हिन्दी भूखड़ों की भाषा है

मेरे एक पत्रकर मित्र हैं, हिन्दी में एम किया है। अक्सर वह बोलते थे, अच्छा होता प्रेमचंद के बजाय शेक्सपीयर को पढ़ा होता। हिंदी पढ़कर तो किसी घाट के नहीं रहे। शुरु-शुरु में तो जिस भी अखबार में नौकरी करने गया, यही पूछा गया कि अंग्रेजी से हिंदी में अनुवाद कर लेते हो,कई जगहों पर तो अंग्रेजी न आने की वजह से नौकरी ही नहीं मिली। और मिली भी तो पैसे इतने कम मिलते थे कि समझ में नहीं आता था कि उससे घर का किराया दूं या फिर रोटी का जुगाड़ करूं। सौभाग्य से उस मित्र की शादी एक ऐसी लड़की से हो गई जो अंग्रेजी में एम ए कर रखी है। कभी-कभी फोन पर बात होती है तो उन्हें छेड़ देता हूं कि अब तो आपकी अंग्रेजी ठीक हो जानी चाहिये। वह हंसते हुये जवाब देते हैं कि अब अंग्रेजी ठीक करके ही क्या करूंगा। फिर वह थोड़ा गंभीर होकर कहते हैं कि आप मानिये या ना मानिये लेकिन हिंदी में पैसे नहीं है। यह भूखड़ों की भाषा है।
मुंबई में बहुत सारी कंपनियां हैं। इनमें से अधिकतर अपना काम अंग्रेजी में करती हैं। जनसंपर्क वाले अभियान में यह हिंदी का तो इस्तेमाल करती हैं, लेकिन अंग्रेजी से अनुवाद की गई हिंदी का। नीति निर्धारण और प्रचार प्रसार के मसौदे अंग्रेजी में तैयार होते हैं, और फिर उन्हें अनुवाद के लिए किसी ट्रांसलेशन एंजेसी के पास भेजा जाता है। मजे की बात है कि ट्रांसलेशन एजेंसी में अंग्रेजी से हिंदी में अनुवाद करने का दर अंग्रेजी से गुजराती, मराठी व अन्य दक्षिण भारतीय भाषाओं में अनुवाद करने की दर की तुलना में काफी कम है। इस तथ्य से उस मित्र की बात की पुष्टि ही होती है कि वाकई में हिन्दी भूखड़ों की भाषा है।
यह सच है कि हिंदी फिल्मों और धारावाहिकों का एक व्यापक बाजार है, लेकिन इसमें काम करने वाले लोग अंग्रेजीजदा हैं। वे सोचते अंग्रेजी में हैं, लेकिन उत्पाद हिंदी में देते हैं। अधिकतर धारावाहिकों और फिल्मों के स्क्रीप्ट अंग्रेजी में लिखे जाते हैं, तर्क यह दिया जाता है कि फिल्म में काम करने वाले सभी लोग देश के विभिन्न कोने से आते हैं और उन्हें हिन्दी समझ में नहीं आती है। ऐसे में यह जरूरी है कि स्क्रीप्ट अंग्रेजी में ही लिखे जाये। इसके साथ-साथ डायलाग भी रोमन हिन्दी में लिखे जाते हैं, कम से कम धारावाहिकों के डायलाग तो रोमन हिन्दी में तो लिखे ही जाते हैं। ऐसे में यदि आप अंग्रेजी नहीं जानते हैं तो निसंदेह आपको फिल्म जगत में काम करने में मुश्किलों का सामना करना होगा। यदि इनका बस चले तो हिन्दी के गीत भी ये लोग रोमन हिन्दी में ही लिखवाये। हिन्दी के साथ निरंतर बलात्कार किये जाने का मुख्य कारण यही है कि हिन्दी को अभी भी आर्थिक तौर पर बाजार के मुख्य भाषा के रूप में स्वीकार नहीं किया जा रहा है। विभिन्न स्तरों पर हिन्दी का नेतृत्व वही लोग कर पाने में सक्षम है, जिनकी अंग्रेजी भी सामान्यरूप से दुरुस्त है, और जिनको हिन्दी नहीं आती है और अंग्रेजी पर अधकचड़ी पकड़ है वे तो हिन्दी को कुत्ते की तरह दुत्कारने वाली मानसिकता से पीड़ित है। उन्हें यही लगता है कि हिन्दी बोलने वाले लोग अव्वल दर्जे के मूर्ख हैं, और उनकी काबिलियत दो कौड़ी है।
आप किसी भी नगर या कस्बे में चले जाइये। जगह जगह आपको अंग्रेजी सीखाने वाले संस्थान मिलेंगे। मानसिकतौर पर लोगों के दिमाग में यह बात बैठी हुई है कि अंग्रेजी जानने के बाद उन्हें जल्दी काम मिल जाएगा या फिर काम में तरक्की मिलेगी। और यदि ऐसा नहीं भी है तो अंग्रेजी बोलने के बाद उनका सामाजिक रूतबा तो बढ़ ही जाएगा। यानि अंग्रेजी हिन्दी की तुलना में आर्थिक लाभ के साथ-साथ सामाजिक सम्मान की गारंटी देने का भ्रम पैदा करता है।
हिन्दी में विज्ञान और गणित की पुस्तकों का अभाव मैंने कालेज के दिनों में महसूस किया था। हिन्दीं में इन विषयों पर किताबें थी लेकिन अंग्रेजी इस मामले में कहीं ज्यादा समृद्ध था। वैसे हिन्दी में छपे गेस पेपरों की बिक्री अंग्रेजी की किताबों से अधिक थी। मामला स्पष्ट था, सस्ते में गेस पेपर खरीदो और अंदर परीक्षा हाल में बैठ कर छाप दो। भौतिक, रसायन और जीव विज्ञान की किताबों के साथ भी यही हाल था। इन विषयों में हिन्दी की तुलना में अंग्रेजी कहीं ज्यादा समृद्ध था। इसका एक मात्र कारण तीन सौ वर्षों तक भारत पर अंग्रेजों का शासन है। व्यवस्थित स्कूल और कालेज अंग्रेजों की ही देन है। अत यह स्वाभाविक है कि शिक्षण संस्थाओं में अंग्रेजी का वर्चस्व रहेगा ही।
नेट दुनिया में हिन्दी का प्रदर्शन वाकई में मन को मोहने वाला है। लोग ताबड़ तोड़ हिन्दी लिख रहे हैं, और अब तक हिन्दी में लिखी गई अच्छी चीजों को भी सामने ला रहे हैं। अभिव्यक्ति के स्तर पर दुनिया का प्रत्येक भाषा अपने आप में समृद्ध होता है, रुकावट कम्युनिकेशन के स्तर पर है। नेट जगत तेजी से इस रूकावट को दूर कर रहा है। हिन्दी को प्रोफेशनल भाषा के रूप में स्थापित करने की जरूरत है। हिन्दी में काम का यदि ऊंचा दाम मिलेगा तो लोग इसे स्वत ही स्वीकार करेंगे। तब शायद कोई यह नहीं बोले की हिन्दी भूखड़ो की भाषा है।



