भारतीय समाज की गुत्थियां और 21वीं सदी में विवेकानंद का आह्वान
-दिलीप मंडल
"पृथ्वी पर ऐसा कोई धर्म नहीं है, जो हिंदू धर्म के समान इतने उच्च स्वर से मानवता के गौरव का उपदेश करता हो, और पृथ्वी पर ऐसा कोई धर्म नहीं है, जो हिंदू धर्म के समान गरीबों और नीच जातिवालों का गला ऐसी क्रूरता से घोंटता हो।"
"अब हमारा धर्म किसमें रह गया है? केवल छुआछूत में - मुझे छुओ नहीं , छुओ नहीं। हम उन्हें छूते भी नहीं और उन्हें ‘दुर’ ‘दुर’ कहकर भगा देते हैं। क्या हम मनुष्य हैं?"
"भारत के सत्यानाश का मुख्य कारण यही है कि देश की संपूर्ण विद्या-बुद्धि राज-शासन और दंभ के बल से मुट्ठी भर लोगों के एकाधिकार में रखी गयी है।"
"यदि स्वभाव में समता न भी हो, तो भी सब को समान सुविधा मिलनी चाहिए। फिर यदि किसी को अधिक तथा किसी को अधिक सुविधा देनी हो, तो बलवान की अपेक्षा दुर्बल को अधिक सुविधा प्रदान करना आवश्यक है। अर्थात चांडाल के लिए शिक्षा की जितनी आवश्यकता है, उतनी ब्राह्मण के लिए नहीं।"
"पुरोहित - प्रपंच ही भारत की अधोगति का मूल कारण है। मनुष्य अपने भाई को पतित बनाकर क्या स्वयं पतित होने से बच सकता है? .. क्या कोई व्यक्ति स्वयं का किसी प्रकार अनिष्ट किये बिना दूसरों को हानि पहुँचा सकता है? ब्राह्मण और क्षत्रियों के ये ही अत्याचार चक्रवृद्धि ब्याज के सहित अब स्वयं के सिर पर पतित हुए हैं, एवं यह हजारों वर्ष की पराधीनता और अवनति निश्चय ही उन्हीं के कर्मों के अनिवार्य फल का भोग है।"
अंदाजा लगाइए कि भारतीय समाज के बारे में ये बातें किसने कही होंगी। बाबासाहेब भीमराव आंबेडकर ने, ज्योतिबाफुले ने, शाहूजी महाराज ने या फिर पेरियार ने, कबीर ने, दादू ने, रविदास ने या कांसीराम ने या करुणानिधि ने। जी नहीं ये सब कहा है उन विवेकानंद ने, जिन्हें कोई भारतीय नवजागरण का प्रतीक मानता है तो कोई संघ वाला जिसकी मूर्ति और फोटो पर फूल चढ़ाता है।
पहला उद्धरण विवेकानन्द साहित्य, भाग १ , पृ. ४०३ से है। दूसरा लिया गया है विवेकानन्द साहित्य, भाग २ , पृ. ३१६ से। तीसरा कोटेशन विवेकानन्द साहित्य, भाग ६ , पृ. ३१०-३११ से है। चौथा विवेकानंद की रचना नया भारत गढ़ो, पृ . ३८ से और पांचवां विवेकानंद पत्रावली भाग ९ , पृ. ३५६ से है।
(सारे उद्धरण अफलातून जी से साभार)
दरअसल, जाति के बारे में विवेकानंद के विचार उन तमाम लोगों को मालूम हैं, जिन्होंने विवेकानंद को पढ़ा है। लेकिन सवाल ये है कि आज विवेकानंद का आह्नान करने की आखिर क्या जरूरत आ पड़ी? दरअसल भारतीय क्रिकेट में थोड़ा और भारत देखने की आउटलुक के एस आनंद की कामना और इस बारे में आशीष नंदी, राजदीप सरदेसाई और रामचंद्र गुहा के विचार और कुछ अपनी बात एक पोस्ट में डाली थी। उस पर कुछ बेनाम लोगों ने कुछ बातें कहीं। उन टिप्पणियों को आप पोस्ट में देखें। इसी दौरान अफलातून भाई, विवेकानंद को उद्धृत कर भारतीय समाज पर चर्चा चला रहे हैं। मुझे दोनों बातें जुड़ती दिखीं।
