समर्पित कार्यशैली की गवाह है निकट

दीप्ति गुप्ता

कुछ दिन पहले निकट पत्रिका का अप्रैल-सितंंबर, 2020 का संयुक्तांक मिला। कोरोना से उपजी पंगु स्थितियों और तमाम छोटी-बड़ी अकल्पनीय बाधाओं एवं समस्याओं के बाद भी पत्रिका का छपकर पाठकों तक पहुँचना, जंग जीतने से कम नहीं। 

लेखकों की रचनाओं को पढ़ना, फिर उत्तम साहित्यिक रचनाओं का चयन करना, उन्हें तरतीब देना, प्रूफ़ रीडिंग और  संपादन के तहत, सामग्री मैं थोड़ी-बहुत कतर-ब्योंत के बाद, अंतिम रूप देकर, पत्रिका का कलेवर तैयार करना, कोई सरल कार्य नहीं है। दिल, दिमाग और  देह की खासी मशक्कत होती है। जब ये तीन "दकार" जुगलबंदी में ढल जाते हैं, तब पत्रिका सज-सॅवरकर पाठकों और लेखकों तक पहुँचने के लिए तैयार हो पाती है। यह पत्रिका संपादक की इस समर्पित कार्यशैली की गवाह है।

इस अंक की शुरूआत भरत प्रसाद के उपन्यास अंश से होती है। उसे पढ़कर मुझे आगे पढ़ने की जिज्ञासा  हुई, तो नन्दकिशोर महावीर का अमृतलाल वेगड़ की स्मृति में लिखा भावभीना आलेख  मेरे मन को अंत तक  बाँधे  रहा। गद्य विधाओं के तहत इस अंक में आगे दो 'संस्मरणों' को संजोया गया है। संस्मरण मुझे बहुत लुभाते हैं। बीते दिनों व उनसे जुड़े खास व्यक्तियों और घटनाओं को सिलसिलेवार शब्दबद्ध करना,  नदी के प्रवाह की तरह बहा ले जाने वाला होता है। लेखनकाल में लेखक अतीत की अपनी स्मृतियों में डूबता-उतराता है और फिर पठनकाल में पाठक डूबने-उतराने की प्रक्रिया से गुज़रता है। संस्मरण लिखना अतीत को जीना होता है। रजवंत राज और धनंजय कुुुुुमार सिंह के संस्मरण इतने संजीव बन पड़े हैं कि आँखों के सामने चित्र से खिंचते चले जाते हैं।

रजवंत के दुबे और मिश्री मास्टर जी अच्छा खासा ध्यान खींचते हैं रोशनआपा की आत्मीयता दिल को लुभाती है। लेखिका का मलिक मुहम्मद जायसी को पढ़ने से जी चुराना लेकिन कुछ वर्ष बाद,  एक साहित्यिक संगोष्ठी में शामिल होने पर कवि 'जायसी', रजवंत के वजूद का हिस्सा ही बन जाते हैं और वह उन पर लघु शोध प्रबंध भी लिख डालती है। कुल मिलाकर एक प्यारा रोचक संस्मरण।

धनंजय कुमार का संस्मरण 'इन्हें मैंने क़रीब से देखा' फ़ौजी जीवन की सच्ची दास्तान है। आततायी व अमानवीय अधिकारी तो शिक्षण संस्थान, सरकारी, गैर-सरकारी आदि किसी  भी क्षेत्र का हो, कभी भी अपने मातहतों के दिलों में जगह नहीं बना सकता। धनञ्जय कुमार  की क़लम से चित्रित  विंग कमांडर एक ऐसे ही आत्ममुग्ध क्रूर और दूसरों को सताने में आनंद लेने वाला  "सैडिस्ट" अफ़सर था,  जिसके स्थानांतरण पर पूरा स्टाफ़ चैन की सांस लेता है और "यातना से मुक्ति" जैसे एहसास से भर उठता है। उनकी विदाई तक हर वायुकर्मी अपनी उमड़ती ख़ुशी को बमुश्किल दबा कर रखता है। परंपरागत रूप से होने वाला उपहारों के आदान-प्रदान का सिलसिला सलीम के गिफ्ट के चरम पर समाप्त होता है, जो मेरी कल्पना के परे था। दरअसल वह गिफ़्ट अनेक वायुसैनिकों की तरह सलीम के मन में लंबे समय से आततायी अफ़सर के लिए मन‌ मे पल रही प्रगाढ घृणा की अभिव्यक्ति थी।

इसके बाद नवनीत मिश्र और श्यामसुंदर चौधरी के साक्षात्कार बेहतरीन बन पड़े हैं।

नवनीत मिश्र का कमेंटेटर जसदेव सिंह के साथ 'क्या तआरूफ़ पूछते हो' एक बहुत मनभावन और रोचक साक्षात्कार है, जिसमें जसदेव सिंह के सहज स्वभाव तथा साधारण से असाधारण बनने की यात्रा का प्रेरणास्पद वार्त्तालाप संजोने लायक है।

इसके बाद दूसरा साक्षात्कार, जो रंगमंच के बांग्ला कलाकार शैवाल दास का श्यामसुन्दर चौधरी द्वारा लिया गया और जिसे श्यामसुन्दर चौधरी ने बहुत ही ख़ूबसूरती से क़लमबद्ध किया है। शैवाल दास में नाट्यकला का गुण अभिनय-कुशल पिता से आया था,  जिसमें वे समय के साथ पिता से भी आगे बढ़ गए और 'नहली' नाम से अपना एक नाट्य ग्रुप भी बनाया। मुहल्ले से लेकर रंगमंच तक की ऊॅचाई तक पहुॅचना उनकी सराहनीय उपब्धि थी।

