ट्रंप का ट्रंपेट और दर्द का रिश्ता
इष्ट देव सांकृत्यायन
अमेरिका की अपनी अर्थव्यवस्था की बात करें तो 2025 के लिए उसका प्रोजेक्टेड रीअल जीडीपी ग्रोथ रेट केवल 1.8 प्रतिशत है। अमेरिका आज भी कई बार जिसके गुलाम की तरह व्यवहार करता है, उस यूनाइटेड किंगडम का ग्रोथ रेट केवल 1.1 प्रतिशत रह गया है। रशियन फेडरेशन का 1.5, जापान का 0.7, जर्मनी का 0.4 और चीन का 4 प्रतिशत है। इन हालात में बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में अकेला भारत है जिसका प्रक्षेपित वास्तविक सकल घरेलू उत्पाद वृद्धि दर 6.2 प्रतिशत है। भारत विश्व की पाँचवीं से चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया। यहाँ तक अमेरिका किसी तरह पचा लेता, अगर भारत अमेरिका का पिछलग्गू बना रहता। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। 2014 के बाद के भारत ने अमेरिका को हर तरह से उसकी औकात बताई है और सीधे न सही तो प्रकारांतर से उसकी हदों में रहने के लिए कहा है। किरना हिल्स पर निशाना साधकर भारत ने केवल पाकिस्तान की छाती ही नहीं, अमेरिका के गाल पर भी तमाचा मारा है। सबसे हाइटेक, एडवांस और कटिंग एज बताए जाने वाले लड़ाकू विमान एफ 35 को जिस तरह केरल में उतारा गया और अमेरिका व यूके के इंजीनियर लाख कोशिशों के बावजूद उसे साबुत उड़ाकर नहीं ले जा सके, आखिरकार महीनों वहाँ खड़े रहने के बाद जिस तरह उसे टुकड़ों-टुकड़ों में काट-काट कर ले जाना पड़ा, वह अमेरिका के गाल पर भारत का दूसरा तमाचा था। इस सब के बाद ट्रंप ने अगर भारत को मरी हुई अर्थव्यवस्था कहा है, उस अर्थव्यवस्था को जो पिछले 11 साल में 10वें नंबर से सीढ़ियाँ चढ़ते-चढ़ते चौथे नंबर की दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गई है, तो यह बयान किसी राष्ट्राध्यक्ष की चिंता कम और हारे हुए जुआरी की कुंठा ज्यादा जाहिर करता है। यह बात अब जगजाहिर है।
ट्रंप की इस निहायत वाहियात बात का अनुमोदन वह राहुल गांधी कर रहे हैं जिनकी अपनी सरकार अमेरिका के वीजा को इतनी बड़ी चीज मान बैठी थी कि उसके लिए भारत की संप्रभुता गिरवी रख आई थी। बराक ओबामा के राष्ट्रपति रहते मोदी को अमेरिकी वीजा न दिए जाने का जो अनुरोध किया गया था, उस पर कुल 65 सांसदों के हस्ताक्षर बताए गए थे और उनमें अधिकतर इनके ही थे। दो-चार बाहरी लोगों में से एक सीताराम येचुरी ने तो मना कर दिया था।
नरेंद्र मोदी सबसे पहले भारत के नागरिक हैं। उन्होंने भारत में अगर कोई अपराध किया तो उसके लिए उन्हें भारत के संविधान और उसके अधीन बने कानून के अनुसार भारत में ही दंडित किया जाना चाहिए था। न कि अमेरिका या रूस या चीन में। मोदी कहीं भाग नहीं गए थे और न भागने वाले ही थे। शायद उन्होंने अमेरिकी वीजा के लिए अप्लाई तक नहीं किया था। तब तक तो अमेरिका जाने की उनकी कोई योजना भी नहीं थी।
नरेंद्र मोदी कोई छुपकर भी नहीं रह रहे थे। गुजरात के मुख्यमंत्री पद पर रहते हुए रोज सरकारी बैठकों में भाग लेते थे। सारे कामकाज देखते थे। कांग्रेस के सारे मुख्यमंत्रियों से बहुत अच्छे मुख्यमंत्री साबित हो रहे थे। जनसभाएँ भी करते थे। उनके खिलाफ गढ़े गए कांग्रेसी मुकदमे कोर्ट में थे और कोर्ट उन पर सुनवाई कर रही थी। ज्यादातर तारीखों पर मोदी या उनका प्रतिनिधि हाजिर था। फिर समस्या क्या थी? अपने देश के नागरिक को अपमानित करने के लिए राहुल जी और उनकी सरकार दूसरे देश का सहारा क्यों ले रही थी? ऐसी टुच्ची हरकत क्यों की गई? और वह भी वीजा जैसी मामूली चीज के नाम पर?
