काशी हिंदू विश्वविद्यालय और डॉ. फिरोज खान की नियुक्ति


बेबाक बनारसी

शिक्षा और समाज दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं और एक-दूसरे को दिशा देते हैं और एक-दूसरे की दशा के लिए उत्तरदाई भी होते हैं। समाज के उत्तरोत्तर विकास और उत्थान में शिक्षा की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है और वहीं पर शिक्षा को भी नियंत्रित और संचालित करने में समाज की भूमिका रहती है और होनी चाहिए। काशी हिंदू विश्वविद्यालय इन कसौटियों पर कसा हुआ एक ऐसा विश्वविद्यालय है जिसको महामना पंडित मदनमोहन मालवीय ने इन्हीं आदर्शों और उद्देश्यों हेतु की थी। आज से तीन वर्ष पूर्व लगभग इसी समय काशी हिंदू विश्वविद्यालय में वहां की छात्राओं ने उद्वेलित होकर अपने छात्रावासों से बाहर आकर सिंहद्वार पर एकत्रित हो गईं थीं। उसी समय मैंने एक पूर्व छात्र होने के नाते मैंने एक टीवी चैनल के डिबेट में बहुत निष्पक्ष होकर कहा था कि काशी हिंदू विश्वविद्यालय किसी की बपौती या संपत्ति नहीं है। न तो वह सरकार का है, न कुलपति का है, न तो छात्रों का है। काशी हिंदू विश्वविद्यालय उन संस्कारों की बपौती और संपत्ति है जिसकी स्थापना महामना मालवीय ने की थी और उन संस्कारों पर समाज ने मोहर लगाई थी। आज काशी हिंदू विश्वविद्यालय के संस्कृत विद्या धर्म विज्ञान में एक गैर हिंदू डॉ फिरोज खान की नियुक्ति विवाद का कारण बन गई है। संस्कृत विद्या धर्म विज्ञान संकाय की स्थापना महामना ने हिंदू धर्म के विपरीत परिस्थितियों के दौरान की थी ताकि भारत की पहचान और आत्मा के रूप में सनातन धर्म और संस्कृति को जीवित रखा जा सके ताकि यह राष्ट्र मजबूत हो सके। यह तो सर्वविदित है और स्वीकृत भी है कि सनातन धर्म ने किसी भी धर्म और संस्कृति का अहित कभी भी नहीं किया है अतः महामना का विचार यह था कि सनातन धर्म और संस्कृति की मजबूती ही यहां सभी धर्मों एवं संस्कृतियों के बीच में सौहार्द्र स्थापित कर सकेगी। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इस विश्वविद्यालय की स्थापना तब हुई थी जब हिंदू धर्म के ऊपर ईसाई धर्म और इस्लाम का चारों तरफ से आक्रमण हो रहा था। ऐसी परिस्थितियों के बावजूद महामना ने सनातन संस्कृति का परिचय देते हुए एक ऐसे विश्वविद्यालय की कल्पना की जहां इस राष्ट्र को उसकी जड़ों से जोड़ते हुए धर्मविद्या की भी शिक्षा दी जाए और तत्कालीन परिस्थितियों और आवश्यकताओं के अनुसार प्रगतिशील होते हुए अलग-अलग विदेशी भाषाओं के साथ-साथ विज्ञान, तकनीकी शिक्षा, प्रबंधन, चिकित्सा इत्यादि की भी शिक्षा दी जाए। जहां तक डॉ फिरोज़ की नियुक्ति हुई है वह सरासर हर एक दृष्टिकोण से गलत है। लोग ज्ञान का हवाला दे रहे हैं, संविधान और कानून का हवाला दे रहे हैं तो मैं यहां पर भी तर्क रखते हुए अपनी बात कह रहा हूं।
१. काशी हिंदू विश्वविद्यालय में संस्कृृत से संबंधित दो व्यवस्था है। एक संस्कृत भाषा के लिए है जो कला संकाय के अधीन आती है और दूसरी संस्कृत विद्या धर्म विज्ञान संकाय जो अपने आप में ही पूर्ण है और सनातन धर्म की शिक्षा, शास्त्रों, कर्मकाण्ड, नियम इत्यादि में छात्रों को शिक्षित और प्रशिक्षित भी करती है। महामना मालवीय जी ने जब विश्वविद्यालय की पहली विवरण पुस्तिका ज़ारी की थी तो उसी समय यह बहुत स्पष्ट शब्दों में लिख दिया था "a. That the Vaidik College and all religious work of the University be under the control of Hindus who accept and follow the principles of Sanatan Dharm as laid down in Smritis and Puranas;
b. That the admission to this College be regulated in accordance with the rules of Varnashram Dharm;
c. That all other colleges be open to students of all creeds and classes and the secular branches of Sanskrit learning be also taught without any restriction of caste or creed.
