संसद पर हमला और शहरी नक्सली
इष्ट देव सांकृत्यायन
जालंधर से प्रकाशित दैनिक 'सवेरा टाइम्स' में |
सोचने की बात है कि जिस कांग्रेस के समय में दीवाली
जैसे त्योहार पर दिल्ली के बाजारों को कई बार दहलाया गया, मुंबई के सबसे प्रतिष्ठित होटल को आतंक का अड्डा बना दिया गया
और जाँच के नाम पर केवल अपने राजनैतिक विरोधियों को फँसाने का खेल खेला जाता रहा,
पंजाब और कश्मीर जैसे मेधावान प्रांतों को इस शांतिपूर्ण देश के
भीतर ट्रबल्ड एरिया बना दिया गया; तब संसद में या उसके आसपास
ऐसा कुछ क्यों नहीं हुआ? कांग्रेस और वामपंथियों की
दुरभिसंधि अब किसी से छिपी नहीं है। सन 2004 से 2009 तक जब देश में जरूरी चीजों की
महँगाई और बेकारी ने दुनिया भर के सारे ऐतिहासिक रिकॉर्ड तोड़ डाले तब उन्हीं
कामरेड लोगों के साथ मिलकर कांग्रेस देश की सरकार चला रही थी जिनके आँसू गरीब जनता
के लिए दिन-रात इतने बहते रहते हैं कि गंगा-जमुना की बाढ़ भी फीकी लगने लगती है। तब
इन लोगों को कहीं कोई गरीब भूख या बेकारी से मरता हुआ नहीं दिखा। इन्हें सारी
समस्याएँ अब दिखाई देती हैं।
संसद पर हमले के बाद का दृश्य फोटो: साभार गूगल |
भगत सिंह का परिवार मूलतः आर्य समाजी था। स्वयं भगत
सिंह का उपनयन संस्कार हुआ था और वे काफी दिनों तक जनेऊ पहनते रहे। इस तथ्य को ये
उनकी बाद की उस निबंधात्मक रचना से ढक ले जाते हैं, जिसका
शीर्षक है ‘मैं नास्तिक क्यों हूँ’, लेकिन
अशफाक का मुसलमान होकर आर्यसमाजियों से करीबी रिश्ते और इसके बाद भी नियमित
नमाज-रोजा पचाना उनके लिए बड़ा मुश्किल था। शचीन दा का गीता प्रेम, रामप्रसाद का आर्यसमाज प्रेम और चंद्रशेखर का सनातन प्रेम उनके लिए कँटीली
हड्डी की तरह है, जिसे वे किसी तरह निगल नहीं सकते। यशपाल
वैचारिक रूप से भले सच्चे कम्युनिस्ट रहे हों, लेकिन उन्हें
पचाना इनके लिए संभव नहीं रह गया। कम्युनिस्ट का सिर्फ वैचारिक कम्युनिस्ट होना
भारतीय कम्युनिस्टों के लिए काफी नहीं होता। अलबत्ता किसी का ईमानदारी से
कम्युनिस्ट होना उनके लिए अजीर्ण का कारण हो जाता है।
गाजियाबाद से प्रकाशित 'दैनिक अथाह' में |
अहमदाबाद से प्रकाशित दैनिक 'यंग लीडर' में |
लखनऊ से प्रकाशित दैनिक 'विश्ववार्ता' में |
मुंबई से प्रकाशित दैनिक 'यशोभूमि' में |
इनकी तरफ के अधिकतर बुद्धिजीवी ऐसे ही हैं। भारत को, भारत की परंपराओं को, सनातन को, देवी-देवताओं और निर्दोष लोगों को गालियाँ दो और बुद्धिजीवी बन जाओ।
बुद्धिजीवी बनना इतना सस्ता और इतना आसान कभी नहीं था, जितना
कामरेड लोगों ने बना दिया। ऐसे ही बुद्धिजीवी कई संस्थानों में भरे पड़े हैं। अगर
इनमें से एक पर भी कोई जिनुइन कार्रवाई की जाए तो सभी सारा लाज-शर्म छोड़कर खड़े हो
