संसद पर हमला और शहरी नक्सली

 इष्ट देव सांकृत्यायन

जालंधर से प्रकाशित
दैनिक 'सवेरा टाइम्स' में
आप खेत की सुरक्षा के लिए चाहे कितने इंतजाम कर लें, चूहे घुस ही जाते हैं और वे आपकी बड़ी मेहनत से उगाई गई फसल का एक हिस्सा चुरा ही लेंगे। उनको पकड़ने के लिए जमीन के ऊपर किए गए आपके जतन किसी काम नहीं आते और जमीन के नीचे आप जो कुछ भी कर सकते हैं, वे उससे और गहराई में जा सकते हैं। बिलकुल यही बात अभी संसद में हुई है। अराजक तत्त्वों ने साल भर रेकी करके सुरक्षा-व्यवस्था में एक मामूली खामी तलाशी और उसका फायदा उठाकर देश और संसद की सुरक्षा-व्यवस्था को दुनिया भर में बदनाम कर दिया। हालाँकि यह कोई पहली बार नहीं हुआ। पहली बार यह हुआ था 13 दिसंबर 2001 को और दूसरी बार फिर 13 दिसंबर 2023 को, पहले वाली घटना की ही 22वीं बरसी पर। यह केवल संयोग नहीं है कि पहले भी ऐसी घटना तभी घटी जब केंद्र में भाजपा नीत सरकार थी और अब भी तभी हुई जब भाजपा नीत सरकार है।

सोचने की बात है कि जिस कांग्रेस के समय में दीवाली जैसे त्योहार पर दिल्ली के बाजारों को कई बार दहलाया गया, मुंबई के सबसे प्रतिष्ठित होटल को आतंक का अड्डा बना दिया गया और जाँच के नाम पर केवल अपने राजनैतिक विरोधियों को फँसाने का खेल खेला जाता रहा, पंजाब और कश्मीर जैसे मेधावान प्रांतों को इस शांतिपूर्ण देश के भीतर ट्रबल्ड एरिया बना दिया गया; तब संसद में या उसके आसपास ऐसा कुछ क्यों नहीं हुआ? कांग्रेस और वामपंथियों की दुरभिसंधि अब किसी से छिपी नहीं है। सन 2004 से 2009 तक जब देश में जरूरी चीजों की महँगाई और बेकारी ने दुनिया भर के सारे ऐतिहासिक रिकॉर्ड तोड़ डाले तब उन्हीं कामरेड लोगों के साथ मिलकर कांग्रेस देश की सरकार चला रही थी जिनके आँसू गरीब जनता के लिए दिन-रात इतने बहते रहते हैं कि गंगा-जमुना की बाढ़ भी फीकी लगने लगती है। तब इन लोगों को कहीं कोई गरीब भूख या बेकारी से मरता हुआ नहीं दिखा। इन्हें सारी समस्याएँ अब दिखाई देती हैं।

संसद पर हमले के बाद का दृश्य            फोटो: साभार गूगल
यह कोई पहली बार नहीं था। वास्तव में ऐसा ही हमेशा रहा है। पहले ये लोग मौखिक रूप से हमेशा कांग्रेस के खिलाफ दिखाई देते थे, लेकिन इनका वह बोलना कभी भी मूलभूत मुद्दों पर नहीं होता था। यह कुल मिलाकर अंग्रेजी की एक कहावत बीटिंग अराउंड द बुश जैसा मामला था। वास्तव में ये लोग कांग्रेस के हमेशा साथ थे। आजादी के पहले भारत के बँटवारे और कश्मीर को अलग-थलग करने से लेकर बार-बार गृहयुद्ध जैसे हालात पैदा करने तक में। आज कम्युनिस्ट भगत सिंह की विरासत के दावेदार हैं, लेकिन भगत सिंह जिनकी विरासत के हिस्से थे, उन कुँवर सिंह, मंगल पांडे, तात्या टोपे, शचींद्र नाथ सान्याल, रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खाँ, चंद्रशेखर आजाद, यशपाल... से इन्हें एलर्जी है। इस सेलेक्टिव अप्रोच के कुछ बड़े ठोस कारण हैं। इस कांड में भी शहीद-ए-आजम भगत सिंह के नाम का दुरुपयोग एक आभासी ग्रुप बनाकर किया गया।

