जाग मछेंदर गोरख आया-2

गोरख के साहित्य पर चर्चा हो, इसके पहले जरूरी है कि उनका मानवीकरण कर लिया जाए. वैसे यह मैं कोई नया काम करने नहीं जा रहा हूँ. बहुत पहले ही कई विद्वान कर चुके हैं. लेकिन चूँकि यह काम विद्वानों ने किया तो यह मोटी-मोटी किताबों में दफन होकर रह गया. बाक़ी का क्रियाकर्म कोर्स में कर दिया गया. लोक तो उन्हें देवता बना ही चुका है.

वैसे इस पर मुझे एतराज नहीं. हो भी तो क्या कर लूंगा. यह प्रवृत्ति केवल हमारे ही लोक की नहीं है. यह दुनिया भर के लोक की प्रवृत्ति है. ख़ासकर उन विभूतियों के साथ जिनके साथ अध्यात्म और चमत्कार जुड़ा है. गोरख के तो जन्म के साथ ही चमत्कार जुड़ा है.

चमत्कार या कहें मुश्किलों से निजात के साथ लोगों के सहज ही जुड़ जाने का जो कारण मेरी समझ में आता है, वह वही है जिसे ग़ालिब ने कुछ यूँ कहा है:
इब्न-ए-मरियम हुआ करे कोई
मेरे दुख की दवा करे कोई

जिसने भी उसके दुख की कुछ दवा कर दी, उसी को उसने भगवान मान लिया. भोजपुरी में तो कहावत ही है, जे पार लगावे तेही भगवान. जो उसे संसार सागर पार करा दे, यानी जो उसके कष्टों को मिटाने की दिशा में कुछ क़दम आगे बढ़ा दे, वही उसके लिए भगवान बन जाता रहा है. और उस दौर के आम आदमी की चाहतें भी कोई बहुत बड़ी-बड़ी नहीं थीं. वही जो कबीर की थी:
सांईं इतना दीजिए जामे कुटुम समाय
मैं भी भूखा ना रहूँ साधु न भूखा जाय

इतना पा लेने के उपाय बता देने वाले साधु भी कुछ कम अद्भुत नहीं रहे हैं. एक बार ध्यान का नशा चढ़ जाने के बाद तो साधारण आदमी भी भय-चिंता से मुक्त हो जाता है. फिर ये तो उससे आगे की अवस्था तक पहुँचे हुए लोग थे. इनका लोगों की समस्याओं का समाधान और यहाँ तक कि अपने बारे में बताने का ढंग भी शायद वही था, जो ग़ालिब ने कहा:
बक रहा हूँ जुनूँ में क्या-क्या कुछ
कुछ न समझे ख़ुदा करे कोई

भला बुद्ध की जातक कथाओं और बाइबिल की फीबल्स से बेहतर उदाहरण इसका और क्या हो सकता है! हमारे पुराण भी तो ऐसी ही कथाओं से भरे पड़े हैं. क्या पता कुछ ऐसी ही बातों के आधार पर भारतीय लोक ने भी अपनी-अपनी धारणाएँ बना ली हों. बेहतर होगा कि पहले लोक की ही बात कर लें.

अब लोक में प्रचलित तो यह है कि गोरख का जन्म गोबर से हुआ था. नाम से ऐसा लगता भी है. कहानी यह है कि मछंदर नाथ कहीं जा रहे थे. रास्ते में एक गाँव पड़ा. उस गाँव में एक स्त्री थी. जो संतान न होने से बहुत दुखी थी. मछंदर नाथ ने उसे देखा तो पूछा कि माता तुम क्यों दुखी हो. उसने कहा कि बाबा बस एक माता ही नहीं हूँ. बाक़ी तो सब सुख है. और बाबा ने उसे भभूत दे दी.

अब बाबा ने उसे भभूत दे तो दी पर जैसा कि अकसर ऐसे मामलों में होता है, महिला ने भभूत खाई नहीं. उसने भभूत गोबर के एक ढेर पर फेंक दी. बारह वर्ष बाद मछंदर नाथ फिर उसी गाँव में आए. महिला से मिले और पूछा तो महिला ने कहा कि उसने तो भभूत फेंक दी थी. मछंदर नाथ बहुत नाराज़ हुए. वह गए उसी जगह. गोबर के ढेर पर जल छिड़का और पुकारा तो वहाँ से बारह वर्ष का एक बालक निकला. उस बालक को फिर मछंदर नाथ ने वहाँ छोड़ा नहीं. अपने साथ लेकर चले गए. वही बालक था जिसे अब गुरु गोरखनाथ के नाम से जाना जाता है.

गोरख के जन्म की कथा बस यही एक ही प्रचलित है. थोड़े-बहुत हेर-फेर के साथ बात लगभग यही दुहराई जाती है. हाँ, जगह को लेकर जरूर कई धारणाएँ हैं. कोई उन्हें राजस्थान में कहीं उद्भूत बताता है तो कोई नेपाल में, कोई पंजाब और कोई हिमाचल में. मुझे लगता है कि जिसके जो निकट था, उसने वही धारणा बनाने की कोशिश की. आख़िर गोरख जैसा पूत किसे नहीं चाहिए!

ख़ैर! अब काल की बात करें तो लोक में प्रचलित धारणा और भी अद्भुत है. महाभारत से जुड़ी पोखरे की कथा तो मैं आपको बता ही चुका हूँ. एक लोककथा यह भी है कि जब भगवान राम का राज्याभिषेक हुआ था तब भी गुरु गोरखनाथ को निमंत्रण देने महाराज दशरथ स्वयं आए थे. लेकिन गुरु गोरखनाथ उस समय तपोलीन थे. फिर भी गुरु गोरखनाथ ने अपना आशीर्वाद उन्हें गोरखपुर से ही भेजा था.

अब अगर इस आधार पर गुरु गोरखनाथ का जीवनकाल आप निकालने बैठें, त्रेता से लेकर द्वापर और फिर कलियुग तक, तो ख़ुद ही सोच लें. बहरहाल लोक गुरु गोरखनाथ को अमर मानता है. और हाँ, मैं भी लोक का ही हिस्सा हूँ. गोरख ही क्यों, सरहपा, कबीर, सूर, तुलसी; और पीछे जाएँ तो व्यास, वाल्मीकि, कालिदास... सभी अमर ही हैं और इस लोक के होने तक तो अमर ही रहेंगे. चाहे इस या उस रूप में.

यक़ीन मानें, गोरख के अस्तित्व के संदर्भ में विद्वानों के विचार भी इससे कुछ बहुत भिन्न नहीं हैं. बस यह है कि विद्वान इसे त्रेता से लेकर कलियुग तक नहीं फैलाते. फिर भी 9वीं से लेकर 14वीं शताब्दी तक कहीं भी किसी भी बिंदु पर तलाशते रहना, कुछ-कुछ वैसा ही तो है.
आज इतना ही. गोरख के जन्मस्थान और काल पर विभिन्न विद्वानों के शोध निष्कर्ष अगली कड़ियों में.

#गोरखआया 



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