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आत्मीयता की त्रासदी :बेघर हुए अलाव

परिवर्तन,क्षरण ,ह्रास या स्खलन प्रकृति के नियम हैं और प्रकृति में ऐसा होना सहज और स्वाभाविक होता है किन्तु यही प्रक्रिया जब समाज में होने शुरू हो जाती है तो वह समूची मानव जाति के लिए घातक हो जाती है मानवीय मूल्यों से विचलन, अपनी ही संस्कृति के उपहास और आधुनिकता की अंधी दौड़ में हम शायद बहुत आगे निकल गए हैं परिवर्तन की लहर आई है और सर्वत्र विकास ही दिख रहा है विकास गांवों का भी हुआ है किन्तु विकास के रासायनिक उर्वरक ने मिट्टी की अपनी गंध छीन ली है उस हवा में अब वह अपनत्व नहीं है जो हर रीतेपन को सहज ही भर लेता था भारत के गांव थे ही संस्कृति एवं परम्परा के पोषक! भोजपुरी भाषी क्षेत्र के गांव तो सदैव ही ऐसे थे जहां निर्धनता के कीचड़ मे आदर्श एवं आत्मीयता के कमल खिलते रहे अब ये गांव आत्मीयता का विचलन देख रहे हैं, समृद्ध परम्पराएं टूट रही हैं और अपनी संस्कृति से जुड़े लोगों के मन में टीस पैदा हो रही है। संभवतः ऐसी ही टीस की उपज है ओम धीरज का नवगीत संग्रह-“बेघर हुए अलाव” संवेदनशीलता ही कवि पूंजी होती है गांव के अपनत्व ,मिट्टी के मोह,और परम्पराओं के प्रति ओम धीरज काफी संवेदनशील हैं...

वो कौन ?

हरीश के घर से जब निकला तो अँधेरा होने को था । उसने समझाया कि मेरी मोटर साइकिल के व्हील ख़राब है अतः सुबह निकलूँ । फ़िर मार्गो की जानकारी भी मुझे ठीक से नहीं है, भटक जाऊंगा । लेकिन मैं नहीं माना, ‘ लाइफ का रियल मज़ा तो थोड़ा सा भटक जाने में ही है । जो होगा देखा जाएगा ।’ मैनें व्हील चेक करने की दृष्टि से लापरवाहीपूर्वक एक लात गाड़ी में जमा दी । चेविन्गुम का एक टुकडा मुंह में डाला और मोटर - साइकिल का कान उमेंठ दिया । निकलते- निकलते हरीश शायद भाभी के बारे मैं ज़ोर -ज़ोर से चींख कर कुछ बताना चाहता था लेकिन मोटर – साइकिल की आवाज़ में कुछ समझ न सका । मैं आगे निकल गया था और गाड़ी फर्राटे भर रही थी । सरपट भागते हुए काफी देर हो गई थी । घड़ी में झाँका, रात्री के बारह बज रहे थे । काली नागिन सी रोड घाटी प्रारम्भ होनें की सूचना दे रही थी । रोड के किनारे खडे मील के सफ़ेद पत्थर पर 'घाटी प्रारम्भ 55 कि.मी.' स्पष्ट देखाई देता था । रात स्याह हो चली थी । लगता था राक्षसि बादलों ने चाँद को ज़बरन छिपा रखा हो । दूर कहीं रहस्यमयी संतूर बज रहा था । मैं चोंका ! क्या मोटर - साइकिल का एफ़ एम ऑन हो गया ? ...

