चित्रकूट की ओर

हरिशंकर राढ़ी 

प्रातः हमें चित्रकूट के लिए प्रस्थान करना था। जानकारी लेने पर पता चला कि उस समय एक मेला स्पेशल  चित्रकूट के लिए लगभग नौ बजे जाती है। मैहर से चित्रकूट की दूरी लगभग सवा सौ किमी होगी और ट्रेन से बेहतर विकल्प दूसरा हो नहीं सकता। सो हम समय रहते स्टेशन  पहुँच गए और टिकट लेकर प्लेटफार्म पर हाजिर। सुखद बात यह कि ट्रेन ठीक समय पर आई और चल भी दी। उससे भी सुखद यह कि लगभग पूरी ट्रेन खाली और हम अपनी मर्जी के हिसाब से डिब्बा और सीट का चुनाव कर सकते थे। यह काम हमने किया और एक ऐसे डिब्बे में घुस गए जिसमें हमारे अलावा कोई भी यात्री नहीं था।
खाली ट्रेन  में यात्रा 
खैर, हिंदुस्तान में खाली ट्रेन मिल जाए और अपनी कंपनी हो तो पूछना ही क्या ? हाँ, तकलीफ यह हुई कि पूरे रास्ते एक कप चाय नसीब नहीं हुई। पता नहीं खाली ट्रेन  की वजह से या वहाँ के लोग चाय पीते ही नहीं। यात्रा पूरी हुई और हम चित्रकूट धाम कर्वी स्टेशन  पर उतरे। यहाँ से चित्रकूट धाम दूर है। लगभग छह-सात किमी तो होगा। रेलवे स्टेशन कर्वी में है जो कि एक अल्पज्ञात स्थान है। चित्रकूट धाम का नाम जुड़ जाने से कर्वी भी प्रसिद्ध हो गया है। यहाँ से हम बाहर निकले तो बड़े आॅटो वालों के झुंड ने हमें कब्जाने के लिए हमला किया। रामघाट तक जाने और होटल दिखा देने के नाम पर बात तय हुई और हम कुछ देर में टूटी-फूटी सड़कों से होते हुए रामघाट पहुँच गए। 
यहाँ होटल तलाशने  में जो कठिनाई हुई, वह आशा  के विपरीत थी। मुझे ऐसा अंदाजा नहीं था कि चित्रकूट जैसी जगह पर होटल मिलने में ऐसी दिक्कत आएगी। हमें एक साफ-सुथरे , हवादार और उचित दर के होटल की तलाश  रहती है। यह भी मालूम है कि छुट्टियों में होटलों की दर में सौ-दो सौ रुपये का इजाफा हो जाता है। पर यहां तो स्थिति कुछ और ही थी। रामघाट पर स्थित कामदगिरि भवन में कमरा मिल जाने की उम्मीद थी। कामदगिरि एक अच्छा और उचित दर का ट्रस्ट आधारित होटल है। मुझे नेट पर भी इसी की जानकारी थी किंतु इसकी आॅनलाइन बुकिंग नहीं थी। हमारे जैसे सामान्य बजट में पर्यटन का शौक  रखने वाले व्यक्ति के लिए एक दिक्कत यह भी होती है कि बिना पूरी जानकारी के आॅन लाइन बुकिंग कर भी ली जाए तो होटल की लोकेशन को लेकर होने वाली समस्या का समाधान क्या होगा ? 
खैर, एक होटल में गुणवत्ता की तुलना में ऊँची कीमत देकर हमने कमरा बुक किया। अक्टूबर महीने की धूप जुल्म ढा रही थी। एक बार और नहा-धोकर हम भोजन की तलाश  में निकले। उसकी कोई खास समस्या नहीं हुई। नजदीक ही एक शुद्ध  शा काहारी भोजनालय मिल गया और हम दोनों परिवार भोजन करके विश्राम के लिए होटल आ गए। 
कामदगिरि परिक्रमा प्रवेश द्वार                       छाया : हरिशंकर राढ़ी 

कामदगिरि परिक्रमा:

