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Showing posts from August, 2019

कश्मीर की कोकिला हब्बा खातून

  लल्लेश्वरी और शेख नूरुद्दीन के बाद कश्मीरी साहित्य में नाम आता है हब्बा खातून का। लल्लेश्वरी का जन्म १४वीं शताब्दी के दूसरे दशक में हुआ , नूरुद्दीन का सातवें दशक में और हब्बा खातून का जन्म हुआ १६वीं शताब्दी के छठे दशक में , एक मामूली किसान के घर। हब्बा खातून का मूल नाम है जून। ज़ून शब्द का अर्थ कश्मीरी भाषा में है चांद। यह नाम उन्हें मिला उनके अप्रतिम सौंदर्य के कारण। कश्मीरी लडकियां वैसे भी बेहद खूबसूरत होती हैं। हब्बा को सौंदर्य के अलावा दो और गुण मिले थे ; एक तो मोहक सुरीला कंठ और दूसरा कवि हृदय। गांव के मौलवी से उन्होंने पढ़ना-लिखना भी सीख लिया था। श्रीनगर के निकटवर्ती सोंबुरा जिले के किसी गांव में जन्मी थीं वे। प्रकृति ने सौंदर्य तो इस पूरे क्षेत्र को दोनों हाथ खोलकर लुटाया है। यह पूरा इलाका है ही इतना सुंदर कि गणितज्ञ और तर्कशास्त्री भी यहां आकर कवि हो जाएं। भला जून इससे कैसे बच सकती थीं! वह अपने खेतों-बागों में आते-जाते काम करते गाती रहती। सौंदर्य में रची-बसी कविताएं और उस पर सुरीला कंठ कौन न रीझ जाए इस पर। यहीं खेतों में रमते-खटते जून ने एक नई विधा को पर

ऐसे भी दिन तूने देखे, ओए नूरू!!

  कवि त्रिलोचन शास्त्री एक बात कहा करते थे - अच्छी कविता वह नहीं है जो पूरी तरह बन्द रहे और वह भी नहीं जो पूरी तरह खुली हो। अच्छी कविता वह है जो थोड़ी खुली हो और थोड़ी बन्द। अच्छी कविता वह है जो पहली बार सुनने पर भी समझी जा सके और बाद में जितनी बार पढ़ी- सु नी जाए , उसके उतने नए-नए अर्थ , नए-नए भाव खुलें। आजकल गाली गलौज को बिलकुल वैसे ही साहित्य का अभिन्न अंग माना जाने लगा है जैसे नंगेपन को सिनेमा और नंगई को राजनीति का। गजब यह है कि साहित्य वालों को सिर्फ अपने ही पढ़े-लिखे होने का भयावह और बीभत्स अहंकार है और इसलिए वे अपने पक्ष में गंभीर दिखने वाले अत्यन्त हास्यास्पद कुतर्क भी लिए आते हैं। जुगुप्सा की इस बाढ़ ने व्यंजना के बिम्ब और प्रतीक जैसे उपकरणों के लिए कोई स्पेस ही नहीं छोड़ा है। जिनने पहले इन माध्यमों से गहरे सत्य को व्यक्त करने की कोशिश की है , आने वाले दिनों में उनका क्या होगा , यह सोचकर ही कभी कभी मन सिहर जाता है। वैसे भी संस्कृति की दुनिया में विकृतात्म राजनीतिक पिट्ठुओं के कब्जे ने कुपाठ और दुर्व्याख्याओं की आशंका को निरंतर बढ़ाया ही है और वह घटने का नाम भी नहीं

ROOTS OF HINDUISM IN AFGHANISTAN !!!

Today Afghanistan has become synonymous with Islam but it is a fact that it has been Islamic only for the last one thousand years. Prior to that for five thousand years it was the cradle of Hindu and Buddhist cultures. In ancient times Afghanistan was politically and culturally an integral part of India. Its ancient name was ‘Upgansthan’. In sixth century AD Varahmihir has mentioned the term ‘Avgaan’ in his book ‘Brihatsamhita’. French scholar Saan Martin is of the opinion that the word ‘Afghan’ originates from the Sanskrit word ‘ashvak’ meaning horserider. There are references to Afghanistan in Sanskrit literature as ‘Ashkayan’ meaning the route of horseriders. The name Afghanistan came into vogue during the rule of Ahmed Shah Durrani (1747-1773 AD). Prior to that Afghanistan was referred to as Aryana, Aryanam Viju, Pakhtiya, Khurasan and Pashtoonkhwah. The Parsi religious leader Zarathrushta in his work ‘Zendavesta’ calls this region ‘Aeseen Vijo’ or “Aryanum Vijo’ meaning

वचन लल्लेश्वरी के

कुस मरि तय कसू मारन। मरि कुस तय मारन कस॥ युस हर-हर त्राविथ गर-गर करे। अद सुय मरि तय मारन तस॥ [कौन मरता है और कौन है जो मारा जाता है बस वही जिसने भुला दिया ईश्वर का नाम और खो गया संसार की विषय-वासनाओं में वही है जो मरता है और वही है जो मारा जाता है॥] शिव चुय थाली थाली रोज़न। मो ज़न हिंदू ता मुसलमान॥ त्रुक अय चुक पन पनुन प्रजनव। सोय चय साहिबस जानिय जन॥ [सर्वत्र व्याप्त हैं शिव , कण-कण में शिव का वास। कभी न करो भेद क्या हिंदू और क्या मुसलमान॥ देखो अपने भीतर , यदि हो तुम चतुर सुजान। मन के मंदिर में ही तेरे है बैठा भगवान॥] मूढस ज्ञानच कथ न वएंजे। खरस गोरे दिना रवि दोह॥ स्येकि शठस बोलि न वएंजे। कोम यज्ञन रावी तील॥ [मूढ़ को कभी न दो भक्ति का ज्ञान वृथा प्रयत्न यह वैसे जैसे गधे को खिलाओ गुड़ यह है वैसे जैसे मरुथल में बो देना बीज ऐसे जैसे व्यर्थ गंवाना तेल चोकर से पूड़ियां बनाने में] चाहे कोई हिंदू हो या मुसलमान , अगर बात-बात में बतौर उदाहरण इन पदों का इस्तेमाल करता न मिले तो समझिए कि वह और चाहे कुछ भी हो , कश्मीरी तो नहीं हो सकता। जानत

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