विकास दुबे या विनय तिवारी
इष्ट देव सांकृत्यायन
जो दशा विकास दुबे के घर की हुई, वह उससे पहले विनय तिवारी के घर की होनी चाहिए थी। विकास दुबे ने तो केवल ब्राह्मण जाति और मनुष्यता को कलंकित किया है लेकिन विनय तिवारी और उसके साथियों ने तो अस्तित्व मात्र को कलंकित किया। अपने ही साथियों के खिलाफ एक गुंडे के लिए सुरागरसी और उसके यह कहने के बावजूद कि आने दो सालों को... सबको कफन में लपेट देंगे... अपने साथियों को कोई हिंट तक न देना... उन्हें सचेत तक न करना...
इससे क्या पता चलता है? यही न कि विनय तिवारी का भरोसा खुद अपने विभाग यानी पुलिस पर कम और एक गुंडे पर ज्यादा है। जब तक थानों से लेकर चौकियों तक की नीलामी होती रहेगी, आप यह उम्मीद कैसे कर सकते हैं कि कोई पुलिस वाला विनय तिवारी से भिन्न हो सकता है? और जब तक विनय तिवारी जैसे पुलिसिये मौजूद हैं, आप यह सोच भी कैसे सकते हैं कि आम जनता अपनी सुरक्षा के लिए विकास दुबे, मुख्तार अंसारी, हरिशंकर तिवारी, वीरेंद्र शाही, श्रीपत ढाढ़ी, ओमप्रकाश पासी, श्रीप्रकाश शुक्ल, बबलू श्रीवास्तव, कालीचरण, भागड़ यादव या ददुआ जैसों को छोड़कर कहीं की पुलिस पर भरोसा करेगी?
जरा गौर करिए कि वह कौन है जो जनता को इन पर भरोसे के लिए मजबूर करता है। जन्मना अपराधी प्रवृत्ति के लोग कम से कम भारतीय समाज में मुझे नहीं लगता कि ०.०१ प्रतिशत से अधिक लोग होते होंगे। बल्कि उतने भी नहीं। सामान्यतः आदमी भ्रष्ट भी नहीं होना चाहता। आप किसी बच्चे या किशोर से पूछकर देखिए। आप पाएंगे कि वह एक साधारण शरीफ आदमी की जिंदगी जीना चाहता है। अपनी खेती, व्यापार या नौकरी करके अपना परिवार पालना तथा अपने देश व समाज के लिए कुछ बेहतर करना... यही युवावस्था तक लगभग हर शख्स का सपना होता है।
लेकिन यह सपना युवावस्था से आगे बढ़ नहीं पाता। अधिकतर तो युवावस्था तक पहुंचने से पहले ही दम तोड़ देता है। क्यों? क्योंकि शिक्षा से लेकर रोजगार तक हर स्तर पर उसका सामना व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार से होता है। व्यवस्था उसे उसके आदर्शो की हत्या के लिए मजबूर करती है। इसी मज़बूरी से वे पाखंड पैदा होते हैं जिन्हें रॉबिन हुड या बाहुबली कहते हैं।
समाज में जब लोग देखते हैं कि अधिकार संपन्न लोगों का एक बड़ा तबका इन्हीं बाहुबलियों के सामने नतमस्तक है तो उस तबके तक शासन प्रशासन के बारे में संदेश क्या पहुंचता है? जो पुलिस खुद विकास दुबे के प्रति इतनी एहसानमंद है कि अपने ही विभाग के खिलाफ उसके लिए सुरागरसी कर रही है, उससे आप यह उम्मीद कैसे करते हैं कि वह उसके अत्याचारों से आम जनता को बचाएगी? तब आम आदमी अपनी सुरक्षा के लिए कहां जाएगा? तब जालिम के जुल्म से बचने के लिए लोगों के पास कोई और उपाय नहीं होता सिवा इसके कि वे किसी और या फिर उसी जालिम के पास जाएं।
यही अपराध का समाज सापेक्ष मनोविज्ञान है। इसी मनोविज्ञान के तहत कोई गुंडा पहले चौकी, थाने, ब्लॉक प्रमुख, विधायक और सांसद या मंत्री जी का खास आदमी बनता है। फिर एक दिन खुद माननीय बन जाता है। और यह सब बनने की प्रक्रिया के बीच में ही कब वह अपनी जाति, गांव या जवार का हीरो बन चुका होता है, पता ही नहीं चलता।
मैं देख रहा हूं कि पिछले दो दिनों से अपने को बुद्धिजीवी जैसा कुछ समझने वाले लोग बार बार यह सवाल उठाते नहीं थक रहे कि क्या हमारे समाज में वाकई हीरो की इतनी कमी हो गई है... आदि इत्यादि अगड़म बगड़म यह पूछने वाले लोग यह भी नहीं सोच पाते कि बीती एक पूरी सदी में हमने कैसा समाज बनाया है और क्या इसके लिए केवल शासन या प्रशासन जिम्मेदार है। क्या समाज की इसमें कोई जिम्मेदारी ही नहीं है?
थाने नीलाम करने वाले माननीय को मंत्री पद से पहले विधायक बनना होता है। उन्हें विधायक किसने बनाया? क्या आपको नहीं लगता कि वह समाज ऐसे ही प्रतिनिधि पाने लायक था और ऐसी ही पुलिस भी! जब तक समाज की मानसिकता नहीं बदलती न तो जनप्रतिनिधियों का तौर तरीका बदलेगा और न पुलिस का चरित्र।
क्या आपको नहीं लगता #विकास_दुबे का अपराध उस #विनय_तिवारी के अपराध की तुलना में धेला भी नहीं है, जिसने अपने ही विभाग के खिलाफ एक गुंडे को सूचना दी? मेरा मानना है कि विकास दुबे से पहले विनय तिवारी की सारी संपत्तियां बुल्डोज की जानी चाहिए थी। उसके करीबी रिश्तेदारों को पकड़ा जाना चाहिए था।
कायदे से ऐसे पुलिसकर्मियों को बीच चौराहे पर फांसी दी जानी चाहिए, वह भी इलाके के तमाम पुलिस वालों के ही सामने। ताकि पुलिस महकमे में दूसरा विनय तिवारी बनने की बात सोचकर भी पुलिस वालों की रूह कांप जाए। लेकिन यह करेगा कौन? कमोबेश सब विनय तिवारी ही तो हैं। और जनप्रतिनिधि? वहां तो शराफत निहायत फालतू चीज है और वोट तो आपका आपकी बिरादरी के बक्से में ही जाना है!!!
गद्दारी की सजा मौत ही होनी चाहिए।
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