Comments

  1. इसका एक मात्र कारण तीन सौ वर्षों तक भारत पर अंग्रेजों का शासन है। व्यवस्थित स्कूल और कालेज अंग्रेजों की ही देन है। अत यह स्वाभाविक है कि शिक्षण संस्थाओं में अंग्रेजी का वर्चस्व रहेगा ही।
    ओर जो इन तीन सॊ सालो से गुलामी के कीटाणू हमारे अंदर समा गये है, उन्हे निकालना कठिन है, यानि हम पीढी दर पीढी दिमागी तॊर पर गुलाम ही रहेगे.
    आप का लेख एक दम सटीक लगा.
    धन्यवाद

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  2. हिंदी दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ!!!
    यही सोच तो हिन्दी को नीचा दिखा रही है।

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  3. हिन्दी दिवस पर आपने अपनी टीस निकाल कर ही सही हिन्दी का समर्थन किया और कुछ मूलभूत कारणों पर प्रकाश डाला . दुख इस बात का है कि इसको पढेंगे भी हिन्दी वाले ही. जिन्हें आप दोषी मान रहे हैं वे इसके नजदीक भी नहीं जाएंगे .हिन्दी का उतना बुरा अंगरेज़ी और अंगरेज़ों ने नहीं किया जितना हिन्दी और हिन्दुस्तानियों ने किया है. आपके मित्र की बात सही है कि यहां इज़्ज़त अंगरेज़ी वालों की ज़्यादा है. विरोध अंगरेज़ी भाषा नहीं, मानसिकता का होना चाहिये. भैया, अंगरेज़ी में एम. ए. मैंने भी किया है पर लिख तो हिन्दी में रहा हूँ,आपके सामने ही कितने दिनों से!

