जिन्न-आ मुझे मार
अब तो आपको विश्वास हो ही गया होगा कि जिन्न होते ही हैं और उनमें दम भी होता है। अब केवल दिखाने के लिए बहादुर मत बनिए, वैसे भी इस जिन्न का असर आप पर नहीं होने वाला। ये जिन्न बड़ा जबरदस्त है। जिन्न क्या है, समझिए जिन्ना है। ढूंढ़- ढूंढ़कर बड़े-बड़े नेताओं को मार रहा है , बिलकुल राष्ट्रीय स्तर और राष्ट्रवादी नेताओं को !मार भी क्या रहा है, न मरने दे रहा है न जीने। इस बार भी उसने बड़ा शिकार चुना है। मजे की बात तो यह है कि इस शिकार से किसी को सहानुभूति नहीं है, यहां तक कि ओझाओं और सोखाओं तक को नहीं जो कि इस के घर के ही हैं ! घर- परिवार वाले तो इसे देखना भी नहीं चाहते। इस शिकार से तो वे पहले से ही चिढ़े थे ,अब इसने एक जिन्न और लगा लिया अपने पीछे । दरअसल उन्हें शिकार से ज्यादा चिढ़ इस जिन्न से है । जिन्न इसने लगाया,चलो ठीक है, पर इस वाले जिन्न को क्यों लगाया ? और इस शिकार को क्या कहें ? इसे मालूम था कि इस जिन्न के प्रति माहौल खराब है,फिर भी इसे छेड़ा। पहले तो इसे कहते थे कि आ बैल मुझे मार , पर इसने तो कहा- आ जिन्न-आ मुझे मार !
ये जिन्न बड़ा राजनीतिज्ञ है, केवल चले बले राजनेताओं को मारता है। और मारता भी उसे है जो इसकी बड़ाई करने की कोशिश करता है।इसे धर्म निरपेक्षता से बड़ी चिढ़ है । कुछ भी कह लो पर यही मत कहो। पूरे जीवन धर्मनिरपेक्षता से ही लड़ने की कोशिश की और अब मरहूम होने पर भी उसकी रूह को दुखी कर रहे हो।इतनी मेहनत करके देश का बंटवारा करवाया और इसका श्रेय अभी तक अकेले एन्ज्वाय किया । अब तुम इसमें भी नेहरू-पटेल को शामिल करने लगे ?
साठ साल तो उस घटना के हुए होंगे , पर सठियाने आप लगे। क्या विडम्बना है आपकी भी। अभी चार पांच साल ही हुए होंगे, आपके दल के बहुत बड़े सदस्य के खिलाफ वह जिन्न उभरा था। पब्लिक को पता है, याद भी है। तब भी कुछ ऐसा ही हुआ था।उन्हें अपना सिर देकर जान बचानी पड़ी थी। अब भला जिन्न का मारा कहां तक संभले ? फिर भी आप जिन्न को छेड़ गए! वैसे वह जिन्न है तो शरीफ। यहां उसकी बुराई करो तो आपको पूछेगा भी नहीं, और बड़ाई की और गए। महोदय, आपने तो हद ही कर दी। बड़ाई को कौन कहे आप तो पूरी किताब लिख गए। छपवा भी ली और भाइयों को पढ़वा भी दी । अब होना तो यही था। घर तो आपका पहले से ही भुरभुरा हो रहा था। खंडहर जैसी दशा में आने वाला था, जिन्न और आपने छोड़ दिया- वह भी पड़ोसी का । पड़ोसी वैसे भी किसी जिन्न से कम नहीं होता, यह तो पूरा जिन्ना ही था।
खैर, इस उमर में जिन्न आपका बिगाड़ ही क्या लेगा ? किताब तो आपकी आ ही गई । हंस बिरादरी में आप शामिल हो ही गए हैं । इस उम्र में ही लेखकों को साहित्य के बडे-बड़े पुरस्कार मिलते हैं। लह- बन जाए तो साहित्य का नोबल पुरस्कार भी मिल सकता है। एक पुरस्कार ऐसा आया नहीं कि आप को फिर यही घरवाले सिर पर बिठाकर घूमेंगे। पुरस्कार प्राप्त व्यक्ति की जैसी कद्र अपने देश में होती है वैसी और कहीं नहीं।
मुझे तो खुशी इस बात की हो रही है कि अभी भी इस देश में लोग किताबें पढ़ते है। अगर पढ़ते नही तो इतना बवाल कहां से होता ।परिचर्चा भी करते हैं लोग और एक्शन भी लिया जाता है। राजनैतिक दल इतने दृढ़ और नैतिक हैं कि अपनी विचारधारा के उलट जाने वाले को फौरन दंड भी देते हैं। यह बात अलग है कि यह सब पड़ोसी देश के बड़े जिन्न यानी जिन्ना की रूह के प्रभाव में होता है।
ये जिन्न बड़ा राजनीतिज्ञ है, केवल चले बले राजनेताओं को मारता है। और मारता भी उसे है जो इसकी बड़ाई करने की कोशिश करता है।इसे धर्म निरपेक्षता से बड़ी चिढ़ है । कुछ भी कह लो पर यही मत कहो। पूरे जीवन धर्मनिरपेक्षता से ही लड़ने की कोशिश की और अब मरहूम होने पर भी उसकी रूह को दुखी कर रहे हो।इतनी मेहनत करके देश का बंटवारा करवाया और इसका श्रेय अभी तक अकेले एन्ज्वाय किया । अब तुम इसमें भी नेहरू-पटेल को शामिल करने लगे ?