भगत सिंह का परिवार मूलतः आर्य समाजी था। स्वयं भगत सिंह का उपनयन संस्कार हुआ था और वे काफी दिनों तक जनेऊ पहनते रहे। इस तथ्य को ये उनकी बाद की उस निबंधात्मक रचना से ढक ले जाते हैं, जिसका शीर्षक है मैं नास्तिक क्यों हूँ’, लेकिन अशफाक का मुसलमान होकर आर्यसमाजियों से करीबी रिश्ते और इसके बाद भी नियमित नमाज-रोजा पचाना उनके लिए बड़ा मुश्किल था। शचीन दा का गीता प्रेम, रामप्रसाद का आर्यसमाज प्रेम और चंद्रशेखर का सनातन प्रेम उनके लिए कँटीली हड्डी की तरह है, जिसे वे किसी तरह निगल नहीं सकते। यशपाल वैचारिक रूप से भले सच्चे कम्युनिस्ट रहे हों, लेकिन उन्हें पचाना इनके लिए संभव नहीं रह गया। कम्युनिस्ट का सिर्फ वैचारिक कम्युनिस्ट होना भारतीय कम्युनिस्टों के लिए काफी नहीं होता। अलबत्ता किसी का ईमानदारी से कम्युनिस्ट होना उनके लिए अजीर्ण का कारण हो जाता है।

गाजियाबाद से प्रकाशित 'दैनिक अथाह' में
भारतीय कम्युनिस्ट के लिए जरूरी है कि वह बौद्धिक स्तर पर उसी वैचारिक कांग्रेसी उच्छिष्ट का वास्तविक कुली हो जिसकी वे अभी हाल तक हर मंच से बहुत सधी हुई निंदा करते देखे जाते थे। यशपाल ने अपने निबंधों से लेकर उपन्यासों तक में नेहरू जी की लोकतांत्रिकता और गांधी जी की सादगी का सच उजागर किया। तो अब उन्हें किसी तरह बदनाम करना जरूरी नहीं, अनिवार्य हो गया। बस यही समस्या सावरकर के साथ भी है कि वे गांधी-नेहरू की मानसिकता के विरुद्ध और हिंदू राष्ट्र के पक्ष में हैं। अन्यथा उनकी विरासत का दावेदार बनने में भी कम्युनिस्टों को देर नहीं लगती। वरना नास्तिक तो वे हैं ही और सशस्त्र क्रांति के समर्थक भी। अगर सावरकर के गांधी-नेहरू विरोध और हिंदुत्व प्रेम के तथ्यों पर किसी तरह मिट्टी डाली जा सके तो उनके नाम पर पीठ बनाने और फिर उस पीठ पर चढ़ बैठने में भी कामरेड लोगों को देर न लगेगी।

अहमदाबाद से प्रकाशित दैनिक 'यंग लीडर' में
भगत सिंह भी उनके लिए कुल मिलाकर इतने ही महत्त्वपूर्ण हैं। हिटलर का प्रचारमंत्री गोएबल्स, जिसे कामरेड लोग अहर्निश गालियाँ देते हैं, उसके सच्चे अनुयायी भी वास्तव में यही लोग हैं। सीधे झूठ के बजाय ये अर्धसत्य का सहारा लेते हैं और इस अर्धसत्य के बल पर ये उन युवाओं को हसीन सपने दिखाकर बरगलाते हैं जो किसी भी तरह से असंतुष्ट होते हैं। मुसलमानों पर अब यह प्रयोग करना इन पर भारी पड़ने लगा है। कुछ मुसलमान यह जान गए हैं कि रूस और चीन में मुसलमानों के साथ क्या हुआ और हो रहा है। इसलिए अब असंतुष्ट हिंदू युवा उनके निशाने पर हैं। क्योंकि उन्हें इस तरह हिंदुओं और हिंदुओं के जरिये भाजपा को बदनाम करना है। यह बताना है कि सबसे ज्यादा हिंदू ही भाजपा से असंतुष्ट हैं। यह शिकार उनके लिए कोई नया नहीं है। कम्युनिस्टों के बीच बुद्धिजीवी कहे जाने वाले वर्ग में हिंदुओं और उनमें तथाकथित सवर्णों की संख्या पहले से ही बहुत ज्यादा है।

लखनऊ से प्रकाशित दैनिक 'विश्ववार्ता' में 
यह भी कोई अचानक नहीं हुआ है। इनकी प्रक्रिया अत्यंत धीमी और सुनियोजित होती है। शिक्षा संस्थानों पर कांग्रेस की कृपा से इनका आज भी लगभग पूरा कब्जा है। मोदी सरकार इस राज को जरा भी नुकसान नहीं पहुँचा सकी हैं। जो थोड़ी-बहुत ठिक-ठिक है, वह बस बाहरी ही है। भीतरी तौर पर वे पूरी बेशर्मी और मजबूती से कायम हैं। बेशर्मी और कुतर्क ही उनकी सबसे बड़ी मजबूती है। इसी बेशर्मी के साथ ये युवाओं को बरगलाते हैं और फिर अपने से जोड़े भी रहते हैं। जोड़े रहने में एक बड़ा कारण समझदार लोगों को दिखाया जाने वाला पद-प्रतिष्ठा का लाभ और सस्ती प्रसिद्धि का लालच भी है। ये जो नाखून कटाकर शहीद बनने वाली स्मोकगन वाली हरकत है, यह भी इसी का एक अंग है। आज का युवा ऐसे उदाहरण देख रहा है जो देश तोड़ने के नारे लगाकर रातोरात कुख्यात से विख्यात हो गए और अब बड़े बुद्धिजीवी बनकर देश-विदेश में भाषण दे रहे हैं। ये अलग बात है कि चुनाव लड़ने पर बुरी तरह पराजय का सामना करना पड़ा।

