन पहले मैं मुंबई गया था, अपने एक मित्र के पास। उनके घर पर पहुंचते ही उन्होंने मुझे कहा कि आप किसी को बताइगा नहीं कि आप पटना से आ रहे हैं और आप बिहारी है। पटना से जैसे ही ट्रेन खुलती है और यूपी क्रास करती है बिहार के लोग यही कहने लगते हैं कि वे यूपी के हैं। उन्हें यह कहने में शर्म आती है कि वे बिहारी है। नीतिश कुमार की उपलब्धि सिर्फ इतनी है कि उन्होंने गुड रूल दिया है। लेकिन वो एक रिफार्मिस्ट नहीं है। डा. सच्चिदानंद सिन्हा को रिफार्मिस्ट कहा जा सकता है। उनके सलीके अलग थे। कैजुअल ड्रेस में यदि कोई उनसे मिलने आ जाता था तो वह नहीं मिलते थे। उनका अपना तरीका था। लोकनायक जय प्रकाश भी रिफार्मिस्ट थे, लेकिन वह किसी की सुनते नहीं थे। बस अपनी ही कहते थे। आपको पता है दिपांकर भटाचार्य इसी बिहार आर्ट थियेटर में छुपे रहते थे जब पुलिस उन्हें खोज रही थी। अभी दो दिन पहले वह गांधी मैदान में लैंड रिफार्म की बात कर रहे थे। मैं तो कहता हूं कि लालू प्रसाद यादव में माओ त्से तुंग बनने की पूरी संभावना थी। याद किजीये वह दौर जब उनके कहने पर गांधी मैदान लोगों से भर जाता था। लेकिन उनके पास कोई विजन नहीं था। यहां की जनता को उन्होंने आंदोलित तो कर दिया लेकिन सही तरीके से लीड नहीं कर पाये। आज बिहार को रिफार्मिस्ट की जरूरत है। यहां के तमाम लीडरान अपने निजी स्वार्थों की पूर्ति में लगे हुये हैं। आप लिख लिजीये रामविलास कांग्रेस में जाएंगे। कांग्रेस के बिना इनकी राजनीति चल ही नहीं सकती।
बोलते –बोलते वो आवेश में आ गये थे, कानू सान्याल एक झोपड़ी में मर गये। देश के कई मुख्यमंत्रियों की तुलना में वह ताउम्र सक्रिया रहे। लेकिन कभी सुरक्षा नहीं लिया। आज के नेता लोग बंदूक के साये में चलते हैं। यदि वे जन नेता हैं तो उन्हें डर किस बात का है? चाहे लोग लाख कहें लेकिन कानू सान्याल से वे बड़े नेता नहीं हो सकते। माओ ठीक ही कहता था कि सत्ता बंकूक की नली से निकलती है। तभी तो आज के डेमोक्रेटिक नेताओं को बंदूक की जरूरत पड़ती है। आज केंद्र सरकार भी इस बात को मान रही है कि यदि नक्सलियों को रोका नहीं गया तो अगले 50 वर्षों में भारत में नक्सलियों को राज हो जाएगा। एक बहुत बड़े भू-भाग में नक्सलियों की समानांतर सरकार चल रही है। वे लोग अपने तरीके से स्थापित सत्ता को गंभीर चुनौती दे रहे हैं। कई जगहों पर अब तो वे बैनर के साथ विधिवत मार्च कर रहे हैं। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में हिंसक आंदोलनों का एक मजबूत इतिहास रहा है। लेकिन भारत की स्वतंत्रता का सारा श्रेय गांधी जी को दिया जाता है। मामला साफ है जिसके हाथ में सत्ता है इतिहास उसी का है।
पटना के कालिदास रंगायल में मेरे साथ दो-तीन लोग और बैठे हुये थे। उस सख्सियत की बातों में मुझे रस मिल रहा था। बात को आगे बढ़ाते हुये मैंने कहा, महाराष्ट्र में लोग टिकट खरीद कर नाटक देखने आते हैं। दिल्ली में भी कमोवेश यही स्थिति है। फिर बिहार में रंगमंच प्रोफेसनलिज्म की ओर क्यों नहीं बढ़ रहा है ? इतना सुनते ही एक लंबी सांस लेने के बाद वह बोले, आपको पता है कालिदास रंगालय में किस तरह के दर्शक आते हैं। लुंगी-गंजी पहन कर कांधे पर गमछा रखकर लोग नाटक देखने आते हैं। इतना ही नहीं वे पैर को अगली सीट पर फेंक कर बैठते हैं। और यदि उन्हें मना करो तो मरने-मारने पर उतारू हो जाते हैं। रंगमंच सजग दर्शक की मांग करती है। आपको पता है बंगाल में लोग बड़े शौक से नाटक देखने जाते हैं। वो भी पूरे परिवार के साथ। घर में सुबह से ही जश्न का माहौल रहता है। लेकिन पटना में रंगमंच पूरी तरह से उपेक्षित है।
