पीठ, बेंच, डेस्क और चेयर
इष्ट देव सांकृत्यायन
-नारायण नारायण!
-कहिए देवर्षि, क्या हाल है मृत्युलोक का?
-हाल तो ठीक नहीं
है प्रभु! माँ भारती तो आक्रांतप्राय हैं. वहाँ तो लोकतंत्र को लेकर चतुर्दिक शोर
मचा हुआ है.
-शोर मचा हुआ है? कैसा शोर मचा है?
-भारत में
लोकतंत्र के चारों खंबे चीख-चीख कर कह रहे हैं कि अब मेरा तारणहार ख़तरे में है.
-चारों खंबे? उनका तारणहार? कौन है इन खंबों का तारणहार?
-हे प्रभु, ये उसे ही अपना तारणहार मानते हैं, जिसने इन्हें नौकरी पर रखा. यानी लोकतंत्र.
-ओह! तो लोकतंत्र
वहाँ ख़तरे में है?
-हाँजी प्रभू!
लोकतंत्र वहाँ ख़तरे में है. भयंकर ख़तरे में.
-अच्छा, तो अब इसका क्या निदान हो सकता है देवर्षि? आप ही कुछ सुझाएँ!
-क्या सुझाएँ
प्रभू! इस पर शोध के लिए क़ायदे से तो हमें पीठ गठित करनी चाहिए. लेकिन पीठ तो आजकल
बार-बार बेंच की ओर भाग रही है.
-कैसे करें प्रभु!
रोज़-रोज़ मीडिया ट्रायल-मीडिया ट्रायल रटने वाले बेंच तो कल डेस्क के पास पहुँच गई.
-तो डेस्क ही के
पास चले जाइए.
-क्या करेंगे
डेस्क के पास जाकर प्रभु! डेस्क के पायों को बेंच पहले ही उनकी औकात बता चुकी है.
ख़ुद उसकी ही अवमानना करने वाले डेस्क के महाप्रभुओं को बेंच ने अवमाननाकार तो माना, पर उनके द्वारा की गई अवमानना को 'नॉट विलफुल' करार दे चुकी है.
-अच्छा तो ऐसा
करिए कि चेयर के पास चले जाइए.
-नारायण नारायण
नारायण... आप भी क्या कहते हैं प्रभु!
-क्यों? क्या हुआ?
-चेयर वाले तो सब
पहले ही मिले हुए हैं जी! चेयर वाले तो आजकल चेयर वालों की भी नहीं सुनते प्रभु!
हमारी वहाँ कौन सुनेगा प्रभु!
-क्यों? क्या चेयर वालों ने आपकी भी सुननी बंद कर दी है?
-नारायण नारायण
नारायण... आप सुनने की बात करते हैं प्रभु! सुनने का तो वहाँ यज्ञ चल रहा है, चेयर से लेकर बेंच और डेस्क तक. मृत्युलोक की
भारतभूमि पर आप जहाँ जाएँ वहीं चारों तरफ़ सुनने का अश्वमेध चल रहा है. हालत यह है
कि सभी सुनने की गलाकाट प्रतिस्पर्धा में जुटे हुए हैं, अहमअहमिका वृत्ति से. सुनने में सब एक दूसरे से आगे
निकल जाना चाहते हैं.
-कुछ समझ नहीं आया देवर्षि! सब सुनने की प्रतिस्पर्धा में भी लगे हुए हैं और कोई सुन भी नहीं रहा... अर्थात?
-कुछ समझ नहीं आया देवर्षि! सब सुनने की प्रतिस्पर्धा में भी लगे हुए हैं और कोई सुन भी नहीं रहा... अर्थात?
-अर्थात यह प्रभू
कि जहाँ-जहाँ सुनने का महायज्ञ चल रहा है, वहाँ-वहाँ यज्ञक्षेत्र में हर प्रार्थी के स्वागत के
लिए नगाड़े रखे हुए हैं. ये नगाड़े उसके आगे-पीछे, ऊपर-नीचे, दाएँ-बाएँ हर तरफ़ रखे हुए हैं. नगाड़ों से बनाए उस
घेरे में जैसे ही प्रार्थी पहुँचता है, परम कर्तव्यपरायण नगाड़े स्वयमेव सक्रिय हो जाते हैं
और तब तक पूरी तत्परता से सक्रिय ही रहते हैं जब तक कि प्रार्थी अपनी पूरी
प्रार्थना न सुना ले. और जैसे ही प्रार्थी की प्रार्थना पूरी होती है, नगाड़े तो बंद हो जाते हैं लेकिन चेयर से लेकर बेंच और
डेस्क हर तरफ़ से आनंद का अट्टहास होने लगता है. इसके साथ ही
प्रार्थी पर आकाश से ऐतिहासिक महत्त्व वाली पुरावस्तुरूपी पुष्पों की दारुण वर्षा
होने लगती है और प्रतापी प्रार्थी उनके ढेर में ही दब जाता है.
