जनहित में जगतु तपोवन सो कियो
इष्ट देव सांकृत्यायन
कहलाने एकत बसत अहि मयूर मृग बाघ।
जगतु तपोवन सो कियो दीरघ दाघ निदाघ॥
जगतु तपोवन सो कियो दीरघ दाघ निदाघ॥
रीतिकाल के अधिकतर कवियों के बारे में यह आम धारणा है कि
उन्होंने जो लिखा राज दरबार के लिए लिखा। बिहारी भी इस धारणा से मुक्त नहीं हैं।
यह अलग बात है कि उनके ‘दोहरे’ यानी ‘दोहे’ हिंदी साहित्य जगत में ‘नावक
के तीर’ माने जाते हैं, जो ‘देखन में छोटे लगें’ लेकिन ‘घाव
करें गंभीर’। हालांकि ‘नावक’ के तीर को लेकर भी बड़ी भ्रांतियां हैं, लेकिन इस पर
फिर कभी। अभी मामला साहित्य का नहीं, राजनीति का है। पता
नहीं, कविवर बिहारी का अपने समय की राजनीति से कितना और कैसा
संबंध था, पर इतना तो है कि आज की राजनीति पर उनका यह ‘दोहरा’ सोलह आने सच साबित होता है। वह कौन सा ‘दीरघ दाघ निदाघ’ है जिसके प्रचंड तेज से
भाई-भतीजावाद, कुल-गोत्रवाद, जाति-क्षेत्रवाद,
भाषा-प्रांतवाद और इन सबसे बढ़कर वोटबैंक आधारित टिकट-मूल्यवाद के
पुण्य आलोक से आलोकित आज का राजनीतिक जगतु तपोवन-सा नहीं, बल्कि
वाक़ई तपोवन ही हो गया है, इस पर कुछ कहने की ज़रूरत नहीं है।
क्षमा चाहता हूँ, लेकिन यह सच है कि श्रीमद्भगवद्गीता में
भगवान श्रीकृष्ण के दिए उपदेशों की सत्यता पर जिन लोगों को जब-तब संदेह होता रहता
है, उनमें मैं भी शामिल हूँ। इरादतन नहीं, आदतन।
बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृत दुष्कृते।
तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम॥
तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम॥
मुझे लगता है कि इसका तो सिर्फ़ दावा ही किया जा सकता है।
भला ऐसा कैसे हो सकता है कि कोई सब प्रकार के दोषों से मुक्त हो जाए और पूरी तरह
समत्व भाव से सब काम करे। लेकिन नहीं, अब लग रहा है कि हो सकता है। सामने होता
हुआ दिख रहा है तो कैसे इनकार किया जा सकता है! मुझे याद आता
है, सन 2014 में लालू जी ने चुनाव के मद्देनज़र सपा-बसपा के
एक हो जाने का सुझाव रख दिया था। इस पर अगले ही दिन सुश्री मायावती जी की
प्रतिक्रिया आई थी। वह बरस पड़ी थीं – अगर वैसी घटना लालू की बहन-बेटी के साथ हुई
होती तो वह गठबंधन की बात कभी नहीं करते। यक़ीनन सुश्री मायावती जी का इशारा उसी
घटना की ओर था जो 2 जून 1995 को लखनऊ के राज्य अतिथि गृह में हुई थी। वही जिसे आज
भी लोग गेस्ट हाउस कांड के नाम से जानते और भारतीय राजनीति के एक शर्मनाक सच के
रूप में बड़े क्षोभ के साथ याद करते हैं। उस समय मायावती जी के अपने विधायक सिर्फ़
अपनी-अपनी जान बचा रहे थे। उन्हें बचाने का दुस्साहस करने वाले उनकी धुर विरोधी
पार्टी भाजपा के विधायक ब्रह्मदत्त द्विवेदी थे।
चुनाव वाले राजनीति विज्ञान में तो अगर-मगर एक नियम की तरह
विश्लेषक के दाएँ-बाएँ हाथ जोड़े खड़े रहते हैं। लेकिन इतिहास में तथ्यान्वेषी को ये
दोनों सोंटा लिए नज़र आते हैं। फिर भी मैं ‘अगर’ के प्रयोग की
धृष्टता कर ही लेता हूँ। सोचिए, अगर उस वक़्त संयोगवश
ब्रह्मदत्त द्विवेदी लखनऊ के राज्य अतिथि गृह में मौजूद न रहे होते तो...। सुश्री
मायावती और बसपा का क्या होता, वह तो छोड़ ही दें। वैसे बहुत
लोगों का यह मानना है कि ब्रह्मदत्त द्विवेदी का वह हश्र न होता, जो हुआ। ख़ैर, अभी जब सुश्री मायावती ने सपा-बसपा
गठबंधन की घोषणा की तब भी वे गेस्ट हाउस कांड को याद करना न भूलीं। उन्होंने कहा कि
जनहित में ही 2 जून 1995 को हुए लखनऊ गेस्ट हाउस कांड को भुलाकर सपा के साथ गठबंधन
करने का फ़ैसला किया है।
