हमारी फितरत है भटक जाना

हम भारतीय लगातार यह कहते रहते हैं कि सरकारें बदल जाती हैं लेकिन मूलभूत समस्याएँ जस की तस रहती हैं. बदलाव केवल कुर्सियों पर बैठने वाले चेहरों में होता है, उनके चाल-चरित्र में बिलकुल नहीं. व्यवस्था और उसके तौर-तरीक़े हर हाल में वही के वही बने रहते हैं. जानते हैं क्यों?
क्योंकि हम अपने लक्ष्य से बहुत जल्दी भटका दिए जाते हैं. थोड़ा ग़ौर से देखें, भटकने की यह आदत कुछ-कुछ हममें ख़ुद भी है. हम दिल्ली की बात करते-करते कब दौलताबाद पहुँच जाएँ, ये हमें ख़ुद ही पता नहीं चलता. साहित्य में कुछ विधाएँ हैं इसी मूलभूत प्रवृत्ति को समेटे हुए. यद्यपि साहित्य में इन विधाओं में रचनाओं को कसी हुई और सधी हुई तभी माना जाता है जब ये चाहें जहाँ तक जाकर अपने मूलभूत बिंदु पर लौट आएँ और इनका सब जगह जाना केवल वह साबित करने के लिए हो जो शुरुआत में उठाया गया था.

लेकिन आमजन में और उसकी बात में यह नहीं होता. वह हँसते-हँसते रोने लगता है और प्यार की बात करते-करते लड़ने लगता है. जानते हैं ऐसा क्यों होता है? क्योंकि हम भटक जाते हैं और भटकने के बाद ऐसे गुम होते हैं कि भूल ही जाते हैं कि हम कहाँ के लिए चले थे. जब हम अपना लक्ष्य ही भूल जाएँ तो रास्तों का क्या!
रास्ते तो रहजनों से भरे पड़े हैं ही. सदियों से ठगों की कहानियाँ हमारे यहाँ प्रचलित हैं. वे ठग अब रास्तों में ऐसे नहीं मिलते. वे ठग अब डाकू खडग सिंह की तरह अपाहिज और कमज़ोर बनकर भी नहीं मिलते. ना, वे बंदूक-तलवार भी नहीं रखते. वे ठग अब झक सफ़ेद कुर्ते-पाजामे में मिलते हैं. रहजन नहीं, रहबर बनकर. बहुत अच्छी-अच्छी बातें करते हुए, वादे करते हुए.
ये वादे आपको सारी सुविधाएँ मुहैया करा देने से लेकर भारत को स्वर्ग बना देने के होते हैं. लेकिन इनमें से होता क्या है? ये अकसर आपसे आप के मन की बात करते हुए मिलते हैं और आपके क्षणिक ग़ुस्से का फ़ायदा उठाते हुए आपको वहाँ पहुँचा देते हैं, जो जहाँ के लिए आप चले थे, उसकी ठीक उलटी दिशा में होता है.
उनसे बचना आपका काम है. वे तो हैं ही भटकाने के लिए, ना, उन्हें गालियाँ देने से कुछ नहीं होगा. जब हम ख़ुद भटक जाएँ तो किसी और को कोसने का कोई अर्थ नहीं होता. आपका लक्ष्य आपको याद होना चाहिए,
वैसे तो ये सही है कि आपकी याद्दाश्त बहुत छोटी है. फिर भी लखनऊ का पासपोर्ट प्रकरण तो आप अभी नहीं ही भूले होंगे. लेकिन क्या आपको याद है कि उस वक़्त का आपका जो आक्रोश था, वह था किस बात पर?
आपका ग़ुस्सा तन्वी उर्फ़ सादिया का पासपोर्ट बनने पर नहीं था. उस शख़्स के ट्रांसफर पर भी नहीं था, जो अपनी ड्यूटी निभा रहा था. आपका आक्रोश था उन घड़ियाली आँसुओं पर था जिन्हें आज की मीडिया ख़ास उद्देश्य से बहुत ज़्यादा तरजीह देती है. कुल मिलाकर इस मामले में हुआ बस यह कि पासपोर्ट कैंसिल होने के लिए जाँच बैठा दी गई और कर्मचारी का ट्रांसफर रुक गया.
एक और काम यह हुआ कि ट्विटर पर सुषमा स्वराज की रेटिंग घट गई, जिससे कुछ होने वाला नहीं है और जो आपका लक्ष्य भी नहीं था. क्या इससे जबर्दस्ती पीड़ित बनने की वह प्रवृत्ति रुक जाएगी, जिसके चलते जिनुइन आदमी को सज़ा भुगतनी पड़ती है और आम आदमी का काम रुकता है और जालसाज लोग जबर्दस्ती सारे फ़ायदे ले लेते हैं?
इससे क्या हो जाने वाला है? इस पूरे प्रकरण का तब तक कोई फ़ायदा नहीं है जब तक कि वे सारे चेहरे बेनकाब न हो जाएँ जो इसमें शामिल हैं. इनमें एक भी अनजान नहीं है और न ही बेगुनाह. सबने जानते-बूझते हुए और सोच-समझकर इस साज़िश को अंजाम दिया है. यह हड़बड़ी नहीं थी, हड़बड़ी का माहौल रचा गया था और उसी के तहत फ़ायदा उठाकर सब कुछ कर दिया गया था.
वास्तव में जिनुइन आदमी की ज़बान बंद करने की साजिश है. कहीं मैंने पढ़ा है कि इसी बीच धीरे से एक और परिवर्तन पासपोर्ट के क़ायदे-क़ानून में कर दिया गया है. वह यह कि कोई भी कहीं से भी पासपोर्ट बनवा सकता है. ज़रा सोचिए इसके फ़ायदे-नुकसान. क्या होंगे इसके नतीजे. और हाँ, क्या हुआ आपके मूलभूत लक्ष्य का?
घटनाएँ एक के बाद एक होती रहेंगी. उन पर हल्ला भी मचता रहेगा. एक हल्ला दूसरे हल्ले को दबाने की कोशिश भी करता रहेगा. लेकिन आपको अपना लक्ष्य याद रखना होगा. तब तक जब तक कि इसके ज़िम्मेदार सलाखों के पीछे न पहुँच जाएँ. वरना....
आगे आप तैयार रहें
जब कोई चोर आपको गठरी छीन कर भागेगा और पकड़े जाने पर कहेगा
कि जी, मुझे तो बस इसलिए फँसाया जा रहा है कि
मैं चोर हूँ.
और आपकी बेहद ईमानदार और ज़िम्मेदार मीडिया
उसी की ओर से चिल्लाने लगेगी.
अंततः वह दिन भी देखना पड़ सकता है जब आपके ख़ून-पसीने की कमाई पर डकैती डाली जाए और आपको ही जेल जाना पड़े.

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