-ओssssssssssssह! फिर तो आप अतीत के गौरव में ही झाँकें देवर्षि.
कदाचित वहाँ कोई हल मिले.
-झाँका प्रभु!
-कुछ दिखा क्या
देवर्षि?
-दिखा प्रभू!
-क्या दिखा
देवर्षि?
-एक कालखंड दिखा
प्रभु!
-कब से कब तक का
कालखंड है वह देवर्षि?
-25 जून 1975 से 2 मार्च 1977 का कालखंड है वह प्रभु!
-ना, पिछली शताब्दी के काल की गति को नई शताब्दी में लाना
मुझसे न हो सकेगा देवर्षि. कुछ और करें.
-अब क्या करें
प्रभु?
-अब ऐसा करें कि
वर्तमान में ही देखें.
-कैसे देखें प्रभु?
-ऐसा है कि इतिहास
के बाद भूगोल देखने की परंपरा है देवर्षि. अतएव आप भारतभूमि के आस-पड़ोस में देखें.
-हाँ, ठीक है प्रभु!
देवर्षि ने धीरे-धीरे आँखें बंद कीं. आधे घंटे बाद
धीरे-धीरे आँखें खोलनी शुरू कीं. खुलते ही उन्होंने पुनः टेर लगाई,
-नारायण नारायण
-कहिए देवर्षि.
क्या समाचार है.
-बहुत अच्छा
समाचार है प्रभु!
-हूँ... तो बताइए.
हम भी जानें.
-प्रभू भारतभूमि
के बगल में ही पाकिस्तान है. वहाँ फुलटॉस लोकतंत्र है. दूसरी तरफ़ चीन है. वहाँ तो
और भी फुलटॉस लोकतंत्र है. वहाँ तो 1989 में लोकतंत्र का एक बहुत बड़ा महोत्सव भे हुआ था, जिसे इतिहास के पन्नों में जून फोर्थ इंसिडेंट के नाम से स्वर्णाक्षरों में दर्ज
है प्रभू!
-हूँ... बात तो
ठीक है, लेकिन इतने निकट
से .. आइ मीन इमिडिएट पड़ोसी से नकल नहीं करनी चाहिए. कॉपी मिलने के चांसेज़ बढ़ जाते
हैं और एग़्ज़ामिनर विदहेल्ड कर सकता है. कोई और उदाहरण दें देवर्षि.
-प्रभू ऐसे तो
भारतभूमि में सिर्फ़ यूरोप और अमेरिका ही ऐसी जगह है जहाँ की नकल को नकल नहीं माना
जाता और अगर कभी पता भी चल जाए कि यह तो नकल है तो उसे स्वयमेव महाअकल सिद्ध मान
लिया जाता है. लेकिन बीते दिनों रूस और चीन की नकल की वहाँ बड़ी उदात्त परंपरा
स्थापित हुई थी. ख़ैर, अब ये बीते दिनों
की बात हो गई. इधर नया ट्रेंड वहाँ थोड़े दूर के पड़ोसी नॉर्थ कोरिया के नकल की है.
अब तो पोस्टर पर भी लेनिन-मार्क्स की जगह उनके महान राष्ट्रनायक महामहिम जननेता
श्री किम जोंग उन दिखाई देने लगे हैं. आजकल उनके महान देश में जनता बहुत सुखी-संपन्न
है और चतुर्दिक लोकतंत्र का रंग-बिरंगा उत्सव चल रहा है. सड़कों पर दौड़ने, छतों पर सुखाए जाने, खेतों में उगने, घास के मैदानों में चरे जाने और तोपों में बतौर बारूस भरे जाने से लेकर गाँवों-शहरों की नालियों एवं सीवर
तक में लोकतंत्र ही बह रहा है.
-हूँ... आप ठीक कहते हैं. वैसे ये
नॉर्थ कोरिया है कहाँ देवर्षि?
-नारायण नारायण... क्यों मज़ाक करते
हैं प्रभू? अरे ये उसी साउथ कोरिया का एकदम से इमिडिएट
नेबर है प्रभू जिससे आपकी रिश्तेदारी रही है.
-मेरी रिश्तेदारी?
-हांजी-हांजी प्रभू! भूल गए आप अपना
रामावतार? आपके रामावतार के महान कुल की रिश्तेदारी
प्रभू!
-ओह! आइ नो... आपने ठीक कहा. ठीक है तो ऐसा करिए कि मृत्युलोक की भारतभूमि के निवासियों से
कहिए कि यथाशीघ्र वे लोकतंत्र का नॉर्थ कोरिया मॉडल ही अपना लें. वहाँ के लिए केवल यही श्रेयस्कर
रहेगा.
धन्यवाद!
ReplyDeleteआपकी यह रचना बहुत ही सुंदर है…
ReplyDeleteमैं स्वास्थ्य से संबंधित छेत्र में कार्य करता हूं यदि आप देखना चाहे तो कृपया यहां पर जायें
वेबसाइट
Nice piece of work!
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