बातों के दौरान एक नेता जी बीच में कुद पड़े और लगे बोलने, बिहार का युवावर्ग नपुंसक है। वह सामाजिक सरोकारों से पूरी तरह से दूर हो चुका है। मैंने छूटते ही पूछा, यदि यहां का युवावर्ग सामाजिक सरोकारों से दूर हो रहा है तो दोष किसका है। उसका एजेंडा क्लियर है। यदि वह आज पढ़ाई कर रहा है तो यही सोंचकर कि कल उसे 30-40 हजार की नौकरी मिल जाएगी। और यदि उसे 30-40 हजार की नौकरी मिली हुई तो वह यही सोंच रहा है कि वह 50-60 रुपये महीने में कैसे कमाये। वह ऐसा ना सोचे तो क्या करे? नेता जी के पास इसका कोई सटीक जवाब नहीं था, लेकिन थियेटर से जुड़े सख्सियत ने कहा, मैं भले ही थियेटर से जुड़ा हुआ हूं। लेकिन मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि थियेटर की कोई भूमिका नहीं रही गई है। हिंदी रंगमंच महाराष्ट्र और बंगाल में पूरी तरह से प्रोफेशन हो गया है। वहां पर लोग टिकट खरीद कर नाटक देखने आते हैं। लेकिन भोपाल, इलाहाबाद, लखनऊ जैसे शहरों के बारे आप क्या कहेंगे, जहां पर रंगमंच से वही लोग जुड़े हुये हैं जो इसमें शिरकत करते हैं। उनकी बातों को मजबूती प्रदान करते हुये नाटक से जुड़े एक अन्य बंदे ने कहा, लोग यहां पर फ्री में थियेटर कर रहे हैं। वो भी इसलिए कि उन्हें फिल्मों में काम करने का मौका मिल जाये। नेता जी ने एक बार फिर अपना फंडा समझाते हुये कहा, दिल्ली और मुंबई में नाटकों में सेक्स परोसा जा रहा है। रंगमंच पर लड़कियां नंगी होने के लिए तैयार हैं। उनकी बातों को क्रास करते हुये मैंने कहा, दिल्ली में अरविंद गौड़ की अस्मिता नामक संस्था बेहतरीन नाटक कर रही है। जन सरोकार से जुड़ी हुई चीजों को वे लोग बहुत ही फोर्सफूली उठा रहे हैं और उनका एक आडियेन्स भी है। वे लोग वहां की जनता को अपने साथ जोड़कर थियेटर को समृद्ध कर रहे हैं। उनके नाटकों में सेक्स नहीं होता। उसी तरह नटसम्राट जैसी संस्था भी कामेडी नाटक करके लोगों को अपने से जोड़े हुये हैं। फिर आप कैसे कह सकते हैं कि नाटकों में सेक्स परोस कर इसे प्रोफेशन लुक दिया जा रहा है। नेता जी को कोई जवाब नहीं सूझा और वे बगल झांकने लगे।
बातों के क्रम में थियेटर से जुड़े सख्सियत ने कहा, बिहार में रिफोर्मिस्ट की कमी है। आप बंगाल को देखिये। वहां राजा राममोहन राय, स्वामी विवेकानंद, केशवचंद सेन जैसे रिफार्मिस्ट हुये, जो लगातार वहां के जनमानस को आंदोलित करते रहे। बिहार में लोग जबरदस्ती के नेता बने हुये हैं। इनके पास कोई दूरगामी योजना नहीं है। आप नीतिश को लीजिये। वो कह रहे हैं गर्व से कहो हम बिहारी है। मैं आपको बताता हूं कि कुछ दिन पहले मैं मुंबई गया था, अपने एक मित्र के पास। उनके घर पर पहुंचते ही उन्होंने मुझे कहा कि आप किसी को बताइगा नहीं कि आप पटना से आ रहे हैं और आप बिहारी है। पटना से जैसे ही ट्रेन खुलती है और यूपी क्रास करती है बिहार के लोग यही कहने लगते हैं कि वे यूपी के हैं। उन्हें यह कहने में शर्म आती है कि वे बिहारी है। नीतिश कुमार की उपलब्धि सिर्फ इतनी है कि उन्होंने गुड रूल दिया है। लेकिन वो एक रिफार्मिस्ट