तुम कविता हो

प्रिये ! तुमने तो शुरु से ही एक कविता का जीवन जिया है, बस समय, भाव एवं परिस्थितियों ने तुम्हारा किरदार बदल दिया है। पहले जब मैं अबोध था, तुम चंचल किंतु वात्सल्य रस से भरी बालगीत लगती थी। धीरे- धीरे गेयता का पुट आया तो तुम कवित्त, घनाक्षरी और सवैया लगने लगी । क्रमशः तुम श्रृंगार रस में पग गई, अन्य सभी रस गौड.हो गये और बाह्य साहित्य के प्रभाव में प्यार भरी गज़ल हो गई। एक दिन अज़ीब सी कल्पना हुई और तुम मुझे समस्यापूर्ति लगने लगी। मुझे लगा मैं कुछ भूल रहा हूं कस्तूरी मृग की भांति व्यर्थ ही इधर उधर कुछ ढूंढ रहा हूं तुम तो तुलसी की चौपाई हो, मेरी अंतरात्मा में गहराई तक समाई हो। पाश्चात्य सभ्यता का युग आया मुझे लगा तुम छन्दमुक्त हो गई हो, उन्मुक्त हो गई हो , वर्जनाएं समाप्त हो गई हैं तुम्हारा शास्त्रीय स्वरूप बदल गया है पंक्तियों का आकार परिवर्तित हो गया है कहीं क्षीण तो कहीं स्थूल हो गई हो, तुममें अब वीणा का अनुनाद नहीं है नादयंत्र की थाप है पर इस मुक्ति के कारण तुम प्रवहमान हो गई हो, ताज़गी लिये चलती हो तुम्हारा यह उन्मुक्त रूप मैनें प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार कर लिया है हां,शर्त यह जरूर है कि तु...

बिना लाइन की पटरी

धड़ड़...धड़ड़..धड़ड़ धड़ड़...धड़ड़..धड़ड़ ...धड़ड़..धड़ड़ पटरियों पर लोकर ट्रेन दोनों तरफ से सांप की तरह बल खाती हुई निकल रही थी। सोम, रोहन और नाथू गुमटी के पास उतर कर पटरियों के किनारे-किनारे एक ओर अंधेरे में बढ़ रहे थे। रेल्वे की बांड्री के दूसरी तरफ खड़ा एक सात मंजिला बिल्डिंग की खिड़कियों से निकलने वाली रोशनी अंधरे को धीरे-धीरे चाट रहा था। बांड्री के इस ओर कतारबद्ध तरीके से इंटों के छोटी-छोटी कोठरियां बनी हुई थी, जिनमें खिड़कियां नहीं थी। पटरियां बैठाने वाले मजदूरों के परिवार इन्हीं कोठरियों में टिके हुये हुये थे। अंधेरे में आगे बढ़ते हुये सोम का पैर एक बड़े से पत्थर से टकराया और इसके साथ ही उसके हाथ में पड़े पोलीथीन के बैग से आपस में बोतलों के खनखनाने की आवाज अंधेरे में तेजी से फैल कर गुम हो गई। अबे देख के....केएलपीडी करेगा क्या..., अंधेरे में संभलते हुये सोम की ओर घूरते हुये नाथू गुर्राया। चिंता मत कर....मेरे नाक मुंह टूट जाये, लेकिन ये बोतल नहीं टूटेंगे...पोलीथीन के बैग में हाथ डालकर बोतलों को टटोलते हुये सोम ने तसल्ली दी। कुछ चखना ले लेना चाहिये था....आगे बढ़ते हुये नाथू ...

प्रयोग से गुजरने की जिद तुम्हे भी है, मुझे भी...

शब्द अपने संकेत और ध्वनि खो देते हैं, रश्मियों का उभरना भी बंद हो जाता है... विरोधाभाषी शंकायें एक दूसरे की हत्या करते हुये समाप्त होते जाती हैं... आंखों के सामने बहुत कुछ दौड़ता है लेकिन दिखाई नहीं देता...... बाहर का शोर अंदर नहीं आता ..................सब कुछ सपाट। पता ही नहीं चलता...शून्य में मैं हूं या मुझमें शून्य है.... मीलों आगे निकलने के बाद अहसास होता है मंजिल के पीछे छूटने का.... और फिर मंजिल भी अपने अर्थ खो देता है... मंजिल सफर का शर्त नहीं हो सकता... इस रहस्य को मैं गहराई से समझता हूं, अनजाने रास्तों पर भटकने की बात ही कुछ और है... कोलंबस के सफर की तरह...उनमुक्त और बेफिक्र..., शून्य के परे तुम उभरती हो, एक दबी सी मुस्कान के साथ... खाली कैनवास पर रंग खुद चटकने लगते हैं... तुम एक रहस्मयी धुन में गुनगुनाती हो... और खींच ले जाती हो मुझे ओस में लिपटे एक तैरते द्वीप पर... रात सफर में हो तो सुबह आ ही जाती है.... प्रयोग से गुजरने की जिद तुम्हे भी है, मुझे भी...

