इतना भी अशुभ नहीं होगा ग्रहण

 इष्ट देव सांकृत्यायन 


॥श्री गुरु चरण कमलेभ्यो नमः॥

यद्येकस्मिन् मासे ग्रहणं रविसोमयोस्तदा क्षितिपाः।

स्वबलक्षोभैः संक्षयमायांत्यतित्यतिशस्त्रकोपश्च॥

अर्थात यदि एक ही मास में सूर्य और चंद्र दोनों का ग्रहण हो तो अपनी-अपनी सेनाओं में हलचल मच जाने से या शस्त्रप्रहार से राजाओं का नाश होता है।

 

यह महर्षि वराहमिहिर कृत बृहत्संहिता के राहुचाराध्यायः का 26वाँ श्लोक है। कल एक मित्र ने बताया कि कोई दैवज्ञ ऐसा कह रहे हैं कि देश की सेनाओं में हलचल मच जाएगी। युद्ध तो होगा ही होगा, सरकार भी पलट जाएगी। मैंने दैवज्ञ जी को सुनने की जरूरत नहीं समझी। कौन सुने और क्यों ही सुने! आजकल सोशल मीडिया पर दैवज्ञ लोगों की बाढ़ हुई है। 56 साल के युवा नेता वाले देश में 20-30 साल के व्यापारधर्मा विद्वान अपने को खुद ही सद्गुरुदेव कह रहे हैं, जिन्हें कभी किसी सद्गुरु का दर्शन तक नहीं हुआ और रोज विज्ञापन पर विज्ञापन और व्हाट्सएप दर व्हाट्सएप ठेले जा रहे हैं कि बस हमसे अभिये मोक्ष की दीक्षा ले लो, नहीं तो टेम बीता जा रहा है। ऐसे ही कोई दैवज्ञ रहे होंगे और कहीं किसी अपने को पोलिटिकल कहने वाले गिरोह से सुपारी मिल गई होगी तो कंटहों की तरह लोढ़ा ढिमलाने लगे सेना और सरकार के लिए। बिना यह समझे कि यद्येकस्मिन् मासेसे वराहमिहिर का मूल अभिप्राय क्या है।

 

क्या यह बात वराहमिहिर ने सितंबर-अक्टूबर के लिए कही है? जिसे आज आप अंतरराष्ट्रीय कैलेंडर कहते हैं, यह कैलेंडर का मजाक है। वराहमिहिर के समय तक तो इसकी दशा-दिशा ही तय नहीं थी। इसका सबसे बड़ा प्रमाण एप्रिल फूल्स डे है, जिसका चलन 18वीं शताब्दी के अंतिम दशक में शुरू हुआ। अन्यथा वे भी अप्रैल यानी लगभग चैत्र मास के आसपास ही अपने नववर्ष की शुरुआत करते थे। मजाक उड़ाकर दूसरों की अच्छी परंपराओं की निंदा करना और उनके मन में उनके ही प्रति हीन भावना भर देना और इस तरह उन पर जबरिया अपनी वाहियात चीजें थोप देना सामियों की पुरानी रणनीति है। यह केवल भारतीयों के साथ ही नहीं हुआ, यूरोप में भी ईसाइयत और ग्रेगरियन कैलेंडर को ऐसे ही स्थापित किया गया है। चूँकि भाषा-संस्कृति का अंतरराष्ट्रीयकरण ज्ञान की सत्यता या प्रामाणिकता से नहीं, शस्त्रास्त्र से तय होता आया है और पिछ्ले तीन-चार सौ वर्षों में उन्होंने इसमें भरपूर तरक्की की तो उनके कैलेंडर को अंतरराष्ट्रीय मान लिया गया, अन्यथा दुनिया भर के विभिन्न देशों में जो परंपरागत कैलेंडर है, वह थोड़े-बहुत अंतर के साथ चैत्र-वैशाख-ज्येष्ठ-आषाढ़ जैसा ही है।  

 

यहाँ वराहमिहिर का आशय इसी मास से है, जिसमें तिथि और मास की गणना सूर्य और चंद्र दोनों ही की गति पर आधारित हो। केवल सूर्य आधारित नहीं। चंद्र और सूर्य ग्रहण दोनों सितंबर में तो हैं, लेकिन भारतीय कालगणना के अनुसार दोनों दो माह में हैं। चंद्रग्रहण भाद्रपद मास की पूर्णिमा को है, लेकिन सूर्यग्रहण अश्विन मास की अमावस्या को। पितृपक्ष के दौरान पूर्णिमा तिथि न मिलने से भाद्रपद मास की पूर्णिमा को अवश्य ले लिया जाता है, लेकिन खगोलीय कालगणना की प्रक्रिया इससे प्रभावित नहीं होती। पितृपक्ष के लिए उसका धार्मिक महत्त्व होता है, लेकिन मासों की व्यवस्था और ग्रहण का फलित इससे बदलने वाला नहीं है। एक और बात, 7 सितंबर यानी रविवार को होने वाला चंद्र ग्रहण खग्रास है और लगभग सार्वदेशिक भी। भारत सहित दुनिया के अधिकतर देशों में दिखाई देगा। लेकिन सूर्यग्रहण, जो कि अश्विन मास की अमावस्या को होना है, भारत में दिखेगा ही नहीं। फिर इसका फलित भारत पर क्यों थोपा जाए? तो सबसे पहले इस आशंका से मुक्त हो जाइए कि यह फलित यहाँ मान्य हो सकता है। यह बात सही है कि अगर एक ही माह में दो ग्रहण हों तो ऐसी दारुण आशंका होती है, लेकिन ये ग्रहण एक माह में नहीं, दो माह में हो रहे हैं। अतः महर्षि वराहमिहिर के इस निर्देश की यहाँ कोई प्रासंगिकता नहीं है।

