क्यों न रोएँ ?

शीर्षक पढ़ते ही आपने मुझे निराशावादी मान लिया होगा। किसी तरह कलेजा मजबूत करके मैं कह सकता हूँ कि मैं निराशावादी नहीं ,आशावादी हूँ। पर मेरे या आपके ऐसा कह देने से इस प्रश्न का अस्तित्व समाप्त नहीं हो जाता। सच तो यह है कि आशावाद के झूठे सहारे हम अपने जीवन का एक बडा हिस्सा निकाल लेते हैं। इसमें कोई बुराई भी नहीं है। पर आंसू भी कम बलवान नहीं होते और कई बार हम अपने आंसुओं को दबाने के असफल प्रयास में भी रो पड़ते हैं। चलिए, माना हमें रोना नहीं चाहिए, लेकिन क्या इतना कह देने से रोने की स्थितियां उलट जाएंगी ?क्या हर भोले-भाले और निर्दोष चेहरे पर असली हँसी आ जाएगी ?
कहाँ से शुरू करें ?अभी कल की बात है, बाजार गया था। किराने की एक बड़ी सी दूकान पर एक मजदूर ने दाल का भाव पूछा। चैरासी रुपये किलो! बेचारे का चेहरा उतर गया। “पाव कितने की हुई ?”इक्कीस रुपये। डरता हुआ सा वह धीरे से वापस चला गया। मैं सोचने को विवश हो गया कि आज वह परिवार क्या खाएगा? कई दिनों बाद सौ रुपये की दिहाड़ी लगाने वाला मजदूरकिस कलेजे से अपनी ”आय” का एक चैथाई एक वक्त की दाल पर खर्च कर देगा ? अब दाल रोटी से नीचे क्या है! शायद नमक रोटी ! धीरे-धीरे नमक पर भी गाज गिरने लगी है । खुला नमक प्रतिबन्धित हो गया है। हानिकारक होता है ! घेंघा की बीमारी हो जाती है। हमें आपके स्वास्थ्य की चिन्ता है। आपको आयोडीन नमक खाना ही होगा, वरना आपके बच्चे मन्दबुद्धि पैदा होंगे। आयोडीन नमक पैकेट बन्द मिलता है । यह बात अलग है कि इस नमक पर बेचारे को दिहाड़ी का दस प्रतिशत खर्च करना पड़ता है। अब बेचारा नमक भी कहां से लाए? प्रेम चोपड़ा का एक डायलाग याद आता है- नंगा नहाएगा क्या और निचोड़ेगा क्या ?
विडम्बना तो यह है कि हमें उसके इस जीवन से भी जलन है। लाखों का टैक्स चोरी करने वाला “सभ्य ” नागरिक भी परेशान है, उसे मजदूर का “सुख चैन” देखा नहीं जाता- हमसे तो अच्छा मजदूर ही है,कल की चिन्ता नहीं। दाल रोटी खाकर चैन से सोता तो है! चलो भाई , नहीं खाएगा दाल रोटी।
सरकार बहुत सक्रिय है। उसने नरेगा( रोजगार गारंटी अधिनियम) बना दिया है। अब सारा हिन्दुस्तान सुखी होगा, सबको रोजगार जो मिल गया! फिर भी लोगों को लग रहा है कि महंगाई बढ़ रही है जबकि इसका कोई प्रमाण अभी तक उपलब्ध नहीं है।सारे सूचकांक नीचे गिरे पड़े हैं। रेपो रेट भी घट गया है। मुद्रास्फीति गिरकर कहां गई, पता ही नहीं लग रहा! अभी जून के आखिरी सप्ताह में महंगाई दर शून्य से भी नीचे चली गई थी और आप कह रहे हैं कि महंगाई बढ़ रही है ?पब्लिक झूठ बोलती है। उसे सब कुछ फ्री चाहिए। हमारा थर्मामीटर नहीं बता रहा कि आपको बुखार है तो कैसे मान लें ? आपका शरीर तप रहा हो तो आप जानें। आप रो नहीं रहे, आप नखरे कर रहे हैं। आप निराशावादी लगते हैं।
बड़े लोग हमेशा से कल्याण में लगे हैं। जैसा कि मैंने पहले कहा, आयोडीन से आप की सेहत सुधारी ,आपके लिए इन्होंने और भी कल्याणकारी काम किया। आपको याद न हो,ये बात अलग है । आपको भूलता भी तो बहुत जल्दी है! जहां आयोडीन खिलाकर आपको घेंघा से मुक्ति दिलाई और आपका बुद्धिवर्धन किया, वहीं कॅन्डोम की बिक्री बढ़ाकर आपको एड्स से बचाकर नया जीवन दिया। एड्स अच्छा आया। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर का कॅन्डोम अपने देश में आया ।बच्चा बच्चा एड्स के बारे में जान गया है।खुल के जियो, खुल के बात करो , खुल के यूज करो।रब जाने कब जरूरत पड़ जाए। उपलब्धता की गारंटी बढ़ा दी गई है। हर सार्वजनिक शौचालय पर जोश स्पॉट है। हमेशा जोश में रहो!
ददुआ को मारने में भले ही बावन घंटे लग जाएं, रणवीर सिंह (देहरादून इंकाउंटर मामले का शिकार ) को मार गिराने में बावन मिनट भी नहीं लगते!इसमें हमारा प्रषासन बड़ा तेज है।अब गाजियाबाद के उस परिवार के आँसू देखकर भी हमें नहीं रोना चाहिए।ऐसी छोटी मोटी घटनाएं तो होती ही रहती हैं। ये मैं नहीं कह रहा हूं ,एक बड़े नेता ने कहा था।
इसी से एक बात और याद आई। हमारे राज्य हमारी निजी सम्पत्ति हैं।बिना हमारे वीजा के आप यहां कैसे आ गए ? वह भी घूमने फिरने नहीं, नौकरी करने ?
जैसे तैसे जी भी रहे थे,पर ये टीवी न्यूज चैनल वाले जीने नहीं देते । डराते रहते हैं। पता नहीं कहां कहां से खबर जुटाते रहते हैं। जिसे घी समझ के खा लेते थे और बलवान होने का भ्रम पालकर खुश हो लेते थे, उसे इन्होंने यूरिया और सर्फ का अवलेह सिद्ध कर दिया, दूध को पेण्ट का उत्पाद साबित कर दिया। हमने भी अच्छा धंधा अपना लिया है। मैं आपको नकली घी दूध बेच दूं , आप मुझे नकली दवाई बेच देना। हिसाब बराबर! पर वो बेचारा गरीब क्या बेचेगा ? हाँ, याद आया, उसके पास गुरदा है। वो अपना गुरदा बेच देगा। दो चार दिन के लिए ये वाली दाल और पैकेट वाला नमक तो मिल ही जाएगा !रोएगा तो कौन सी नई बात ? और वह है किस लिए ?
अभी तो और भी समस्याएं हैं।हमें यौन शिक्षा लागू करनी है। बिजली पानी मिले न मिले , गे कल्चर वालों को सुविधाएं उपलब्ध करवानी है। अमेरिका की बराबरी करनी है हमें। एम जे की मौत पर मरने वालों को ढांढस बधाना है। वे भी तो बेचारे रो रो के लार बार हुए जा रहे हैं। आपको तो बस महंगाई और व्यवस्था की पड़ी है!
मैंने बहुत सोचा कि न रोऊँ इन हालात पर। पर मन यह मानने को तैयार ही नहीं होता कि हालात रोने के नहीं हैं ।सोचता हूँ काश! हम इन मुद्दों पर एक बूंद आंसू बहा सकते!