क्यों न रोएँ ?

शीर्षक पढ़ते ही आपने मुझे निराशावादी मान लिया होगा। किसी तरह कलेजा मजबूत करके मैं कह सकता हूँ कि मैं निराशावादी नहीं ,आशावादी हूँ। पर मेरे या आपके ऐसा कह देने से इस प्रश्न का अस्तित्व समाप्त नहीं हो जाता। सच तो यह है कि आशावाद के झूठे सहारे हम अपने जीवन का एक बडा हिस्सा निकाल लेते हैं। इसमें कोई बुराई भी नहीं है। पर आंसू भी कम बलवान नहीं होते और कई बार हम अपने आंसुओं को दबाने के असफल प्रयास में भी रो पड़ते हैं। चलिए, माना हमें रोना नहीं चाहिए, लेकिन क्या इतना कह देने से रोने की स्थितियां उलट जाएंगी ?क्या हर भोले-भाले और निर्दोष चेहरे पर असली हँसी आ जाएगी ? कहाँ से शुरू करें ?अभी कल की बात है, बाजार गया था। किराने की एक बड़ी सी दूकान पर एक मजदूर ने दाल का भाव पूछा। चैरासी रुपये किलो! बेचारे का चेहरा उतर गया। “पाव कितने की हुई ?”इक्कीस रुपये। डरता हुआ सा वह धीरे से वापस चला गया। मैं सोचने को विवश हो गया कि आज वह परिवार क्या खाएगा? कई दिनों बाद सौ रुपये की दिहाड़ी लगाने वाला मजदूरकिस कलेजे से अपनी ”आय” का एक चैथाई एक वक्त की दाल पर खर्च कर देगा ? अब दाल रोटी से नीचे क्या है! शायद न...

एक श्रद्धांजलि उन्हें भी

कल उनका अन्तिम संस्कार हो गया। माफी चाहूंगा ,वहां इसे संस्कार नहीं बोलते। संस्कार वहां होते ही नहीं। यूँ समझिए कि क्रिया-कर्म हो गए। दफना दिए गए।लगभग दो सप्ताह तक यूँ ही पड़े रहे। मृत शरीर को देखकर कोई पुत्र, कोई पत्नी तो कोई वास्तविक उत्तराधिकारी होने का दावा कर रहा था।गनीमत थी कि क्रिया कर्म हो गया। ऐसा विवाद अपने देश में होता और कोर्टकेस हो जाता तो मिट्टी भी नहीं मिलती बेचारी काया को! खैर, क्रिया कर्म बड़ा शानदार हुआ।उनका जीवन भी तो बड़ा शानदार था।कई लोग उन्हें जिन्दा देखकर मरे, कई मरने के बाद मर गए।मुझे समझ नहीं आया।मानसिक मृत्यु के बाद ऐसे 12 लोगों को शारीरिक आत्महत्या की क्या आवश्यकता थी?परन्तु वे उनके फैन थे और फैन को कुछ भी करने का अधिकार होता है ।बहरहाल , उनके क्रियाकर्म पर विशाल जलसा हुआ- रंगारंग कार्यक्रम पेश किए गए।गाने गाए गए, डांस हुआ। शमशान भी गूंज उठा।उस मस्ती में कहां की वसीयत और कहां की आत्महत्या! सारे विवाद संगीत में डूब गए। जिस ताबूत में वे दफनाए गए,सुना कि बेशकीमती था। कीमती चीजों से उन्हें गहरा लगाव था।उसी के लिए जिए वे!जो भी किया ,बहुत बड़ा किय...

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