 

सरकार को थोड़ी परेशानी झेलनी पड़ सकती है, राजनैतिक उथल-पुथल के कारण। क्योंकि यह ग्रहण कुंभ राशि में लग रहा है। सिंह, जो सत्ता-सिंहासन पक्ष के लिए महत्त्वपूर्ण है, इसकी समसप्तक राशि है। केतु वहाँ विराजमान हैं, जो उच्चाटन के कारण बनते हैं। चंद्रमा के शनि की राशि और राहु के साथ होने से लोकमानस आतंकित रहेगा। जब जब चंद्रमा राहु के निकट होते हैं, एक अनजाना सा भय समष्टि चेतना पर प्रभावी हो जाता है। लेकिन फिलहाल सेना और सरकार के बीच किसी मतभेद या विद्रोह की कोई आशंका नहीं है। कुछ ज्योतिषी कह रहे हैं कि सितंबर में ही ऑपरेशन सिंदूर दुबारा शुरू हो जाएगा और यह बात वे बड़े दावे के साथ कह रहे हैं। एक सज्जन तो भारत पर एटम बम तक गिरवाने पर तुल गए हैं। पता नहीं, ऐसी सनसनी फैलाकर लोगों को क्या मिल जाता है। मुझे ऐसा बिलकुल नहीं दिख रहा। ऐसी कोई आशंका दूर-दूर तक नहीं है। यह खग्रास चंद्र ग्रहण संपूर्ण भारतवर्ष के अलावा एशिया, यूरोप, आस्ट्रेलिया, हिंद महासागर, पूर्वी एटलांटिक महासागर, पश्चिमी प्रशांत महासागर (Pacific Ocean) और एंटार्कटिक में भी देखा जा सकेगा।

 

हाँ, एक बात जरूर है। 12 सितंबर से मंगल की महादशा शुरू होने वाली है। यह सात वर्ष तक चलेगी और इस दौरान भारत पर बार बार युद्ध थोपने की साजिश रची जाएगी। करीबी समझा जाने वाला कोई कूटनीतिक साझेदार धोखा भी दे सकता है। लेकिन यह सब अभी काफी आगे की बात है। भारत की महादशा-अंतर्दशा और अन्य गोचर भी इसके कारणों में शामिल होंगे। केवल एक ग्रहण ऐसे मामलों में बहुत बड़ी भूमिका नहीं निभा सकता। ऐसे ही जिन देशों की महादशा-अंतर्दशा का प्रभाव अभी खराब चल रहा हो, गोचर भी प्रतिकूल हो और चंद्र व सूर्य ग्रहण भी वहाँ दृष्ट हों, वहाँ नागरिकों को युद्ध या विद्रोह की समस्या झेलनी पड़े सकती है। इसका विश्लेषण समय मिलने पर दोनों ग्रहणों के प्रभाव को लेकर अलग से किसी दिन करूंगा।

 

चंद्रमा उस समय कुंभ राशि में होंगे। ग्रहण शुरू होने का समय रात को 9 बजकर 57 मिनट है। ग्रहण का मध्य रात 11 बजकर 41 मिनट और मोक्ष 1 बजकर 27 मिनट पर होगा। उस दिन रात को 10 बजकर 51 मिनट तक शतभिषा नक्षत्र होगा। इसके बाद पूर्वाभाद्रपद लग जाएगा। पूर्णिमा तिथि का विस्तार रात में 11 बजकर 48 मिनट तक है। यानी जब यह ग्रहण लगेगा, उस समय नक्षत्र शतभिषा होगा। मध्य और मोक्ष पूर्वाभाद्रपद में होगा। अयन अभी दक्षिण है। इस संबंध में वराहमिहिर का निर्देश है –

 

द्विजनृपतीनुदगयने विटशूद्रान् दक्षिणायने हंति।

राहुरुदगादिदृष्ट: प्रदक्षिणं हंति विप्रादीन॥

 

अर्थात उत्तरायण में होने वाला ग्रहण ब्राह्मण एवं क्षत्रियों यानी बुद्धिजीवियों एवं सेना-पुलिस-अर्धसैनिक बलों आदि से जुड़े योद्धा वर्ग तथा दक्षिणायन में होने वाला ग्रहण वैश्य एवं शूद्रों यानी व्यवसायी एवं नौकरीपेशा वर्ग को हानि पहुँचाने वाला होता है। अभी अयन दक्षिण है। शासन की ओर से ऐसे फैसले हो सकते हैं जो व्यापारियों और नौकरीपेशा लोगों के लिए हितकर न हों। जब दोनों प्रभावित होंगे तो आगे चलकर यह सरकार पर भी भारी पड़ेगा।

