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व्यंग्य

                                     व्यंग्य बनाम महिला विशेषांक 
                                                                            -हरिशंकर  राढ़ी

        उस दिन संपादक जी पधारे तो प्रकाश्य  महिला  विशेषांक  हेतु उपलब्ध सामग्री पर व्यापक चर्चा हुई। यहाँ तक तो गनीमत थी किन्तु चर्चा के उपसंहार रूप में उनका आदेशात्मक  आग्रह हुआ,''इस बार तुम्हारी वक्रोक्ति महिला  विशेषांक  या महिलाओं पर केन्द्रित होनी चाहिए , इस बात को ध्यान में रखकर ही कुछ लिखना ।''

मुझे काटो तो खून नहीं। मुझे संदेह हुआ- कहीं संपादक का दिमाग तो कुछ खिसक नहीं गया है। इनके मन में कब क्या आ जाएगा , भगवान भी नहीं जान सकता। हठात्‌ पूछ ही बैठा,'' व्यंग्य पर व्यंग्य लिखना ? ये कैसे सम्भव है ? कभी भी और कहीं भी आपने ऐसा व्यंग्य पढ़ा है क्या ? इससे अच्छा तो आप सीधे यही कह देते कि फांसी पर चढ  जाओ। सीधी सी बात कि आप वक्रोक्ति स्तंभ या तो बंद करना चाहते हैं या मुझसे छीनना चाहते हैं। जब मुझसे पूर्ववर्ती नेमी -टेमी और विशिष्ट  व्यंग्यकार इस समस्या पर लिखने की हिम्मत नहीं जुटा सके तो मेरी क्या औकात है? महोदय, जब हरिशंकर  परसाई जैसे व्यंग्य सेनापति इस मुद्‌दे पर चुप्पी साध गए तो -हरिशंकर  राढ़ी किस खेत की मूली हैं? नाम का एक हिस्सा मात्र एक समान होने से मुझे आपने  -हरिशंकर  परसाई समझ लिया क्या ? राम नाम रख लेने से हर कोई राम हो जाता है ? भइया, गधे का नाम घोड़ा  रख देने से वह घोड़ा  थोडे  ही हो जाता है !''
       मगर संपादक जी एक सधे हुए अफसर की भांति टस से मस नहीं हुए। बिलकुल संवैधानिक स्वर में शब्द  बाहर आए- यह आपकी समस्या है, आप जानें परन्तु वक्रोक्ति जाएगी इस बार तो महिला या महिला विशेषांक  पर ही जाएगी। और इस अंदाज में उठ गए जैसे कोई फिल्मी न्यायाधीश  इस टिप्पणी के साथ उठ रहा हो कि 'द कोर्ट इज एडजर्न्ड '।
      और कोई होता तो मैं न जाने क्या - क्या कहता । मगर मैं जानता था कि सामने वाला व्यक्ति कोई सामान्य जन नहीं, संपादक है। किसी को बनाना और किसी को मिटा देना इनके बाएं हाथ का खेल है या इनकी हॉबी भी आप कह सकते हैं। एक लेखक किसी संपादक की अवज्ञा करे तो इसे जल में रहकर मगर से बैर करना कहते हैं। कौन साहित्यकार बनेगा , कौन नहीं बनेगा , यह निर्णय और निर्धारण संपादक के ही हाथ है। आप यों भी कह सकते हैं कि साहित्यकारों की भर्ती इसी वर्ग के जिम्मे है। संपादक यानी साहित्यकारों का संघ लोक सेवा आयोग ! कौन क्वालिफाई करेगा, क्या मेरिट जाएगी, किसे आरक्षण मिलेगा और किसे नियुक्ति मिलेगी, यह सब इनके विवेकाधीन (?) है। इतिहास साक्षी है कि इन्होंने तो मुंशी  प्रेमचन्द और 'निराला' जैसे लोगों की रचनाएं वापस कर दीं और साहित्यकार होने का प्रमाणपत्र नहीं दिया। यह बात अलग है कि वे बिना संपादकीय सहमति के साहित्यकार बन गए।  इनका महत्त्व अब तो राजनेता भी समझने लगे हैं। जहां सरकार गांधी दर्शन  और योग दर्शन  के पुरोधाओं को अनशन  तक नहीं करने दे रही है, बल भर जुतिया -लतिया रही है वहीं सरकारी मुखिया चुनिंदा संपादकों की आवभगत के लिए विशेष  व्यवस्था में संलग्न है । फिर वही बात कि तब मेरी क्या औकात ?