बहरहाल, मुझे लगता है कि जो खतरनाक किस्म के सर्प होंते हैं वो कोंचने से फन नहीं काढ़ते। पोंगापंथियों की यही तो पहचान है। ऐसे लोग दिखावे के लिए घनघोर प्रगतिशील होने का छद्म रचते हैं, विवेकानंद से लेकर मार्क्स तक की बात करते हैं। पर खास और जरूरी मौकों पर सामने आती है सिर्फ जहर बुझी जुबान और जहरीले कर्म। मुसलमानों के दो तिहाई बायोडाटा एमएनसी कंपनियों में ऐसे ही रद्दी की टोकरी में नहीं फेंक दिए जाते। और दलितों के साथ भी तो ये लोग ऐसा ही करते हैं। देखिए भारतीय समाज का दा विंची कोड।
मेरिट उनके लिए एक आड़ है, जिसके पीछे से वो शिकार करते हैं- कभी मुसलमानों का, कभी पिछड़ों का, कभी दलितों का, तो कभी औरतों का, कभी विकलांगों का, कभी पिछड़े प्रदेश वालों का, कभी नॉर्थ ईस्ट वालों का शिकार, तो कभी पहाड़ वालों का, तो कभी ग्रामीण और कस्बाई पृष्ठभूमि वालों का और अक्सर भारतीय भाषा में पढ़कर आने वालों का। उनके कितने ही रंग हैं। खास तौर पर न्यायपालिका, नौकरशाही, मीडिया, साहित्य, विश्वविद्यालय और यूपीएससी उनके गढ़ हैं। और शिकार हमेशा पिछड़े और दलित नहीं, सवर्ण भी बनते हैं। सवर्ण औरतें, गांव के सवर्ण, पिछड़े प्रदेशों के सवर्ण, सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले सवर्ण, गरीब सवर्ण। कमजोरों के आखेट में जाति तो सिर्फ एक हथियार है। वो बाजार में बाजार के हथियारों से मारते हैं, आदिवासियों को विस्थापन के हथियार से मारते हैं, शहर से गांव को मारते हैं।
वैसे, बेनाम और खुद के कर्मों पर शर्मशार मुंह छिपाने वाले टिप्पणीकारों से मेरा निवेदन है कि वो उस खतरनाक जमात के सही प्रतिनिधि नहीं हैं। कम से कम नफरत के नाम पर चल रही सदियों पुरानी परंपरा के ग्रेजुएट तो वो कतई नहीं हैं। दरअसल जो समझदार हैं वो चुप हैं और विष इकट्ठा कर रहे हैं। ढेर सारा विष। लेकिन इतना जहर कहां से लाओगे। कल ही एचआरडी मिनिस्ट्री ने आंकड़ा दिया है कि भारत के स्कूलों और कॉलेजों में दो करोड़ से ज्यादा दलित बच्चे पढ़ रहे हैं। लड़कियों ने लड़कों को स्कूली शिक्षा में पीछे छोड़ दिया है। गांव से बड़ी आबादी शहरों में आ रही है। ये भीड़ आज सेवक है, लेकिन कल को ये भी मालिकाना हक मांगने वाले हैं। ये भीड़ टिड्डीदल की तरह आने वाली है, छाने वाली है। बदलता समय पोंगापंथियों के विषदंत तोड़ देगा। खासकर जातिवादियों के लिए, चाहे वो ब्राहा्ण हों या पिछड़े, मुश्किल समय आ चुका है। ऐसे समय में जो भी अपना जबड़ा सख्त रखेगा, उन्हें दर्द ज्यादा होगा।
लेकिन आने वाले दिनों में जब जाति कमजोर होगी तो भी क्या कमजोरों के आखेट की परंपरा बंद होगी? ये सवाल कहीं ज्यादा बड़ा और गंभीर है।
(ये पूरी बहस आप मोहल्ला में देख सकते हैं)
"पृथ्वी पर ऐसा कोई धर्म नहीं है, जो हिंदू धर्म के समान इतने उच्च स्वर से मानवता के गौरव का उपदेश करता हो, और पृथ्वी पर ऐसा कोई धर्म नहीं है, जो हिंदू धर्म के समान गरीबों और नीच जातिवालों का गला ऐसी क्रूरता से घोंटता हो।"
"अब हमारा धर्म किसमें रह गया है? केवल छुआछूत में - मुझे छुओ नहीं , छुओ नहीं। हम उन्हें छूते भी नहीं और उन्हें ‘दुर’ ‘दुर’ कहकर भगा देते हैं। क्या हम मनुष्य हैं?"