जाएंगे। ऐसे-ऐसे कुतर्कों से पूरा वातावरण भर उठेगा कि दुर्गंध के मारे साँस लेना
तक दूभर हो जाएगा। इसी बेशर्मी के साथ ये लोग युवाओं का दुरुपयोग भी करते हैं। लेकिन
दुरुपयोग करके भी ये अपनी अंतरराष्ट्रीय दुरभिसंधि से कुछ लोगों को सेलेब्रिटी बना
देते हैं। ये अलग बात है कि इनके जाल में फँसकर बहुत सारे गरीब युवा नारकीय यातना
के शिकार हो जाते हैं। यह दुखद सत्य है कि नारकीय यातना के शिकार होने वाले भोले
लोग किसी को दिखाई नहीं देते, लेकिन बदनाम होकर नाम कमा लेने
वाले सयाने सबको दिखाई देते हैं।
अभी इन सबका हैंडलर कहा जा रहा ललित झा भी ऐसे ही युवाओं में से लगता है। इनमें से किसी की भी हैसियत एक स्क्रू या नट से अधिक की नहीं है। इनके असली हैंडलर निहायत सफेदपोश लोग हैं
हैदराबाद से प्रकाशित दैनिक 'स्वतंत्र वार्ता' में |
मूल्यहीन शिक्षा व्यवस्था की उपज होने के नाते आज का
अधिकांश युवा बदनाम होकर भी केवल नाम से खुश है, इसका
सोशल मीडिया वाले रील से बेहतर उदाहरण और क्या हो सकता है! खासकर तब जब नाखून
कटाने भर से शहीद बनने का मौका उपलब्ध हो रहा हो! ये ऐसे
युवाओं की तलाश में रहते हैं जो अक्ल तो खूब दौड़ा लेते हैं, लेकिन
जिन्हें व्यावहारिकता की समझ बिलकुल न हो; जिनके सपने तो
बड़े-बड़े हों, लेकिन उन्हें साकार करने के लिए सही दिशा में काम
करने की इच्छा बिलकुल न हो। नीलम कौर, मनोरंजन डी, अमोल शिंदे, सागर शर्मा या अभी इन सबका हैंडलर कहा
जा रहा ललित झा भी ऐसे ही युवा लगते हैं। इनमें से किसी की भी हैसियत एक स्क्रू या
नट से अधिक की नहीं है। इनके असली हैंडलर निहायत सफेदपोश लोग हैं। भगत सिंह फैन
क्लब वगैरह बनाना और इंस्टाग्राम पर पोस्ट करना बहुत सतही लोगों का काम होता है।
असली लोग विद्यापीठों और शोध संस्थानों की बड़ी-बड़ी कुर्सियों पर काबिज होते हैं।
अंतरराष्ट्रीय लिंक्स रखते हैं। अवॉर्ड और ऑनर देते-दिलाते हैं। इन सबको किन-किन
जगहों से संरक्षण प्राप्त है, यह अब कहने की जरूरत नहीं रही।
जरूरत इस बात की है कि इन पर हाथ डाला जाए और इन पर हाथ डालते समय जिस तरह का शर्मीलापन बहुमत वाली भाजपा सरकारें भी बार-बार दिखाती रही हैं, वह आड़े न आने पाए। बेलौंस और बिंदास होकर इन्हें पूरी मजबूती से बेपर्दा करने की जरूरत है। चिंता के विषय अब वे युवा नहीं रहे जिनके दिमाग को इन्होंने जहर से भर दिया है, अधिक चिंता के विषय वे नौनिहाल हैं जो इनके अभी के या भविष्य के टार्गेट हैं। अगर ये शिक्षा संस्थानों पर काबिज रह गए तो भारत कभी भारत नहीं बनने पाएगा।
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