       ऐसी दुखःद स्थिति में मुझे बालसखा घसीटादास की याद आना परम स्वाभाविक है। संपादक तो वे भी हैं किन्तु एक व्यावसायिक पत्रिका के । पत्रकारिता और लेखन के सारे टोटके आपने सिद्ध कर रखे हैं। यह आप जी०डी० 'हंस' साहब की मुझ पर कृपा भी मान सकते हैं कि वे मुझे अपना समझते हैं और बिना किसी संपादकीय तामझाम के अंदरूनी भेद भी बता देते हैं। शुरुआत  में तो उन्होंने कहा कि व्यंजन, कढ़ाई - बुनाई , फैशन , हेअर स्टाइल, पैरों की देखभाल, त्वचा की देखभाल, पति या प्रेमी को कैसे रिझाएं, सेफ सेक्स, प्रेग्नेन्सी और राशिफल  वगैरह पर कुछ भी लिख दो; हो गया महिला विशेषांक। पर जब बड़े  चिढ़े  और दुखी मन से मैंने उन्हें समझाया कि हम लोग कोई महिला पत्रिका नहीं बल्कि साहित्यिक पत्रिका का नारी विशेषांक निकाल रहे हैं तब उन्हें स्थिति की गंभीरता का एहसास  हुआ । बोले- ''हाँ, समस्या तो गंभीर है । आखिर आप भी समय के प्रवाह में बहकर महिला विशेषांक तक आ ही गए ! विनाशकाले  विपरीत बुद्धिः! महिला या महिला विशेषांक पर वक्रोक्ति लिखना और किसी माफिया को चुनौती देना एक ही बात है। फिर भी ऐसा नहीं है कि रास्ता निकल नहीं सकता । आखिर लोग-बाग ऐसे विषयों  पर लिखकर वाहवाही लूट ही रहे हैं।''
मुझे लगा कि घसीटा दास लेखन और व्यंग्य लेखन के अन्तर को समझ ही नहीं रहे हैं। मैंने कहा - ''भाई घसीटा जी , यहाँ प्रश्न  लेखन का नहीं अपितु व्यंग्य लेखन का है। वरना इनकी वकालत कर - करके कितने लोग समाजसेवक और एन०जी० ओ० अध्यक्ष तक हो गए हैं। मलाई काट रहे हैं और दोनों प्रकार से जीवन सफल बना रहे हैं। मेरी समस्या यह है कि मुझे इस मुद्‌दे पर वक्रोक्ति स्तम्भ के लिए लिखना है। व्यंग्य तो सदैव विसंगतियों एवं विडम्बनाओं पर लिखा जाता है, मन-वचन और कर्म में आए अन्तर पर लिखा जाता है, पाखंड और चतुराई पर लिखा जाता है। इस मुद्‌दे पर मैं क्या लिखूँ ?''