"भारत के सत्यानाश का मुख्य कारण यही है कि देश की संपूर्ण विद्या-बुद्धि राज-शासन और दंभ के बल से मुट्ठी भर लोगों के एकाधिकार में रखी गयी है।"
"यदि स्वभाव में समता न भी हो, तो भी सब को समान सुविधा मिलनी चाहिए। फिर यदि किसी को अधिक तथा किसी को अधिक सुविधा देनी हो, तो बलवान की अपेक्षा दुर्बल को अधिक सुविधा प्रदान करना आवश्यक है। अर्थात चांडाल के लिए शिक्षा की जितनी आवश्यकता है, उतनी ब्राह्मण के लिए नहीं।"
"पुरोहित - प्रपंच ही भारत की अधोगति का मूल कारण है। मनुष्य अपने भाई को पतित बनाकर क्या स्वयं पतित होने से बच सकता है? .. क्या कोई व्यक्ति स्वयं का किसी प्रकार अनिष्ट किये बिना दूसरों को हानि पहुँचा सकता है? ब्राह्मण और क्षत्रियों के ये ही अत्याचार चक्रवृद्धि ब्याज के सहित अब स्वयं के सिर पर पतित हुए हैं, एवं यह हजारों वर्ष की पराधीनता और अवनति निश्चय ही उन्हीं के कर्मों के अनिवार्य फल का भोग है।"
अंदाजा लगाइए कि भारतीय समाज के बारे में ये बातें किसने कही होंगी। बाबासाहेब भीमराव आंबेडकर ने, ज्योतिबाफुले ने, शाहूजी महाराज ने या फिर पेरियार ने, कबीर ने, दादू ने, रविदास ने या कांसीराम ने या करुणानिधि ने। जी नहीं ये सब कहा है उन विवेकानंद ने, जिन्हें कोई भारतीय नवजागरण का प्रतीक मानता है तो कोई संघ वाला जिसकी मूर्ति और फोटो पर फूल चढ़ाता है।
पहला उद्धरण विवेकानन्द साहित्य, भाग १ , पृ. ४०३ से है। दूसरा लिया गया है विवेकानन्द साहित्य, भाग २ , पृ. ३१६ से। तीसरा कोटेशन विवेकानन्द साहित्य, भाग ६ , पृ. ३१०-३११ से है। चौथा विवेकानंद की रचना नया भारत गढ़ो, पृ . ३८ से और पांचवां विवेकानंद पत्रावली भाग ९ , पृ. ३५६ से है।
(सारे उद्धरण अफलातून जी से साभार)
दरअसल, जाति के बारे में विवेकानंद के विचार उन तमाम लोगों को मालूम हैं, जिन्होंने विवेकानंद को पढ़ा है। लेकिन सवाल ये है कि आज विवेकानंद का आह्नान करने की आखिर क्या जरूरत आ पड़ी? दरअसल भारतीय क्रिकेट में थोड़ा और भारत देखने की आउटलुक के एस आनंद की कामना और इस बारे में आशीष नंदी, राजदीप सरदेसाई और रामचंद्र गुहा के विचार और कुछ अपनी बात एक पोस्ट में डाली थी। उस पर कुछ बेनाम लोगों ने कुछ बातें कहीं। उन टिप्पणियों को आप पोस्ट में देखें। इसी दौरान अफलातून भाई, विवेकानंद को उद्धृत कर भारतीय समाज पर चर्चा चला रहे हैं। मुझे दोनों बातें जुड़ती दिखीं।
बहरहाल, मुझे लगता है कि जो खतरनाक किस्म के सर्प होंते हैं वो कोंचने से फन नहीं काढ़ते। पोंगापंथियों की यही तो पहचान है। ऐसे लोग दिखावे के लिए घनघोर प्रगतिशील होने का छद्म रचते हैं, विवेकानंद से लेकर मार्क्स तक की बात करते हैं। पर खास और जरूरी मौकों पर सामने आती है सिर्फ जहर बुझी जुबान और जहरीले कर्म। मुसलमानों के दो तिहाई बायोडाटा एमएनसी कंपनियों में ऐसे ही रद्दी की टोकरी में नहीं फेंक दिए जाते। और दलितों के साथ भी तो ये लोग ऐसा ही करते हैं। देखिए भारतीय समाज का दा विंची कोड।