क्योंकि राहुल गांधी और उनके गुर्गे मोदी को कंट्रोल नहीं कर पा रहे थे। नरेंद्र मोदी पूरी कांग्रेस के लिए अनकंट्रोलेबल हैं। यह अब कहने की जरूरत नहीं रही। देश का बच्चा-बच्चा जानता है। केवल मीडिया में स्वतंत्र या निष्पक्ष बताए जाने वाले कुछ अनुगृहीत मीडियाकरों की बात छोड़ दी जाए तो भारत के बच्चे-बच्चे की दृष्टि में राहुल गांधी भारतीय राजनीति के मिस्टर बीन बनकर रह गए हैं। दुनिया के स्तर पर यही छवि डोनल्ड जे ट्रंप की बन चुकी है। आज जो राहुल गांधी ट्रंप जैसे बददिमाग, दीवालिया और विफल उद्यमी द्वारा भारत की अर्थव्यवस्था को मृत अर्थव्यवस्था कहे जाने पर इतने प्रसन्न हो रहे हैं, उसका कारण भी यही है। उनका दर्द ट्रंप के दर्द से मिलता है। दोनों के बीच दर्द का एक रिश्ता बन गया है।
जीओ पॉलिटिक्स को समझने वाले जानते हैं कि नरेंद्र मोदी आज ट्रंप के लिए अनकंट्रोलबल हो चुके है। नरेंद्र मोदी के अनकंट्रोलबल होने का अर्थ है भारत का अनकंट्रोलबल होना। मोदी ने वर्षों से अमेरिकी फैसलों को धता बता कर ये बताया है कि हम अपने फैसले खुद करते हैं। हमारे रास्ते में तुम न आओ। तुम उतना ही मतलब रखो, जितना एक देश को दूसरे देश से रखना चाहिए।
ट्रंप के लिए ये बर्दाश्त के बाहर है। मौलिक रूप से बदमिजाज अमेरिका भूल नहीं सकता कि भारत वही देश है जिसके नेताओं के लिए अमेरिकी वीजा जैसी मामूली चीज इतनी बड़ी उपलब्धि थी कि वह इसका उपयोग अपने एक लोकप्रिय राजनेता को बेवजह अपमानित करने के लिए कर रहा था। आज वह भारत उसकी धमकियों के बावजूद रूस से कच्चा तेल खरीदता है। एक झटके में उसके खटारा लड़ाकू विमान का सौदा रद कर देता है। उसके कबाड़ा अस्त्र-शस्त्र खरीदने से मना कर देता है। टैरिफ की उसकी धमकियाँ धरी रह जाती हैं। वह अपने लिए पहले से ही कई बाजार तलाश कर बैठा है। यह सब ट्रंप को वास्तव में डरा रहा है। यह डर उनके अपने देश के भीतर भी दिख रहा है।
ठीक इसी तरह नेशनल हेराल्ड और यूके की नागरिकता जैसे मसले खुलने, कर्नाटक और हिमाचल में कांग्रेस सरकारों की विफलता, लगातार तीसरी बार भी लोकसभा चुनाव में बहुमत के बारे में सोचने तक के लायक न बन पाना और चौथी बार के लिए भी कोई आसार न दिखाई देना, यह सब राहुल गांधी को डरा रहा है। यह डर भी एक प्रकार का दर्द है। और फिर से यह दर्द का एक और रिश्ता बन रहा है।
राहुल जी दर्द का अपना हर रिश्ता शौक से निभाएं। लेकिन दर्द की यह रिश्तेदारी निभाने में इतना खयाल तो रखें कि विरोध नरेंद्र मोदी का करें, भाजपा का करें, वामपंथियों की तरह भारत का अशुभचिंतक होने की अपनी छवि पुख्ता न कर लें। हिंदूविरोधी होने की छवि तो राहुल और कांग्रेस ही नहीं, अपने को सेकुलर कहने वाले सारे दल बना चुके हैं। दूसरे देशों में जो होता हो, वो हो, भारत में सेकुलर होने का अभिप्राय हिंदुओं का दुश्मन होना भर रह गया है। तथाकथित सांप्रदायिक एवं लक्षित हिंसा निरोधक विधेयक, जिसके सारे प्रावधान देश भर के हिंदुओं को केवल धर्मांतरण के लिए मजबूर करने वाले और उनसे आत्मरक्षा का अधिकार तक छीन लेने वाले थे, ने सबके मन में यह बात पुख्ता कर दी। रही-सही कसर एटीएस अधिकारियों के खुलासे निकाल दे रहे हैं। राहुल जी अब कम से कम भारत का दुश्मन होने की छवि पुख्ता करने पर न तुल जाएँ। यह न तो राहुल जी के लिए ठीक होगा, न कांग्रेस के लिए और न ही भारत के लिए। विपक्ष के तौर पर देश को एक पार्टी की जरूरत हमेशा रहेगी। मजबूत विपक्ष न होने का ही परिणाम इमरजेंसी थी। कोई सरकार दुबारा तानाशाह न बने, इसके लिए भारत को एक मजबूत विपक्ष की आवश्यकता आज भी है। लेकिन वह विपक्ष रचनात्मक विपक्ष होना चाहिए। जनता के पक्ष में सही मुद्दे उठाने वाला विपक्ष। सही को गलत कहने और गलत का अनुमोदन करने वाले विपक्ष की आवश्यकता किसी भी देश को नहीं होती। क्या राहुल गांधी से यह उम्मीद की जा सकती है? अमेरिका तो खैर, ढलान की ओर बढ़ ही चुका है।
[लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं शोधकर्ता हैं]
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