 

कुम्भेऽन्तर्गिरिजान सपश्चिमजनान् भारोद्वहांस्तस्करान्।

आभीरान् दरदाऽऽसिंहपुरकान् हन्यात्तथा बर्बरान्॥

 

यानी जब कुंभ राशि में सूर्य या चंद्र का ग्रहण हो तो पहाड़ी मनुष्य, पाश्चात्य देशों में रहने वाले मनुष्य, बोझा ढोने वाले मनुष्य, आभीर, चोर दरद देश यानी गिलगित-बाल्टिस्तान और यासीन क्षेत्रों में रहने वाले लोगों, प्रधान मनुष्य, सिंह नगर में रहने वाले लोगों और बर्बर देशों में रहने वाले मनुष्य – इन सबको नुकसान पहुँचाता है। सारांश यह कि भारत में पूरे हिमालय क्षेत्र के अलावा कुछ हद तक अरावली और पश्चिमी घाट के क्षेत्रों को लेकर भी सतर्क रहने की जरूरत है। कहीं भूकंप, तो कहीं भूस्खलन, तूफान और बाढ़ जैसी घटनाएँ हो सकती हैं। ग्रहण वाली राशि कुंभ स्वयं वायु तत्त्व है, लेकिन राशीश शनि अभी मीन यानी जलतत्त्व राशि में हैं। खासकर हिमालय क्षेत्र के लिए यह अच्छा संकेत नहीं है। प्राकृतिक आपदाओं की आशंका रूस, स्वीडन, प्रूशिया, आंशिक रूप से जर्मनी, पोलैंड, आंशिक रूप से अरब, फिनलैंड, लिथुआनिया, नॉर्वे, इथियोपिया में भी है। यूरोप के सुदूर उत्तरी हिस्सों में जनता के बीच गंभीर झड़प के संकेत मिल रहे हैं। अधिकतर संभावना यह है कि ऐसा सांप्रदायिक तनाव के चलते हो। रूस में मॉस्को और साइबेरिया के कुछ हिस्से किसी प्राकृतिक आपदा के चलते बड़े संकट में फँस सकते हैं।  ध्यान रहे, ग्रहण का प्रभाव आना एक सप्ताह पहले से शुरू हो जाता है और तीन माह बाद तक जारी रहता है।

 

ग्रहण के आरंभ के समय पूर्वी क्षितिज पर मेष राशि उदित हो रही होगी और मोक्ष के समय मिथुन राशि। ग्रहण मध्य वृष राशि में होगा। सिंह राशि में इस समय केतु के साथ सूर्य और बुध भी होंगे। इसमें बुध की दृष्टि का अलग निहितार्थ है –

 

पश्यं ग्रस्तं सौम्यो घृतमधुतैलक्षयाय राज्ञां च।

भौमः समरविमर्दं शिखिकोपं तस्करभयं च॥

 

अर्थात ग्रहणकालिक सूर्य या चंद्र के ऊपर यदि सौम्य अर्थात बुध की दृष्टि हो तो घी, शहद, तेल और राजाओं के लिए हानिकारक होता है। स्पष्ट है, रासायनिक पदार्थ महंगे होंगे और राजनेताओं के प्रति जनता में असंतोष बढ़ेगा। बुध पर राहु की दृष्टि होने से निवेश को लेकर अत्यंत सावधान रहने की जरूरत है। किसी भी स्टॉक में पैसा लगाने से पहले उसका पूरा विवरण जान लें और उसका स्वयं विश्लेषण कर लें। आवश्यकता समझें तो अपने निवेश सलाहकार की मदद लें। केवल सेंटीमेंट के आधार पर कहीं भी पैसा न लगाएँ। यह हानिप्रद हो सकता है।

 

इन अशुभ लक्षणों और आशंकाओं के साथ-साथ महर्षि वराहमिहिर के एक और श्लोक का ध्यान रखना चाहिए‌। वे कहते हैं –

 

यदशुभमवलोकनाभिरुक्तं ग्रहजनितं ग्रहणे प्रमोक्षणे वा।

सुरपतिगुरुणावलोकिते तच्छममुपयाति जलैरिवाग्निरिद्धः॥

 

यानी ग्रहण के स्पर्श और मोक्ष के समय जो अशुभ फल कहे गए हैं, यदि सूर्य या चंद्र पर गुरु की दृष्टि पड़ रही हो तो उन अशुभ फलों का वैसे ही नाश हो जाता है जैसे कि जल की तेज धार पड़ने से प्रज्वलित अग्नि का नाश हो जाता है। गुरु इस समय मिथुन राशि में हैं और उनकी नवीं दृष्टि चंद्र पर पड़ रही है। अतः इन अशुभ प्रभावों का बहुत हद तक शमन हो जाएगा।



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