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  4. आप को हिदी दिवस पर हार्दीक शुभकामनाऍ।

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  5. aalok jee aap sahee hain yah sawaal raahul sankrityaayaan ne bhee uthaya tha.kintu likhte rahe.jis tarah hindee me bahas krne vaale vakeel ko achchhee fees naheen miltee usee tarah angrezee me bahas kee acchchhe fees miltee hai.asal men apnee khamee chhiopane ke lie aisee bhasha apnaaee jaatee haijisse pol na khule.

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  6. भाई विनय ओझा से पूरी सहमति. एक बात और, सिर्फ़ हिन्दी-हिन्दी चिल्लाने से कुछ होने वाला नहीं है. हक़ीक़त यह है कि अंग्रेजी ऐसे लोगों की भाषा है जिन्हें जूते चलाने आते हैं. हिन्दी के लोग सिर्फ़ जूते खाने जानते हैं. सच तो यह है कि अभी हिन्दी वालों को जूते पहनने भी ढंग से नहीं आते हैं. अब ज़रूरत इस बात की है कि हिन्दी वाले पहले तो जूते पहनने की कला ढंग से सीखें और फिर जूते चलाने पर जुटें. फिर देखिए कैसे होता है हिन्दी का सम्पूर्ण विकास!

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  7. कुकुर को देखा है भाई साहब आपने.....मालिक जिस भाषा में बतियाता है उसी भाषा के आरोहों अवरोहों के पीछे वह दुम हिलाता है...चाहे उसकी अपनी भाषा कुछ भी हो...जब अन्नदाता अंग्रेज हों तो उन्ही की भाषा में ही न बतियाना पड़ेगा...

    आज अंगरेजी संभाषण ही योग्यता की कसौटी है...खून में इतने गहरे यह बात उतर चुकी है कि हिंदी का उद्धार भी अब संभवतः पश्चिम ही करेगा कुछ दशकों,बाद इसका पेटेंट अपने नाम कराके..

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  8. हिन्दी का गौरव हम सब जानते हैं .. हैपी ब्लॉगिंग

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  9. प्रिय बन्धु
    लेख तो बहुत सटीक लिखा है मगर मेरी चिंता दूसरी है
    इष्टदेव जी के सर से अभी 'जूता पुराण' का भूत उतारा नहीं है ,चलिए उन्हीं की राय मान लेते हैं ,हिन्दी विश्व विद्यालय में दो कक्षाएं खोलने का अभियान छेड़ते हैं ,एक जूता पहनना सिखायेगी ,दूसरी जूता चलाना [हिन्दी बोलने वालों के लिए]
    मेरा समर्थन है

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  10. हिन्दी भूखड़ो की भाषा है, शीर्षक पढ़कर मन खिन्न हो गया.
    अपनी प्रतिक्रिया भारतेंदु हरिश्चंद्र के इस दोहे में कि -

    अंगरेजी पढ़ जदपि, सब गुण होत प्रवीण .
    पै निज-भाषा ज्ञान बिन, रहत हीन के हीन ..

    [] राकेश 'सोहम'

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  14. अज्ञात भाई, 6 पैग का नशा आपके कामेंट्स ने उतार दिया...आप कहना क्या चाह रहे हैं अभी तक मैं समझ नहीं पाया हूं....शायद दूसरे भाई और बहिन लोग समझ जाये....एक राज की बात बताता हूं विदेशी दारू पीने के बाद दिमाग अंग्रेजी में चलता है, और देसी दारू पीने के बाद पूरी तरह से देसी में....लेकिन जब वाकई में हिंदी के बारे में प्रैक्टिकल लेवल पर चल रहे दोहन को देखता हूं ,तो लगता है कि....खैर रहने दिजीये....हिन्दी को लाना है तो पार्लियामेंट का डोकोमेंटेशन हिन्दी में करवाने की प्रक्रिया की शुरुआत की जाय...

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