          'तब तो कोई समस्या ही नहीं है। इससे अच्छा विषय  और कहाँ मिलेगा व्यंग्य के लिए?' शायद  यही मंतव्य रहा होगा घसीटा दास की उस कुटिल चितवन का जिसे उन्होंने अपने मुखारविन्द से व्यक्त करना उचित नहीं समझा होगा।
       थोड़ी देर निविड  अन्धकार और सन्नाटे जैसी स्थिति बनी रही। जी०डी० 'हंस' साहब ने एक अर्थवान खंखार मारी और बोले- ''महिलाओं पर लिख तो सकते हो बशर्ते  सत्य हरिश्चंद  बनने की कोशिश  न करो। अन्य मुद्‌दों की भांति इस पर भी जो मन में आया लिखते गए तो परेशानी  होनी ही है। अगर अनुभव की बात मानी तो फंसना होगा, अनुभूति के धरातल पर रहे तो बाजी तुम्हारे ही हाथ रहेगी। साँप भी मर जाएगा और लाठी भी साबुत रहेगी। दरअसल इस वर्ग के परिप्रेक्ष्य में अनुभूतियों तक ही सीमित रहना ज्यादा मजेदार होता है।''
       मुझे सत्य हरिश्चंद  वाला कटाक्ष थोड़ा  चुभा तो जरूर पर मन मोटा करके बोला,'' झूठ किसी तरह लिख भी दूँ पर आपने कभी झूठ और व्यंग्य में कोई सामंजस्य देखा  है क्या ? इतना तो आप भी जानते ही होंगे कि झूठ के ऊपर लिखा गया सत्य ही व्यंग्य होता है। व्यंग्यकार को तो मजबूरन सत्य का आश्रय लेना पड ता है। अन्यथा उसे क्या शौक  लगा है कि जिस नेता-अभिनेता, अफसर और धनसर की विरुदावली गा-गाकर लोग लोक-परलोक सुधार रहे हैं, उसी की निन्दा कर वह अपनी कब्र खोदे ? बेचारा जिन्दगी भर व्यंग्य की कलम घिसता रह जाता है और मोहल्ला पुरस्कार भी नहीं पाता। दूसरी तरफ दो-दो शब्दों  की लाइन या सोलह-सत्रह अक्षरों की कविता लिखने वाले अकादमी पुरस्कारों के दावेदार बन जाते हैं। देखा है आपने आज तक किसी व्यंग्यकार को नोबल पुरस्कार पाते हुए ? भाई साहब, बात को समझिए। मुझे व्यंग्य लिखना है, विरुदावली नहीं कि अनुप्रास अलंकार से काम चल जाएगा।''

        ''तो आप एक काम करो - भाभी जी यानी अपनी पत्नी पर लिख डालो। एक तीर से दो शिकार । अपनी पत्नी को भी आसानी से निपटा लोगे और महिलाओं से भी खुन्नस निकल जाएगी।''
    ''मगर वह व्यंग्य समझती तो नहीं। उस पर लिख कर ही क्या करूँगा?''मैंने शंका  प्रकट की।
     ''अजीब बात है भाई ! आप क्या सोचते हैं कि जिनपर आप व्यंग्य लिखते हैं वे सभी समझ जाते हैं? अभी आपने कुत्तों पर लिखा था, उसे कितने कुत्तों ने समझा ?''
    ''मुझे लगता है कि जिन कुत्तों के लिए मैंने लिखा था, वे समझ ही गए होंगे।''
     ''कदापि नहीं। अगर आपका व्यंग्य कुत्ते समझ जाते तो कुत्तागीरी छोड़ चुके होते अब तक !आपको प्रैक्टिकल नॉलेज बिलकुल है ही नहीं। दारू तक छूट जाती है परन्तु दुनिया के किसी देश  में कुत्तागीरी और नेतागीरी नहीं छूटती ! परसाई से लेकर आजतक की आपकी बिरादरी नेताओं, पुलिस, पाखंडियों और न जाने किस-किसके खिलाफ मोर्चा लेने का दंभ पालती रही, किसी पर कोई असर पड़ा  क्या ? मेरी मानो, पत्नी पर लिख डालो। व्यंग्य भी हो जाएगा और संपादक से भी जान बचेगी। वैसे भी आप भाभी जी के भरोसे व्यंग्यकार हो सके हैं। एहसान तो मानना ही चाहिए।''
 शेष अगली किश्त में ...........





Comments

  1. कुछ क्षेत्रों में व्यंग की कलम घुसेड़ने के पहले बहुत बार सोचना पड़ता है।

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