हाय, हम क्यों न बिके?

हरिशंकर  राढ़ी

मैं शाम  की चाय का सुख लेने ही जा रहा था कि बोधनदास पधार गए। वे मेरे अज़ीज़  और अजीब पडोसी  हैं और अक्सर पधारते ही रहते हैं। आप एक सरकारी महकमे से सेवानिवृत्त हो चुके हैं, इसलिए दुनिया का सर्वोत्तम व्यावहारिक ज्ञान रखते हैं। ऐसे समय पर आते हैं कि चाय भी मिल जाए और समय भी कट जाए। इसके बदले वे अपना उपदेश  रूपी ट्यूशन पढ़ा  जाते हैं, ऐसा माना जा सकता है। मेरा भभका हुआ किन्तु निराश  सा चेहरा देखकर वे अपने कर्तव्यपथ पर आ डटे। शायद उन्हें एहसास हो गया कि कोई जोर का झटका लगा है। 

बोधनदास जी बिना किसी औपचारिकता के सामने वाली कुर्सी को सुविधानुसार व्यवस्थित करके जम गए। छूटते ही बोले,'' भाई क्या बात है? बेवक्त ही चेहरे पर बारह क्यों बज रहे हैं ? क्या हो गया ? घर में सब ठीक तो है ?'' मन में आया कि कह दूँ कि आप जैसे लोगों ने ही तो देश  का बेडा गर्क कर रखा है ! 'घर' से बाहर न निकलने की तो जैसे कसम ही खा ली है। सारा जीवन अपने और अपने घर के बारे में ही तो सोचते रहे। घर के बाहर तो मानो कोई दुनिया ही नहीं। फिर भी मैं प्रतिक्रियाशून्य  रहा। मेरी भाव शून्य  स्थिति से मेरा भाव  बढ़ा । इस बार उन्होंने वॉल्यूम बढाया , ''अरे भाई राढ़ी साहब, बात क्या हुई? कुछ बताओ तो सही ! कोई विशेष  घटना तो नहीं हो गई ?''

 ''अरे होना क्या था ? टीवी देखा आपने आज ? जानते हैं क्या हुआ, वो अपना ढिमाके बल्लेबाज पूरे दस करोड  में बिका है आज आइ.पी.एल.में ! पूरे दस करोड .....! क्या हाल बना रखा है इस देश  का ? रोटी-दाल, नून-तेल और यहाँ तक कि पानी का बिकना भी मान लिया; पर अब आदमी भी बिकने लगा यहाँ !'' मैं जैसे बिफर गया ।

बोधनदास जी हल्का सा मुस्कराए, जैसे कितने बड़े सुलझे हुए सूफी-संत या महात्मा हों। मेरे प्रश्न  एवं मेरी बेचैनी में उन्हें कोई दम ही नहीं दिखा। सारी समस्या जैसे उपेक्षित करते हुए बोले, ''बै यार, यह भी कोई बात हुई ? ये सब तो चलता ही रहता है। मैंने पहली बार किसी को टीवी की खबर देखकर इतना दुखी होते देखा है। मैं तो यही मानता था कि टीवी-सीवी का कोई असर ही नहीं होता। अब चाय-साय मंगाओ और कहीं घूमकर आते हैं।'' चिढ़ा  तो मैं पहले से ही था, अब और चिढ  लग गई। कोई है ही नहीं इस  देश में जो  देश के बारे में, गरीबों के बारे में, यहाँ की असमानता और उलटे अर्थशास्त्र  के बारे में सोचे ! गरीब का घर जले और गुंडे हाथ सेंकें । 
 
''आपको पता भी है कि कितनी-कितनी बोली लगी है आज ? खिलाड़ी  ऐसे नीलाम हो रहे थे जैसे कोई प्लॉट हों या फिर कोई जानवर। ना जाने क्या होगा इस  देश का ? आप पर तो कोई फर्क ही नहीं पड ता !'' मैंने उन्हें खा जाने वाली नजर से देखा।

अब वे गंभीर हो गए। बोले, ''तो तुम्हें क्या लगता है कि यहाँ आदमी आज पहली बार बिका है ? इससे पहले आदमी यहाँ बिकता ही नहीं था ? आज टीवी पर दिख गया तो तुम्हें भी पता लग गया, वरना तुमने यह मान लिया था कि ऐसा यहाँ कुछ होता ही नहीं था? आदमी बिका कब नहीं है ?''