नहीं है। डा. सच्चिदानंद सिन्हा को रिफार्मिस्ट कहा जा सकता है। उनके सलीके अलग थे। कैजुअल ड्रेस में यदि कोई उनसे मिलने आ जाता था तो वह नहीं मिलते थे। उनका अपना तरीका था। लोकनायक जय प्रकाश भी रिफार्मिस्ट थे, लेकिन वह किसी की सुनते नहीं थे। बस अपनी ही कहते थे। आपको पता है दिपांकर भटाचार्य इसी बिहार आर्ट थियेटर में छुपे रहते थे जब पुलिस उन्हें खोज रही थी। अभी दो दिन पहले वह गांधी मैदान में लैंड रिफार्म की बात कर रहे थे। मैं तो कहता हूं कि लालू प्रसाद यादव में माओ त्से तुंग बनने की पूरी संभावना थी। याद किजीये वह दौर जब उनके कहने पर गांधी मैदान लोगों से भर जाता था। लेकिन उनके पास कोई विजन नहीं था। यहां की जनता को उन्होंने आंदोलित तो कर दिया लेकिन सही तरीके से लीड नहीं कर पाये। आज बिहार को रिफार्मिस्ट की जरूरत है। यहां के तमाम लीडरान अपने निजी स्वार्थों की पूर्ति में लगे हुये हैं। आप लिख लिजीये रामविलास कांग्रेस में जाएंगे। कांग्रेस के बिना इनकी राजनीति चल ही नहीं सकती।
बोलते –बोलते वो आवेश में आ गये थे, कानू सान्याल एक झोपड़ी में मर गये। देश के कई मुख्यमंत्रियों की तुलना में वह ताउम्र सक्रिया रहे। लेकिन कभी सुरक्षा नहीं लिया। आज के नेता लोग बंदूक के साये में चलते हैं। यदि वे जन नेता हैं तो उन्हें डर किस बात का है? चाहे लोग लाख कहें लेकिन कानू सान्याल से वे बड़े नेता नहीं हो सकते। माओ ठीक ही कहता था कि सत्ता बंकूक की नली से निकलती है। तभी तो आज के डेमोक्रेटिक नेताओं को बंदूक की जरूरत पड़ती है। आज केंद्र सरकार भी इस बात को मान रही है कि यदि नक्सलियों को रोका नहीं गया तो अगले 50 वर्षों में भारत में नक्सलियों को राज हो जाएगा। एक बहुत बड़े भू-भाग में नक्सलियों की समानांतर सरकार चल रही है। वे लोग अपने तरीके से स्थापित सत्ता को गंभीर चुनौती दे रहे हैं। कई जगहों पर अब तो वे बैनर के साथ विधिवत मार्च कर रहे हैं। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में हिंसक आंदोलनों का एक मजबूत इतिहास रहा है। लेकिन भारत की स्वतंत्रता का सारा श्रेय गांधी जी को दिया जाता है। मामला साफ है जिसके हाथ में सत्ता है इतिहास उसी का है।
पटना के कालिदास रंगायल में मेरे साथ दो-तीन लोग और बैठे हुये थे। उस सख्सियत की बातों में मुझे रस मिल रहा था। बात को आगे बढ़ाते हुये मैंने कहा, महाराष्ट्र में लोग टिकट खरीद कर नाटक देखने आते हैं। दिल्ली में भी कमोवेश यही स्थिति है। फिर बिहार में रंगमंच प्रोफेसनलिज्म की ओर क्यों नहीं बढ़ रहा है ? इतना सुनते ही एक लंबी सांस लेने के बाद वह बोले, आपको पता है कालिदास रंगालय में किस तरह के दर्शक आते हैं। लुंगी-गंजी पहन कर कांधे पर गमछा रखकर लोग नाटक देखने आते हैं। इतना ही नहीं वे पैर को अगली सीट पर फेंक कर बैठते हैं। और यदि उन्हें मना करो तो मरने-मारने पर उतारू हो जाते हैं। रंगमंच सजग दर्शक की मांग करती है। आपको पता है बंगाल में लोग बड़े शौक से नाटक देखने जाते हैं। वो भी पूरे परिवार के साथ। घर में सुबह से ही जश्न का माहौल रहता है। लेकिन पटना में रंगमंच पूरी तरह से उपेक्षित है।....यह काफी निराशा जनक है.
ReplyDeleteएक जमीनी हकीकत .
ReplyDeleteshakhsiyat mein talavya sh hota hai yaa dantya s
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