महामना इस बगिया के विश्वकर्मा हैं और बगिया के माली का सम्मान रखते हुए इसकी आत्मा के साथ खिलवाड़ नहीं होना चाहिए। जब महामना इस विश्वविद्यालय की स्थापना के कटोरा लेकर अनेक चौखटों पर जा रहे थे और हैदराबाद के निजाम ने जब उनसे यह शर्त रखी कि वे इस विश्वविद्यालय के नाम में से हिंदू शब्द हटा लें तो उनको धन के लिए किसी और चौखट नहीं जाना पड़ेगा तो महामना ने साफ़ इंकार कर दिया था। उनके दृढ़ संकल्प का है यह विश्वविद्यालय।
२. डॉ फिरोज का संस्कृत ज्ञान बहुत अद्वितीय हो सकता है जो प्रशंसा का विषय है, इस पर किसी भी प्रकार का कोई विरोध नहीं है। हम उनका स्वागत करते हैं काशी हिंदू विश्वविद्यालय के कला संकाय के संस्कृत विभाग में। लोग यह दलील दे रहे हैं कि डॉ फिरोज के पिता भी संस्कृत के अच्छे जानकार हैं, हिंदू धर्म के भजन गाते हैं इत्यादि। वहीं दूसरी तरफ एक पक्ष यह सवाल कर रहा है कि क्या किसी इस्लाम के अच्छे जानकार हिंदू को किसी विश्वविद्यालय जैसे अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी या जामिया मिल्लिया इस्लामिया विश्वविद्यालय के इस्लामिक अध्ययन केंद्र विभाग में पढ़ाने को मिलेगा। जहां तक मेरा मानना है कि किसी भी धर्म के धार्मिक गतिविधियों को संचालित करने का संपूर्ण अधिकार उस धर्म के लोगों की ही होनी चाहिए। मैं कभी भी किसी इस्लामिक अध्ययन केंद्र में हिंदू क्या किसी भी गैर-इस्लामी व्यक्ति की नियुक्ति का विरोध करता हूं। ईसाईयत को ईसाई पढ़ाएं, इस्लाम को मुसलमान पढ़ाएं। अरबी, उर्दू या फारसी, संस्कृत इत्यादि भाषा को कोई भी भाषा के तौर पर पढ़े मुझे कोई आपत्ति नहीं है।
३. तीसरा पक्ष जिसकी लोग दलील दे रहे हैं वह उसका विधिक और संवैधानिक पक्ष है। यह सही है कि भारत के संविधान का अनुच्छेद १६(१) किसी भी प्रकार के भेदभाव को किसी भी प्रकार की नियुक्ति में असंवैधानिक करार देता है परंतु वहीं १६(५) में भारत का संविधान यह भी कहता है कि इस अनुच्छेद की कोई बात किसी ऐसी विधि के प्रवर्तन पर प्रभाव नहीं डालेगी जो यह उपबंध करती है किसी धार्मिक या सांप्रदायिक संस्था के क्रियाकलाप से संबंधित कोई पदधारी या उसके शासी निकाय का कोई सदस्य किसी विशिष्ट धर्म का मानने वाला या विशिष्ट संप्रदाय का ही हो।
४. डॉ फिरोज की नियुक्ति संविधान के आधारभूत लक्षण के न्यायिक सिद्धांत का भी उलंघन है, जिसके अनुसार, भारतीय संविधान के कुछ निश्चित मूलभूत लक्षण हैं जिन्हें संसद के किसी अधिनियम द्वारा बदला या समाप्त नहीं किया जा सकता। संविधान, संसद और राज्य विधान मंडलों या विधानसभाओं को उनके संबंधित क्षेत्राधिकार के भीतर कानून बनाने का अधिकार देता है। डॉ फिरोज की नियुक्ति राज्य द्वारा अधिकारों पर अतिक्रमण है। विश्व का कोई भी संविधान राज्य को धार्मिक आस्थाओं पर अतिक्रमण करने का अधिकार प्रदान नहीं करता है। इस दृष्टिकोण से भी डॉ फिरोज की नियुक्ति असंवैधानिक है।