 योजना के मुताबिक आज की शाम कामदगिरि परिक्रमा और रामघाट के दर्शन  में निकालनी थी। कामदगिरि वह पर्वत है जिस पर श्रीराम ने बनवास की अवधि में निवास किया था। अस्तु, यह पर्वत हिंदू धर्मावलंबियों के लिए पवित्र और दर्शनीय  है। कहा जाता है कि इस पर्वत की परिक्रमा से समस्त कामनाओं की पूर्ति होती है। कामनाओं की पूर्ति कितनी होती है, यह तो आस्था और अपने विश्वास  की बात है किंतु सात किमी की पदयात्रा निश्चित रूप से पर्वत के महत्त्व, स्वास्थ्य एवं सोच के लिए लाभदायक जरूर होगी। मेरे जैसे घुमक्कड़ व्यक्ति के लिए जो पैदल चलने में बहुत आनंद पाता हो, के लिए तो एक अच्छा अवसर था ही। होटल के स्वागत कार्यालय से जानकारी ली तो पता लगा कि रामघाट (जो कि बिलकुल पास था) से आॅटो मिल जाएंगे जो कामदगिरि मंदिर पर पहुंचा देंगे और वहां से शेष  यात्रा पैदल करनी होगी।
चित्रकूट की एक खास और विचित्र बात यह कि आधा चित्रकूट उत्तर प्रदेश  और आधा मध्य प्रदेश  में है। चित्रकूट के दर्शनीय  स्थलों में भरतकूप  को छोड़कर अधिकांश  मध्य प्रदेश  में पड़ते हैं। यहाँ तक कि कामद गिरि का परिक्रमापथ भी इस राजनैतिक बंटवारे का शिकार है। रामघाट के पास एक गंदा नाला है (जिसका गंदा जल मंदाकिनी में गिरता है) जिसके इस तरफ उत्तर प्रदेश  के आॅटो मिलते हैं तो उस पार मध्य  प्रदेश  के। यह बात अलग है कि लाख सख्ती के बावजूद अपने देश  का आदमी हर नियम कानून की काट निकाल लेता है और कुछ नियम विरुद्ध करके अपनी आत्मा को संतुष्ट  पाता है। और आॅटो-टैक्सी वाले ऐसा खेल न खेलें, ऐसा कैसे हो सकता है।
रामचरित मानस की मूल प्रति                       छाया : हरिशंकर राढ़ी 
कामदगिरि परिक्रमा पथ के प्रवेश द्वार पर भगवान कामदगिरि का मंदिर है। यहां से यात्रा बिना पनहीं यानी जूते-चप्पल के करनी होती है। मंदिर हो तो फूल-माला-प्रसाद वाले होंगे और प्रसाद लेकर जूता रखवाली की निःशुल्क  सुविधा का लाभ उठाना हमारा धर्म है। हमने भी धर्म का पालन किया और दर्षनोपरांत प्रदक्षिणा के लिए हम निकल लिए। पूर्व तैयारी के हिसाब से हमें परिक्रमा पथ पर क्या-क्या देखना था, इसका पता करते हुए चल रहे थे। रामकथा और रामचरित मानस से  लगाव होने के कारण मैं इस यात्रा से काफी जुड़ा हुआ महसूस कर रहा था और बच्चों की जिज्ञासा का समाधान भी करता चल रहा था।
मानस की मूल प्रति दिखाते बाबा जी और शिष्य                     छाया : हरिशंकर राढ़ी 
परिक्रमापथ पर तो वैसे दानी भक्तों ने काफी सुविधा प्रदान कर रखी है किंतु गायों का गोबर और बंदरों का आतंक यात्रा के आनंद को बाधित करता है। पथ पर अधिकांशतः  टिनशेड  लगा हुआ है जो छाया प्रदान करता है किंतु उसके ऊपर भागती-दौड़ती बंदरों की फौज मजा किरकिरा करती है। हां, बच्चे अपने इन सहधर्मियों को देखकर आनंदित होते हैं लेकिन इनकी संख्या ज्यादा होने पर उनका मजा भी भय में बदल जाता है। 
कामदगिरि परिक्रमा पथ पर  लेखक 
इस परिक्रमापथ में सर्वप्रथम हमारा पड़ाव वह मंदिर था जिसमें तुलसीदास की ‘रामचरित मानस’ की मूल प्रति होने का दावा था। मंदिर में तुलसीदास तथा उनके गुरु स्वामी नरहरिदास की मूर्तियां थीं। बरामदे में एक वृद्ध बाबा जी थे और उनका एक नौजवान शिष्य । हमारे आग्रह पर उन्होेंने दावे के साथ ‘रामचरित मानस’ की हस्तलिखित प्रति दिखाई। निश्चित  रूप से यह एक प्राचीन हस्तलिखित प्रति थी जिसके पन्ने एलबम जैसी पैकिंग में अलग-अलग दिख रहे थे। उसके विषय  में जानकारी लेकर हम आगे बढ़े। पूरा रास्ते में मंदिरों की बहुतायत है और मंदिर के पास उसी अनुपात में भिखारी न हों, ऐसा कैसे हो सकता है ? इस समस्या से निजात इस देश  को शायद ही मिले।

