गढ़ तो चित्तौडग़ढ़...
इष्ट देव सांकृत्यायन गढ़ तो चित्तौडग़ढ़ , बाक़ी सब गढ़ैया... यह कहावत और इसके साथ-साथ मेवाड़ के महाराणाओं की शौर्यगाथाएं बचपन से सुनता आया था। इसलिए चित्तौड़ का गढ़ यानी क़ि ला देखने की इच्छा कब से मन में पलती आ रही थी , कह नहीं सकता। हां , मौ क़ा अब जाकर मिला , अगस्त में। जिस दिन कार्यक्रम सुनिश्चित हो पाया , तब तक रेलवे रिज़र्वेशन की साइट दिल्ली से चित्तौडग़ढ़ के लिए सभी ट्रेनों में सभी बर्थ फुल बता रही थी। जैसे-तैसे देहरादून एक्सप्रेस में आरएसी मिली। उम्मीद थी कि कन्फर्म हो जाएगा , पर हुआ नहीं। आख़िर ऐसे ही जाना पड़ा , एक बर्थ पर दो लोग। चित्तौडग़ढ़ पहुंचे तो साढ़े 11 बज रहे थे। ट्रेन सही समय पर पहुंची थी। स्टेशन के प्लैटफॉर्म से बाहर आते ही ऑटो वालों ने घेर लिया। मेरा मन तो था कि तय ही कर लिया जाए, पर राढ़ी जी ने इनके प्रकोप से बचाया। उनका कहना था कि पहले कहीं ठहरने का इंतज़ाम करते हैं। फ्रेश हो लें और कुछ खा-पी लें, फिर सोचा जाएगा। इनसे बचते हुए सड़क पर पहुंचे तो सामने ही एक जैन धर्मशाला दिखी। यहां बिना किसी झंझट के कम किराये पर अच्छा कमरा मिल गया। रेलवे स्टेशन के पास इतनी अच्छी जग
कहाँ का चित्र है?? कौन से शहर का?
ReplyDeleteye chitra yunan ka hai sir, jahan students ne pradarshan kiya, bidi pee rahi ladki punjipatiyaon ki pratinidhi hai, uske peeche kanteele taar se bandhe ladke chal rahe hain.
ReplyDeletethanks for appriciation