Comments

  1. एक बेहतरीन सकारात्मक व्यंग्य आलेख। एक पैनी नजर हर पहलू पर। बहुत खूब। किसी ने हा है कि-

    कभी आँसू बेची कभी खुशी बेची हम गरीबों ने बेकसी बेची।
    चंद सांसों को खरीदने के लिए रोज थोड़ी सी जिन्दगी बेची।।

    सादर
    श्यामल सुमन
    09955373288
    www.manoramsuman.blogspot.com
    shyamalsuman@gmail.com

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  2. व्यंग्य बहुत बढ़िया रहा।
    सुस्वागतम!!

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  3. रोना तो बहुत है, लेकिन किस के आगे रोएं? मजदूर को दाल और नमक का भाव रुलाता है तो मीडिया को 377 की चिंता खाए जा रही है। आकाश पानी नहीं दे रहा और नदियां बिजली नहीं दे पा रहीं। धरती फट रही है और उसका डाला बीज कहीं गुम हो गया है। नक्‍सलवाद ने दिल्‍ली में दस्‍तक दे दी है, कहीं हम जहरीली शराब पीकर मर रहे हैं। अब तो हमें शराब के व्‍यापारी बताने लगे हैं कि जब पीनी ही है तो खुले आम पीओ और शान से विदेशी पीकर धीरे-धीरे मरो। लेकिन अब रोना का मन नहीं होता, आमजनता के आँसू तो पहले ही सूख चुके है तो कौन रोएगा? इसलिए आज जनता रोती नहीं है बस मौन हो गयी है और मीडिया को 377 की चिन्‍ता करते देख रही है।

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  4. आपकी व्यंगात्मक तरीके से तीखी बात कहना अच्छा लगा

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  5. आप भी पूरे रोअने हो गए हैं. यह जानते हुए भी कि जब हमारा थर्मामीटर नहीं मानता कि आपको बुख़ार है, तो हम कैसे मान लें. ऐसे कैसे चलेगा? ऐं! कलेजे को थोड़ा और मजबूत कर लें.

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  6. श्यामल सुमन जी
    आपका उद्धरित शेर बडा अच्छा लगा।

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