५. मेरा यह कहना कि विवाद एक मुसलमान द्वारा संस्कृत पढ़ाने को लेकर नहीं, बल्कि वेदांगो में से एक छंदशास्त्र को पढ़ाने के लिए है। छंदशास्त्र अर्थात वैदिक ऋचाओं ज्ञाता होने का प्रमाण है जिसे वेद-पुराण का चरण कहा गया है। इस वेदांग की मदद से वेद-पुराण पीढ़ी दर पीढ़ी विचरण करता है। वराहो मेघो भवति वराहार:, अयाम्पीतरो वराह एतस्मादेव, वराहमिन्द्र एमुषम् जैसे इन मंत्रों को डॉ फिरोज किस तरह से वर्णन कर पाएंगे, उसकी वंदना कर पाएंगे जब उनके धर्म ने उन्हें बचपन से ही वराह-घृणा का इंजेक्शन लगाया हो और घुट्टी पिलाई हो। यदि वह ऐसा करने की धृष्टता करते हैं तो क्या वह अपने धर्म के प्रति ईमानदार रह पाएंगे? यहां तक कि अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के संस्कृत विभाग के अध्यक्ष प्रो. मोहम्मद शरीफ जी का कहना है कि चयन समिति से चूक हुई है और डॉ फिरोज को कर्मकाण्ड के बजाय संस्कृत भाषा के किसी और पेपर को पढ़वाकर विवाद को खत्म करना चाहिए।
५. और आखिर में मेरा यह कहना है कि काशी हिंदू विश्वविद्यालय इस राष्ट्र के किसी और विश्वविद्यालय से बहुत अलग है क्योंकि इस विश्वविद्यालय की स्थापना महामना ने कटोरा लेकर की थी और देश भर घूमें और पूरे राष्ट्र ने इसकी स्थापना में योगदान देकर अपना आशीर्वाद दिया है। यह नियुक्ति उस राष्ट्रभावना का भी असम्मान है, अपमान है। मैं जब काशी हिंदू विश्वविद्यालय से निकला तो बाहर एक फ्लैट लेकर रह रहा था। फ्लैट एक पंडितजी का था और उसमें कोई नहीं रहता था। कमरा देने के पहले यह शर्त रखी गई थी कि उस फ्लैट में कभी मांस मछली नहीं बनना चाहिए या उसका सेवन होना चाहिए। मैंने फ्लैट ले लिया। मैं क्या कर रहा हूं, कौन आ रहा है, कौन जा रहा है, क्या पक रहा है उस घर में कोई देखने वाला नहीं था। मैं करीब डेढ़ साल उस फ्लैट में लेकिन मैंने कभी भी नियम का उलंघन नहीं किया, नियम का सम्मान किया और पालन किया। महामना उस बगिया के माली हैं और माली के भावना का सम्मान किया जाएगा तभी उस बगिया की सुंदरता बनी रहेगी नहीं तो वह बगिया अराजकता का घर बन जाएगी। इस दृष्टिकोण से भी डॉ फिरोज की नियुक्ति अनुचित कदम है सरकार द्वारा। काशी हिंदू विश्वविद्यालय में पढ़ने वाले छात्रों का महामना के प्रति एक अलग सम्मान है, वह हमारी आत्मिक भावनाओ से जुड़े हुए हैं। उस प्रांगड़ को हमने विश्वविद्यालय कभी समझा ही नहीं बल्कि मंदिर समझा है और उसको पूजते हैं हम।
काशी हिंदू विश्वविद्यालय के छात्र इस नियुक्ति के विरोध में लामबंद हुए हैं और आंदोलनरत हैं, धरना दिए थे और अब तक की खबर यह है कि विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो राकेश भटनागर से मिलने के बाद और दस दिनों के अंदर इस समस्या के हल का आश्वासन मिलने पर अपनी हड़ताल को स्थगित कर दिया है परंतु कक्षाओं का बहिष्कार जारी रहेगा। अतः इस नियुक्ति का विरोध करते हुए मैं यहां हिंदू समाज और काशी हिंदू विश्वविद्यालय के पूर्व छात्रों से आव्हान करता हूं कि वह साथ खड़े हों ताकि सरकार मालवीय भावना और संस्कार के साथ खिलवाड़ न कर सके।

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