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Showing posts from January, 2012

vyangya banam mahila visheshank

                               व्यंग्य बनाम महिला विशेषांक                                                                                      -हरिशंकर  राढ़ी (दूसरी किश्त ) ( यह व्यंग्य  समकालीन अभिव्यक्ति के नारी विशेषांक के 'वक्रोक्ति ' स्तम्भ के लिए लिखा गया था और अप्रैल -अक्टूबर २०११ अंक में प्रकाशित हुआ था .) ''व्यंग्यकार हो सका हूँ? अरे यह क्यों नहीं कहते कि जिनके कारण जिन्दगी स्वयं व्यंग्य हो चुकी है उसी पर व्यंग्य लिखना है! चलिए, मान लिया कि श्रीमती जी पर व्यंग्य लिख भी दूँ, फिर इस बात की क्या गारंटी है कि मेरे प्राण संकट में नहीं होंगे? मैं अपनी ही छत के नीचे अपरिचित नहीं हो जाऊँगा? अच्छी खासी दो रोटी मिल रही है, वह भी मुश्किल  हो जाएगी। कोई अंगरेजी लेखक भी नहीं हूँ कि प्रकाशक  इतनी रायल्टी दे देगें कि ढाबा ही अफोर्ड कर लूँ। या फिर इस बात की क्या गारंटी कि मेरे विरुद्ध प्रदर्शन  नहीं होगा या कानून नहीं उठ खड़ा होगा? सिर को मूड  कह देने से कोई बड़ा  फर्क पड  जाएगा क्या? क्या मेरी पत्नी महिला नहीं है?'' ''यहीं आप सचमुच में गच्चा खा गए

mahila banaam mahila visheshank

व्यंग्य                                      व्यंग्य बनाम महिला विशेषांक                                                                              -हरिशंकर  राढ़ी         उस दिन संपादक जी पधारे तो प्रकाश्य  महिला  विशेषांक  हेतु उपलब्ध सामग्री पर व्यापक चर्चा हुई। यहाँ तक तो गनीमत थी किन्तु चर्चा के उपसंहार रूप में उनका आदेशात्मक  आग्रह हुआ,''इस बार तुम्हारी वक्रोक्ति महिला  विशेषांक  या महिलाओं पर केन्द्रित होनी चाहिए , इस बात को ध्यान में रखकर ही कुछ लिखना ।'' मुझे काटो तो खून नहीं। मुझे संदेह हुआ- कहीं संपादक का दिमाग तो कुछ खिसक नहीं गया है। इनके मन में कब क्या आ जाएगा , भगवान भी नहीं जान सकता। हठात्‌ पूछ ही बैठा,'' व्यंग्य पर व्यंग्य लिखना ? ये कैसे सम्भव है ? कभी भी और कहीं भी आपने ऐसा व्यंग्य पढ़ा है क्या ? इससे अच्छा तो आप सीधे यही कह देते कि फांसी पर चढ  जाओ। सीधी सी बात कि आप वक्रोक्ति स्तंभ या तो बंद करना चाहते हैं या मुझसे छीनना चाहते हैं। जब मुझसे पूर्ववर्ती नेमी -टेमी और विशिष्ट  व्यंग्यकार इस समस्या पर लिखने की हिम्मत नहीं जुटा सके तो

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