प्लीज़ ऐसा न करो साथी


जिस मन में अपने लिए सम्मान नहीं होता, उसमें अपनी किसी चीज के लिए सम्मान नहीं होता. चाहे वह देश हो, समाज हो, संस्कृति हो, विचार हो या फिर अपने माता-पिता, जीवनसाथी या बच्चे!


ऐसे लोग जीवन भर लड़ते हैं, उनके इशारों पर जो वास्तव में इनसे और इनके समाज से अपनी दुश्मनी साध रहे होते हैं.


चूँकि वे खुद बार-बार हार गए और हार-हार कर यह मान गए कि सीधी लड़ाई वे कभी नहीं जीत सकते, तो उन कुंठित अपसंस्कृतियों ने यह छद्मयुद्ध छेड़ा.


इस छद्मयुद्ध में वे हमारे समाज के उस कचरे का इस्तेमाल कर रहे हैं जो हमारे ही टुकड़ों पर हमारी ही दया से पल रहा है और हमें ही गाली दे रहा है. हमें, हमारी संस्कृति को, हमारे गौरवशाली दर्शन, हमारे समाज को कोस रहा है.


वह हमें गालियों पर गालियां दिए जा रहा है क्योंकि हम बर्दाश्त कर रहे हैं. क्योंकि हम सह रहे हैं. सहने की जितनी भी सीमाएं हो सकती थीं, सारी पार की जा चुकी हैं. इसके बावजूद हम सह रहे हैं. सहे जा रहे हैं.

उस पर तुर्रा यह कि इन परजीवियों की नजर में हमारे समाज में असहिष्णुता बढ़ रही है. असहिष्णुता बढ़ रही है, ये झूठा हल्ला उस गंदी नाली के कीड़े मचाए हुए हैं जिन्होंने अपानाग्न्योत्सर्जन की सारी हदें छिन्न-भिन्न कर डाली हैं.

इन्हें लगता है कि लोग इनके बार-बार झूठ बोलने से और इनके गलाफाड़ हल्ले से वाकई प्रभावित हो जाएंगे और अंततः इनके सफेद झूठ को ही सच मान लेंगे.

ये नहीं जानते कि चार्वाक, कपिल, विश्वामित्र, महावीर, बुद्ध और नानक जैसे आँख वालों की धरती पर गोएबल्स जैसे अंधों के सिद्धांत काम नहीं आते. स्वामी विवेकानंद इस मिट्टी के एक ऐसे सपूत हैं जिनके प्रति देश का हर वर्ग अपने को अपने आप ही कृतज्ञ महसूस करता है.

भगवा कोई उन्हें किसी ने जबर्दस्ती नहीं उढ़ाया, संन्यासी होने के नाते यही उनका स्वाभाविक परिधान था. यही एक रंग है जिसमें किसी और रंग के प्रति कोई घृणा नहीं है. अलबत्ता तुम जिनके फेंके हुए जूठन के लिए हमारी भीख पर पलकर हम पर ही वमन कर रहे हो, वे ईसा से पहले और बाद के भी करीब 1300 वर्षों के अपने इतिहास पर इस कदर शर्मिंदा हैं कि बेचारे हमेशा कुछ इस मोड में रहते हैं- बताते भी नहीं बनता, छुपाते भी नहीं बनता.

हमारी सहिष्णुता की इससे बड़ी परीक्षा और क्या होगी कि हमने तुम्हारी इतनी बड़ी बेहूदगी को भी तुम्हारा पागलपन मानकर छोड़ दिया! तुम्हें थूरकर वाकई लाल नहीं कर दिया! वरना सहिष्णुता के तुम्हारे जो मानक हैं, वे कायर तो एक मामूली बात पर आदमी को धोखे से हलाल करने पहुँच जाते हैं.

जरा सोचो, अगर हम वाकई असहिष्णु हो गए और केवल इतने पर तुल जाएं कि हमारे दिए हुए कर में कितना पैसा भारत सरकार तुम पागल संपोलों को पालने पर खर्च कर रही है, उसका हिसाब दे, तो क्या हो? सोचो कि तुम्हारी चरस का इंतजाम फिर कहाँ से होगा?

जिनके लिए तुम यह सब कर रहे हो न, वे तुम्हारे लिए अपनी जूठन से टुकड़े फेंकेंगे वे ज्यादा से ज्यादा हुक्के भर के लिए ही होंगे. पेट में ठूंसने के लिए रोटी और हुक्के में भरने के लिए चरस तुम्हें हमारे ही खून-पसीने के टैक्स से मिलना है.

और यह भी जान लो कि जिसे तुम हमारी कमजोरी समझते हो वह कोई कमजोरी नहीं, हमारा संस्कार है. हम तुमसे डरते नहीं साथी, हमें तुम पर तरस आता है. निर्दोष तो छोड़ो, हम बहुत बड़े दोषी के भी गंदे खून से अपने हाथ सानना नहीं चाहते. लेकिन जब सारी हदें पार हो ही जाती हैं तो फिर संभवामि युगे युगे तो तुम जानते ही हो.

प्लीज ऐसा न करो साथी कि हमें सहिष्णुता का हमारा संस्कार वाकई छोड़ना ही पड़ जाए.    



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