मेरिट उनके लिए एक आड़ है, जिसके पीछे से वो शिकार करते हैं- कभी मुसलमानों का, कभी पिछड़ों का, कभी दलितों का, तो कभी औरतों का, कभी विकलांगों का, कभी पिछड़े प्रदेश वालों का, कभी नॉर्थ ईस्ट वालों का शिकार, तो कभी पहाड़ वालों का, तो कभी ग्रामीण और कस्बाई पृष्ठभूमि वालों का और अक्सर भारतीय भाषा में पढ़कर आने वालों का। उनके कितने ही रंग हैं। खास तौर पर न्यायपालिका, नौकरशाही, मीडिया, साहित्य, विश्वविद्यालय और यूपीएससी उनके गढ़ हैं। और शिकार हमेशा पिछड़े और दलित नहीं, सवर्ण भी बनते हैं। सवर्ण औरतें, गांव के सवर्ण, पिछड़े प्रदेशों के सवर्ण, सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले सवर्ण, गरीब सवर्ण। कमजोरों के आखेट में जाति तो सिर्फ एक हथियार है। वो बाजार में बाजार के हथियारों से मारते हैं, आदिवासियों को विस्थापन के हथियार से मारते हैं, शहर से गांव को मारते हैं।
वैसे, बेनाम और खुद के कर्मों पर शर्मशार मुंह छिपाने वाले टिप्पणीकारों से मेरा निवेदन है कि वो उस खतरनाक जमात के सही प्रतिनिधि नहीं हैं। कम से कम नफरत के नाम पर चल रही सदियों पुरानी परंपरा के ग्रेजुएट तो वो कतई नहीं हैं। दरअसल जो समझदार हैं वो चुप हैं और विष इकट्ठा कर रहे हैं। ढेर सारा विष। लेकिन इतना जहर कहां से लाओगे। कल ही एचआरडी मिनिस्ट्री ने आंकड़ा दिया है कि भारत के स्कूलों और कॉलेजों में दो करोड़ से ज्यादा दलित बच्चे पढ़ रहे हैं। लड़कियों ने लड़कों को स्कूली शिक्षा में पीछे छोड़ दिया है। गांव से बड़ी आबादी शहरों में आ रही है। ये भीड़ आज सेवक है, लेकिन कल को ये भी मालिकाना हक मांगने वाले हैं। ये भीड़ टिड्डीदल की तरह आने वाली है, छाने वाली है। बदलता समय पोंगापंथियों के विषदंत तोड़ देगा। खासकर जातिवादियों के लिए, चाहे वो ब्राहा्ण हों या पिछड़े, मुश्किल समय आ चुका है। ऐसे समय में जो भी अपना जबड़ा सख्त रखेगा, उन्हें दर्द ज्यादा होगा।
लेकिन आने वाले दिनों में जब जाति कमजोर होगी तो भी क्या कमजोरों के आखेट की परंपरा बंद होगी? ये सवाल कहीं ज्यादा बड़ा और गंभीर है।
(ये पूरी बहस आप मोहल्ला में देख सकते हैं)
भाई दलित और सवर्ण की बातें कर कर के हम इस समाज को सिर्फ और सिर्फ समाज को बांट रहें है ,बंधु जोङने से ही समाज का भला होने वाला है.
ReplyDeleteमिहिरभोज जी, आपसे सौ फीसदी सहमति है। जोड़ने से ही समाज का भला होगा।
ReplyDeleteविवेकानन्द से बीज प्राप्त राष्ट्रीयता में दलित-शोषित की चिन्ता होगी , गोलवलकर-हेगड़ेवार-हिटलर के राष्ट्रतोड़क राष्ट्रवाद में वर्णाधारित समाज होगा।
ReplyDeleteमेरी पोस्ट की कड़ी देते तो विवेकानन्द तक पाठक पहुँचते ।
त्रिलोचन : किवदन्ती पुरूष
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