इस बीच धर्मपत्नी चाय दे गई। दोनों ने शांतभाव  से चाय सुड़की, शायद  यह सोचते हुए कि अगला हमला कैसे करना है और हमले का जवाब कैसे देना है। अब गेंद मेरे पाले में थी। चाय के दौरान बोधनदास के जवाब से मेरी अकल भी कुछ ठिकाने आ चुकी थी। पर हारना मैं भी नहीं चाहता था, इसलिए एक बुद्धिजीवी की भांति तर्कशास्त्र  पर उतर आना जरूरी हो गया था। बोधनदास की बात में कुछ वजन था क्योंकि हर न समझ में आने वाली बात में कुछ वजन माना जाता है। मुझे लगा कि उनकी बात  थोड़ी -बहुत तो मान ही लेनी चाहिए। अब मैं कोई वकील तो हूँ नहीं कि दूसरे की बात मानी तो अपनी जाति धर्म और पेशे  से गया ! सो बोला, ''भाई, बात तो आपकी सौ फीसदी सही है, पर इस बार तो हद ही हो गई ! एक बन्दा अपने ठुक्क-ठाँय के खेल के लिए पूरे दस करोड  पा रहा है और एक है कि खुद को बेचकर नून-तेल-लकड़ी  जुटाने को तैयार है पर कोई ग्राहक ही नहीं है। क्या नीलामी हो रही है ! एक-एक खिलाडी  बिका जा रहा है। अंगरेज कट लोग बोली लगाए जा रहे हैं। कोई दस करोड  में तो कोई पाँच करोड  में। गोया मण्डी लग रही हो और आदमी आदमी न होकर ढोर-ढंगर हो। जो ज्यादा ऊँची बोली लगाए, हाँक ले जाए। दूसरी तरफ देखिए तो एक आबादी इतनी बड़ी  है जो सचमुच में ढोर-ढंगर की तरह ही जी रही है।''

बोधनदास जी पुनः मंद-मंद मुस्कराते हुए या यों कहें कि मेरे ऊपर कुछ दया सी दिखाते हुए बोले, ''भाई, इसमें इतना इमोशनल  होने या क्रान्तिकारी होने की कोई आवश्यकता  मुझे तो दिखती नहीं। किसने कहा गरीबों को पैदा होने के लिए? और पैदा भी होना था तो यही एक  देश मिला था? अब पैदा हुए तो भुगतो ! खिलाड़ी ऊँची कीमत पर बिक रहे हैं तो तुम्हें किस बात की जलन ? जब यही खिलाडी  मैच जीतते हैं तो तुम भी बादशाह  बन जाते हो। तब तो ऐसा लगता है कि पटाखे और मिठाइयाँ फ्री के आ रहे हैं। उस दिन तो तुम दिहाड़ी  भी छोड  देते हो। पडोसी  मर भी गया हो तो उसके  लिए शमशान  तक नहीं जा सकते और मैच चल रहा हो तो सी.एल.- ई.एल.सब ले डालते हो। जब भाव बढाया  है तो बन्दा तो बिकेगा ही। यही क्या कम है कि कोई तो ऊँची कीमत पर बिका ! वरना यहाँ आदमी की कीमत है ही कितनी? जहां तक बिकने की बात है, तो बिकना कौन  नहीं चाहता है? ग्राहक ही न मिले तो खिसियानी बिल्ली खम्भा नोचे!''
 
मुझे लगा कि बोधनदास जी के भी मर्म पर चोट लगी है। बिकना चाहते रहे होंगे पर बिके नहीं होंगे, सो सारा गुबार आज निकाल दे रहे हैं । सरकारी मुलाजिम वैसे ही रहे हैं; क्या भरोसा ? मैं पूरी तरह सहमत नहीं हुआ उनके तर्क से। गुस्सा भी आया किन्तु गुस्से को हलक से नीचे उतार कर वितृष्णा  के स्वर में बोला, ''नहीं साहब, ऐसा नहीं है। हर आदमी बिकने वाला नहीं है। मैं बड़ों  की बात तो नहीं जानता, पर जिन्हें आप गरीब कह रहे हैं वे तो कतई नहीं बिकते। एक वे ही तो हैं जिनके अन्दर आत्मा बची हुई है और जो भगवान से डरते हैं। वैसे भी इस  देश में ऐसे-ऐसे महान लोग हुए हैं जिन्हें दुनिया की कोई ताकत नहीं हिला सकी है। धन की क्या बिसात है जो उन्हें खरीद ले?''

इस बार भी बोधनदास जी ने पूर्व की भांति ही मेरे ऊपर तरस खाने का भाव बनाया। स्वर में थोड़ा दर्द डाला और बोले, ''अरे भाई राढ़ी , तुम रहते किस दुनिया में हो ? बिकना कौन नहीं चाह रहा और बिकने का आत्मा से क्या लेना-देना ? ये तो सारी दुनिया ही एक बाजार है, मेला है; ऐसा संतों ने कहा है। आज के सत्संगी संतजन भी यही कह रहे हैं। जब उन्हें दुनिया बाजार नजर आती है तो तुम कौन हो संदेह खड़ा  करने वाले ? भाई मेरे, जहाँ जिन्दगी और मौत सरेआम बिकती है वहाँ आदमी बिक गया तो कौन सी आफत आ गई ? लोग तो यहाँ देश  सहित बिकने को तैयार हैं, बस अवसर और ग्राहक चाहिए ।''
(शेष अगली किश्त  में ......)

(यह व्यंग्य 'समकालीन अभिव्यक्ति' के जनवरी-मार्च २०१२ अंक में 'वक्रोक्ति' स्तम्भ के अंतर्गत प्रकाशित   हुआ था।)

Comments

  1. जब उन्हें दुनिया बाजार नजर आती है तो तुम कौन हो संदेह खड़ा करने वाले ? भाई मेरे, जहाँ जिन्दगी और मौत सरेआम बिकती है वहाँ आदमी बिक गया तो कौन सी आफत आ गई ?

    बहुत खूब .....!!

    इस धारदार व्यंग के लिए आपको ढेरों बधाई .....

    'समकालीन अभिव्यक्ति' में प्रकाशित जोने की भी बधाई ....!!

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