भरत मिलाप मंदिर और भायप भगतिः 

अनेक मंदिरों एवं झांकियों को पार करते हुए हम भरत मिलाप मंदिर पहंुचे। यह स्थल रामकथा में बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। यही वह जगह है जहाँ भरत को आया हुआ पाकर राम भाव विह्वल हो गए थे और भरत को बाहों में भर लिया था। दोनों के मिलन का वर्णन तुलसी दास रामचरित मानस में कुछ इस प्रकार करते हैं:
भरत  मिलाप मंदिर                       छाया : हरिशंकर राढ़ी 

बरबस लिए उठाइ उर, लाए कृपानिधान।
राम-भरत की मिलनि लखि, बिसरे सबहिं अपान।।

विश्व  के किसी भी महाकाव्य में भरत जैसे भाई का वर्णन नहीं मिलता और शायद यही कारण है कि भरत भायप भगति अर्थात भाई के रूप में आदर्श  माने जाते हैं। उनका चरित्र राम के चरित्र से कहीं बहुत ऊंचा उठ गया है और  तुलसीदास भरत की महिमा का बखान करते नहीं थकते:

भरत सरिस को राम सनेही । जग जपे राम, राम जपे जेही।

तो संभवतः इसी स्थल पर राम भरत का मिलन हुआ होगा। यहाँ एक छोटा सा भरत मंदिर है और राम-भरत चरण चिह्न स्थापित है। जनश्रुति के अनुसार राम-भरत के मिलन और स्नेह से इतनी गर्मी पैदा हुई कि पत्थर पिघल गया और उस पर राम और भरत के चरण चिह्न छप गए जिसके दर्शन  लोग आज भी करते हैं। अभिधा में कहा जाए तो पत्थर भले न पिघला हो, पर यह सत्य है कि विश्व  में यदि कोई शक्ति  है तो वह प्रेम की ही शक्ति  है। आज के समाज में न जाने कितने भरतों की जरूरत है। राम तो फिर भी मिल जाते हैं, भरत कहाँ हैं ? 

             चरण चिह्न         छाया : हरिशंकर राढ़ी 
ऐसे दुर्लभ भाई भरत की सराहना करते हुए मन भावुक हो आया। वहां के पुजारी जी भरत के संबंध में चैपाई का जवाब चैपाई से पाकर बड़े प्रसन्न हुए और लंबी चर्चा की । यह भी बताया कि दीपावली के आसपास (सटीक तिथि मुझे याद नहीं आ रही है) अयोध्या से प्रतीकात्मक भरत दल आता है और उसी रूप में राम-भरत मिलन का स्वांग किया जाता है जिसे देखने के लिए अपरंपार भीड़ इकट्ठा होती है। अच्छा है, ऐसी भीड़ इकट्ठी होती रहे और राम-भरत के भ्रातृत्व को जीवंत रखे और कुछ सीखे तो शायद देश  में भाईचारा बनने में कुछ मदद मिले।
अंधेरा घिर आया था। भरत मिलाप के बाद की परिक्रमा चुपचाप रही। भरत बोलने नहीं, करने की सीख देते हैं। घूमते-घूमते हम फिर उसी प्रवेशद्वार पर वापस आ गए। पादुकाएं उठाईं और भरे मन से आॅटो करके रामघाट वापस आ गए। आखिर भरत के यहाँ से निकले तो उन्हें समझने वाला राम के अलावा था कौन ?

पत्थर पर चरण चिह्न                     छाया : हरिशंकर राढ़ी 

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