भारतीय राजनीति में अगर कोई सबसे बेचारा शब्द है तो वह है ‘जनहित’। इस बेचारे को चने की तरह जैसे चाहे कूट-पीस कर, उबाल
कर, पका कर, फ्राई करके या कच्चा ही
इस्तेमाल किया जा सकता है। इससे भारतीय राजनीति को न तो कभी अपच होता है और न कोई
परेशानी। यहाँ जो कुछ किया जाता है, सब जनहित में ही किया
जाता है। मुझे क़तई आश्चर्य नहीं होगा, अगर आने वाले दिनों
में घोटालों के संदर्भ में जनहित शब्द का प्रयोग सुपरसोनिक विमानों की रफ़्तार से
उड़ता दिखाई देने लगे।
जहाँ तक मुझे याद आता है पहली बार 1993 में हुए इस गठबंधन
को उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में कुल 176 सीटें ही मिली थीं। भाजपा को तब 177
सीटें मिल गई थीं। यानी इस गठबंधन से एक ज़्यादा। हालांकि बाद में 2007 के चुनाव
में बसपा को अकेले अपने दम पर 206 सीटें मिल गईं और इसके मूल में साफ़ तौर पर वजह
रही बसपा की सोशल इंजीनियरिंग। बसपा अपने आधारभूत नारे ‘तिलक-तराजू
और तलवार’ से खिसक कर ‘हाथी नहीं,
गणेश है’ पर आ गई थी। जातियों का गणित लगाने
वाले चुनावी महापंडित आज दुबारा हुए गठबंधन से उतने आश्चर्यचकित नहीं हुए होंगे,
जितने वे तब चुनाव परिणाम से दंग रह गए थे।
ऐसा क्या हुआ कि अगले ही चुनाव यानी 2012 में बसपा खिसक कर
80 पर आ गई और उसकी धुर विरोधी बन चुकी सपा को 224 सीटें मिल गईं, यह
बहुत-से अख़बारों के पन्नों में रोज़मर्रा के खुदरा हिसाब की तरह दर्ज है। नोटबंदी
के बाद हुए पिछले यानी 2017 के चुनाव में चुनावी पंडित त्रिशंकु विधानसभा का
अनुमान लगा रहे थे। नतीजे आए तो कांग्रेस से गठबंधन करने वाली समाजवादी पार्टी को 54
और बहुजन समाज पार्टी को 19 सीटें मिल गई थीं। भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाले
राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को 325 सीटें मिलीं। इसमें 312 अकेले भाजपा के हक़ में
थीं। तब ठीकरा ईवीएम के सिर फोड़ने की कोशिश की गई। हालांकि यही ठीकरा उस वक़्त ग़ायब
हो गया जब बीते साल लोकसभा उपचुनाव में बसपा समर्थित सपा प्रत्याशियों ने गोरखपुर
और फूलपुर में भाजपा प्रत्याशियों को हरा दिया।
तब अधिकतर लोगों ने इसे जातिगत गणित का ही कमाल माना था।
स्थानीय लोग इसमें कुछ और कारण भी गिनाते हैं। आम चुनाव और उप चुनाव की प्रकृति
कैसे एक-दूसरे से भिन्न होती है, उप चुनावों में स्थानीय मुद्दे कैसे व
क्यों राष्ट्रीय मुद्दों पर भारी पड़ने लगते हैं और ऐसे समय में राजनीतिक स्थिरता
या अस्थिरता को लेकर वोटर किस तरह सोचता है — ये सब मतदाता मनोविज्ञान के ऐसे
प्रश्न हैं जिन पर गंभीर विचार विमर्श अभी भारत के चुनावी महापंडित ‘जनहित में’ ही बिलकुल ग़ैर ज़रूरी मानते हैं। अब ‘जनहित में’ किया गया यह नया गठबंधन क्या गुल खिलाएगा,
यह जानने में अभी बहुत वक़्त बाक़ी है। ख़ैर जनहित में ही अपने इस एकालाप
को मैं हसन क़ाज़मी के चंद अशआर के साथ विराम देना मुनासिब समझता हूं। आप भी ज़ायका
लें —
क्या ज़माना है कभी यूँ भी सज़ा देता है
मेरा दुश्मन मुझे जीने की दुआ देता है
अपना चेहरा कोई कितना भी छुपाए लेकिन
वक़्त हर शख़्स को आईना दिखा देता है।
मेरा दुश्मन मुझे जीने की दुआ देता है
अपना चेहरा कोई कितना भी छुपाए लेकिन
वक़्त हर शख़्स को आईना दिखा देता है।
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ReplyDeleteaapne bahut achha likha hai
ReplyDeletemai bhi ek hindi blogger hu
https://www.mumbaiweather.info/2019/01/kharghar-hills-navi-mumbai.html
Bhai nice post, thank you
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