साठ साल तो उस घटना के हुए होंगे , पर सठियाने आप लगे। क्या विडम्बना है आपकी भी। अभी चार पांच साल ही हुए होंगे, आपके दल के बहुत बड़े सदस्य के खिलाफ वह जिन्न उभरा था। पब्लिक को पता है, याद भी है। तब भी कुछ ऐसा ही हुआ था।उन्हें अपना सिर देकर जान बचानी पड़ी थी। अब भला जिन्न का मारा कहां तक संभले ? फिर भी आप जिन्न को छेड़ गए! वैसे वह जिन्न है तो शरीफ। यहां उसकी बुराई करो तो आपको पूछेगा भी नहीं, और बड़ाई की और गए। महोदय, आपने तो हद ही कर दी। बड़ाई को कौन कहे आप तो पूरी किताब लिख गए। छपवा भी ली और भाइयों को पढ़वा भी दी । अब होना तो यही था। घर तो आपका पहले से ही भुरभुरा हो रहा था। खंडहर जैसी दशा में आने वाला था, जिन्न और आपने छोड़ दिया- वह भी पड़ोसी का । पड़ोसी वैसे भी किसी जिन्न से कम नहीं होता, यह तो पूरा जिन्ना ही था।
खैर, इस उमर में जिन्न आपका बिगाड़ ही क्या लेगा ? किताब तो आपकी आ ही गई । हंस बिरादरी में आप शामिल हो ही गए हैं । इस उम्र में ही लेखकों को साहित्य के बडे-बड़े पुरस्कार मिलते हैं। लह- बन जाए तो साहित्य का नोबल पुरस्कार भी मिल सकता है। एक पुरस्कार ऐसा आया नहीं कि आप को फिर यही घरवाले सिर पर बिठाकर घूमेंगे। पुरस्कार प्राप्त व्यक्ति की जैसी कद्र अपने देश में होती है वैसी और कहीं नहीं।
मुझे तो खुशी इस बात की हो रही है कि अभी भी इस देश में लोग किताबें पढ़ते है। अगर पढ़ते नही तो इतना बवाल कहां से होता ।परिचर्चा भी करते हैं लोग और एक्शन भी लिया जाता है। राजनैतिक दल इतने दृढ़ और नैतिक हैं कि अपनी विचारधारा के उलट जाने वाले को फौरन दंड भी देते हैं। यह बात अलग है कि यह सब पड़ोसी देश के बड़े जिन्न यानी जिन्ना की रूह के प्रभाव में होता है।
भाई वाह वाह वाह
ReplyDeleteक्या बात है...............
अपने फ़न में गज़ब की माहिरी है जनाब !
कमाल कर दिया
बधाई !
वाह जनाब
ReplyDeleteJinna ka bhoot yahaan bhi?
ReplyDeleteवैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाएं, राष्ट्र को उन्नति पथ पर ले जाएं।
उंहुं! जिन्न मार नहीं रहा है,ये तो आपने सुना ही होगा कि जिन्न जब प्रसन्न होता है तो बहुत कुछ देता भी है. असल में जिन्हें आप मरते देख रहे हैं वे मर नहीं रहे हैं. हक़ीऍक़त ये है कि मरने वाले तो वे ऐसे ही थे, बिलकुल कब्र में पांव लटक गए थे, तभी उन्हें यह सूझ गया कि कुछ पुण्य-प्रताप इस बहाने लूट लिया जाए. वही हुआ है. इस जिन्न के पीछे बहुत बड़े-बड़े मौलवी हैं. अगर सचमुच की जांच हो जाए तो क्या पता ये भी मालूम हो कि मुर्दों को अरबों की संजीवनी मिल गई.
ReplyDeleteइतना तो जीतेजी भी जिन्ना को याद किया गया होगा।
ReplyDelete-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
वाह..वाह..!
ReplyDeleteआपने तो डरा ही दिया।
जिन्नाद आखिर था ते हिन्दुस्तानी ही।
कुछ तो लिहाज करेंगा ही।
उसकी तो कब्र भी भाई के यहाँ है।
उन्ही को तो सतायेगा।
काव्या शुक्ला जी,
ReplyDeleteजिन्न हर जगह होते हैं और इतिहास के जिन्न तो पीछा ही नहीं छोडते. आप किस वैज्ञानिक दृष्टिकोण की बात कर रही हैं ? कहीं उसकी तो नहीं जिसने जीवन से आत्मिक और नैतिक विकास को निकाल फेंका है और बचा है तो केवल भौतिक विकास.
प्रभो !
ReplyDeleteजिन्न की बात आते ही आपको भी गीता की फिलॉसफी याद आने लगी ( वही जीवन मृत्यु वाली फिलॉसफी- अध्याय दो-तीन)! जिन्न देते होंगे पर ये राजनीतिक जिन्न था, जब राजनेता देना नहीं जानते तो भला उनका जिन्न क्या देगा? इन्हें राजनीति नहीं छोडनी है,भले ही पांव कब्र में लटके हों. कई तो कब्र पर भी राजनीति कर लेते हैं. हाँ, कुछ ऐसे भी हैं जिंनसे राजनीति छिन जाए तो कब्र में पांव ज़रूर लटक जाते हैं. दूसरी बात मेरी समझ में नहीं आई प्रभो कि आप कैसे मान लिए कि ये पुण्य प्रताप करने जा रहे हैं ? किसी नेता को देखा है आपने अबतक पुण्य करते ? क्या आपको लगता है कि ये राजनीति की नर्क किन्तु राजनेताओं के लिए स्वर्ग स्वरूप भारत भूमि छोडकर देव भूमि हिमालय की किसी पावन कन्दरा या उपत्यका में ये धूनी रमाने जा रहे हैं .महोदय, अब भारतवर्ष में केवल एक ही आश्रम होता है – गृहस्थ . आप को क्या लगता है कि ये सन्यास आश्रम में भी जांएगे ?
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