अंक में सम्मिलित कविताएँ,  गीत, नज़्म और ग़ज़लेंं, सभी  भावों और संंंवेदनाओं से भरी हुई, एक से बढ़ कर‌  एक  सम्मोहक  हैं।  कवि वीरेन्द्र आस्तिक, कैलाश मनहर,  धर्मेन्द्र गुप्त,  सविता मिश्र, नज़्म सुभाष और  यामिनी नमन गुप्ता की कविताएँ, ग़ज़ल आदि जीवन के राग-वैराग का महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ हैं।  सामाजिक सरोकारों का ख़ज़ाना  है। धर्मेन्द्र गुप्त की कविताओं ने  दिल पर विशेष छाप छोड़ी।  नारी मन की  दरारों, चटकन,  वेदना, सम्वेदना की  ऐसी सघन -गहन अभिव्यक्ति कम ही देखने को मिलती है। 'दूसरी औरत' इस  कविता ने मुझे  अभिभूत किया, क्योंकि यह हरनारी की युगों पुरानी व्यथा  है।

अहम्  से रहित पुरुष आज तक नहीं मिला।  श्रद्धा  के  मनु  से  लेकर आज तक, हर पुरुष वो ही अहम्  भरा, विचलित  और भटकते  हुए  मन वाला मनु  ही बना रहा । 'पाती प्रेम की' और  'माँ  के आँगन  का बसन्त' कविताएँ  भी  मन को तर गई।

कवि वीरेन्द्र आस्तिक की  'वाह कोरोना, वर्षा, मेरी कविता के नायक और  वसन्त'   सभी कविताएँ  बेहतरीन हैं।  'वर्षा'  दिल की गहराइयों में उतर गई।

'मेरी कविता के नायक' का तंज धारदार है।

यामिनी नयन की  कविता 'चाह कर भी कोई कवि नहीं लिख पाएगा कोई शोकगीत, स्त्री की उन इच्छाओं की मृत्यु पर...'

धैर्य  से  टिकट कर नारी की करुणगाथा कहती हैं। 

डॉ सविता मिश्र की 'लड़की पढ़ रही है' विपरीत परिस्थितियों में, अभावों और संकटों  के बीच रहते हुए भी,  लड़की  का अपनी पढ़ाई पर केन्द्रित होना, नारी की अद्भुत  क्षमता और  सहज शक्ति की ओर संकेत करती है।

विनोद श्रीवास्तव के  गीत 'कितना दुख देता छवियों का टूटना..' में दर्शन  समाया हुआ है जिसकी व्याख्या में  किताब लिखी जा सकती है, कहानी और उपन्यास लिखा जा सकता है। नज़्म सुभाष की बेबाक ग़ज़लें बेहतरीन है।  बाल-गीत भी लुभावने हैं। उनमें बच्चों की मानिंद निश्छलता और मासूमियत है।

समीक्षा तैलंग का व्यंग्य 'ऊपरी आदेश कलयुगी  स्वार्थी  दुनिया का असली चेहरा दिखाता है। नेताओं की मददगार लेडी डॉक्टर जब  गंभीर बीमारी के कारण  धन के अभाव में, इलाज के लिए  मोहताज हो गई, तो सबने मुँह फेर लिया और उसके लिए रोने वाले भी इसलिए रोए कि वह उनका मुफ़्त का इलाज करती थी। भावनात्मक कदर और लगाव किसी के भी दिल में नहीं था।  इस छोटे व्यंग्य आलेख ने इक्कीसवीं सदी के समाज पर गहरा वार किया।

सोनाली मिश्रा की "कोशिश" भी अच्छी लगी।

पुस्तक-समीक्षा अनुभाग में डॉ. राकेश शुक्ल, दीपक गिरकर, डॉ. नीलोत्पल रमेश ने समालोचक-धर्म निष्ठा व गंभीरता से निभाया है।

आवरण से लेकर पत्रिका के अंदर, पृष्ठों पर,  प्रतिष्ठित और स्थापित कलाकार पारुल तोमर छाई हुई है। पारुल मेरी  सर्वाधिक प्रिय और पसंदीदा चित्रकार हैं। उनके चित्रांकन में ग़ज़ब की ख़ूबसूरती, मृदुलता और कशिश होती है, जो  अपना ख़ास प्रभाव छोड़ती है। इसमें कोई दो राय नहीं कि उनके बनाए चित्रों ने पत्रिका को चार चाँद लगा दिए हैं। इसके लिए वे अतिशय बधाई की पात्र हैं।

कुल मिलाकर  उच्चकोटि  की साहित्यिक रचनाओं, ख़ूबसूरत आवरण,  फ़ार्मेटिंग आदि की दृष्टि से एक संग्रहणीय अंक।

संपादक कृष्ण बिहारी जी को अशेष साधुवाद एवं शुभकामनाएँ कि वे जिस समर्पित भाव, लगन और परिश्रम से इस पत्रिका में प्राण फूँके हुए हैं, वह सदैव इसी तरह बना रहे। पत्रिका चिरायु हो और पाठकों की चहेती बनी रहे! 


Comments

  1. पूरे अंक की बढ़िया समीक्षा की है। हार्दिक बधाई। मैंने भी काफी पढ़ लिया है अंक। सच में कृष्ण बिहारी जी बहुत मेहनत करते है। उनकी मेहनत को मेरा साधुवाद 😇🙏

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