मुंबई से प्रकाशित दैनिक 'यशोभूमि' में

इनकी तरफ के अधिकतर बुद्धिजीवी ऐसे ही हैं। भारत को, भारत की परंपराओं को, सनातन को, देवी-देवताओं और निर्दोष लोगों को गालियाँ दो और बुद्धिजीवी बन जाओ। बुद्धिजीवी बनना इतना सस्ता और इतना आसान कभी नहीं था, जितना कामरेड लोगों ने बना दिया। ऐसे ही बुद्धिजीवी कई संस्थानों में भरे पड़े हैं। अगर इनमें से एक पर भी कोई जिनुइन कार्रवाई की जाए तो सभी सारा लाज-शर्म छोड़कर खड़े हो जाएंगे। ऐसे-ऐसे कुतर्कों से पूरा वातावरण भर उठेगा कि दुर्गंध के मारे साँस लेना तक दूभर हो जाएगा। इसी बेशर्मी के साथ ये लोग युवाओं का दुरुपयोग भी करते हैं। लेकिन दुरुपयोग करके भी ये अपनी अंतरराष्ट्रीय दुरभिसंधि से कुछ लोगों को सेलेब्रिटी बना देते हैं। ये अलग बात है कि इनके जाल में फँसकर बहुत सारे गरीब युवा नारकीय यातना के शिकार हो जाते हैं। यह दुखद सत्य है कि नारकीय यातना के शिकार होने वाले भोले लोग किसी को दिखाई नहीं देते, लेकिन बदनाम होकर नाम कमा लेने वाले सयाने सबको दिखाई देते हैं।

अभी इन सबका हैंडलर कहा जा रहा ललित झा भी ऐसे ही युवाओं में से लगता है। इनमें से किसी की भी हैसियत एक स्क्रू या नट से अधिक की नहीं है। इनके असली हैंडलर निहायत सफेदपोश लोग हैं

हैदराबाद से प्रकाशित
दैनिक 'स्वतंत्र वार्ता' में

मूल्यहीन शिक्षा व्यवस्था की उपज होने के नाते आज का अधिकांश युवा बदनाम होकर भी केवल नाम से खुश है, इसका सोशल मीडिया वाले रील से बेहतर उदाहरण और क्या हो सकता है! खासकर तब जब नाखून कटाने भर से शहीद बनने का मौका उपलब्ध हो रहा हो! ये ऐसे युवाओं की तलाश में रहते हैं जो अक्ल तो खूब दौड़ा लेते हैं, लेकिन जिन्हें व्यावहारिकता की समझ बिलकुल न हो; जिनके सपने तो बड़े-बड़े हों, लेकिन उन्हें साकार करने के लिए सही दिशा में काम करने की इच्छा बिलकुल न हो। नीलम कौर, मनोरंजन डी, अमोल शिंदे, सागर शर्मा या अभी इन सबका हैंडलर कहा जा रहा ललित झा भी ऐसे ही युवा लगते हैं। इनमें से किसी की भी हैसियत एक स्क्रू या नट से अधिक की नहीं है। इनके असली हैंडलर निहायत सफेदपोश लोग हैं। भगत सिंह फैन क्लब वगैरह बनाना और इंस्टाग्राम पर पोस्ट करना बहुत सतही लोगों का काम होता है। असली लोग विद्यापीठों और शोध संस्थानों की बड़ी-बड़ी कुर्सियों पर काबिज होते हैं। अंतरराष्ट्रीय लिंक्स रखते हैं। अवॉर्ड और ऑनर देते-दिलाते हैं। इन सबको किन-किन जगहों से संरक्षण प्राप्त है, यह अब कहने की जरूरत नहीं रही।

जरूरत इस बात की है कि इन पर हाथ डाला जाए और इन पर हाथ डालते समय जिस तरह का शर्मीलापन बहुमत वाली भाजपा सरकारें भी बार-बार दिखाती रही हैं, वह आड़े न आने पाए। बेलौंस और बिंदास होकर इन्हें पूरी मजबूती से बेपर्दा करने की जरूरत है। चिंता के विषय अब वे युवा नहीं रहे जिनके दिमाग को इन्होंने जहर से भर दिया है, अधिक चिंता के विषय वे नौनिहाल हैं जो इनके अभी के या भविष्य के टार्गेट हैं। अगर ये शिक्षा संस्थानों पर काबिज रह गए तो भारत कभी भारत नहीं बनने पाएगा।


अंबेडकरनगर से प्रकाशित 'तमसा संकेत' में


 





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