Posts

Showing posts from February, 2008

बजट में ऐलान : विश्व के किडनी बाजार पर कब्जा करेगा हिंदुस्तान

मेडिकल टूरिज्म को बढ़ावा देने के लिए क्रांतिकारी घोषणा -दिलीप मंडल ( दरअसल एक मीडिया हाउस में किडनी ट्रांसप्लांट रैकेट और बजट की खबरें एक ही टेबल पर रखी गई थी और खबर बनाने वाले ने दोनों कों एक ही खबर का हिस्सा मान लिया । उन्होंने जो खबर लिखी वो इस तरह है ।) देश के वित्त मंत्री डॉक्टर अमित चिदंबरम ने इस साल के बजट में एक क्रांतिकारी प्रस्ताव रखा है । बजट 2008 के लिए उनका प्रस्ताव है कि किडनी ट्रांसप्लांट उद्योग के लिए हर इंटरनेशनल एयरपोर्ट के पास एक एसईजेड बनाया जाएगा । ये एसईजेड दस साल तक टैक्स फ्री जोन होंगे और इन एसईजेड में में जबरन किडनी निकालना दंडनीय अपराध नहीं होगा । उनके इस प्रस्ताव का सभी दलों के सांसद ने मेज थपथपा कर स्वागत किया । वित्त मंत्री ने कहा कि देश को मेडिकल टूरिज्म से होने वाली आमदनी की सख्त जरूरत है । ये आमदनी साल दर साल बढ़ रही है , लेकिन इसकी संभावनाओं का सही तरीके से दोहन नहीं हुआ है । पूरे यूरोप , मिडिल ईस्ट और अमेरिका

ये पोस्ट आपकी आंखों में अंगुली डालकर कुछ कह रही है!

दिलीप मंडल कितने आदमी थे? दरअसल एक भी नहीं! सवाल तो आसान था और जवाब भी उतना ही आसान हो सकता था। सवाल था - आपकी जानकारी में क्या कोई ऐसा दलित पत्रकार है जो किसी मीडिया संस्थान में महत्वपूर्ण पद पर हो। महत्वपूर्ण पद पर का मतलब क्या? फैसला लेने वाले ऊपर के बीस पदों को महत्वपूर्ण मान लीजिए। ये सवाल एक साथ मोहल्ला, कबाड़खाना, इयत्ता और रिजेक्टमाल पर डाला गया था। जवाब में आए तीन नाम- बनवारी जी, गंगा प्रसाद और ए एल प्रजापति। बनवारी जी अरसा पहले रिटायर हो गए हैं, गंगा प्रसाद जी जनसत्ता में पटना कॉरेसपॉंडेंट हैं और ए एल प्रजापति जी ओबीसी हैं। मुझे अलग अलग संस्थानों में इन तीनों के साथ काम करने का मौका मिला है। दरअसल इस सवाल का जवाब सीधा और आसान-सा है। इक्कीसवीं सदी के पहले दशक के उत्तरार्ध में लोकतांत्रिक देश भारत की मीडिया में एक भी दलित किसी महत्वपूर्ण पद पर नहीं है। दलित मतलब क्या? दलित यानी इस देश का हर छठा आदमी। तो इसमें क्या बात हो गई? बात तो है। इसका असर दरअसल उस कंटेंट पर पड़ता है जो मीडिया बनाता है। सवाल विश्वसनीय होने का है। सवाल उस प्रामाणिकता का है, जिसका मीडिया में दूसरे कई और कार

एक दलित पत्रकार की तलाश है...

Image
...जो किसी मीडिया संस्थान में महत्वपूर्ण पद पर हो। आप पूछेंगे ये एक्सरसाइज क्यों? बारह साल पहले वरिष्ठ पत्रकार बी एन उनियाल ने यही जानने की कोशिश की थी। 16 नवंबर 1996 को पायोनियर में उनका चर्चित लेख इन सर्च ऑफ अ दलित जर्नलिस्ट छपा था। उस समय उन्होंने प्रेस इन्फॉर्मेशन ब्यूरो के एक्रिडेटेड जर्नलस्ट की पूरी लिस्ट खंगाल ली थी। प्रेस क्लब के सदस्यों की सूची भी देख ली। लेकिन वो अपने मित्र विदेशी पत्रकार को मुख्यधारा के किसी दलित पत्रकार से मिलवा नहीं पाए। उनियाल साहब के काम को पाथब्रेकिंग माना जाता है और इसकी पूरी दुनिया में चर्चा हुई थी। 1996 के बाद से अब लंबा समय बीत चुका है। क्या हालात बदले हैं? यकीन है आपको? जूनियर लेवल पर कुछ दलितों की एंट्री का तो मै कारण भी रहा हूं और साक्षी भी। लेकिन क्या भारतीय पत्रकारिता में समाज की विविधता दिखने लगी है? अभी भी ऐसा क्यों हैं कि जब मैं पत्रकारिता के किसी सवर्ण छात्र को नौकरी के लिए रिकमेंड करके कहीं भेजता हूं तो उसे कामयाबी मिलने के चांस ज्यादा होते हैं। दलित और पिछड़े छात्रों को बेहतर प्रतिभा के बावजूद नौकरी ढूंढने में अक्सर निराशा क्यों हाथ लगती

Most Read Posts

रामेश्वरम में

Bhairo Baba :Azamgarh ke

इति सिद्धम

Maihar Yatra

Azamgarh : History, Culture and People

पेड न्यूज क्या है?

...ये भी कोई तरीका है!

विदेशी विद्वानों के संस्कृत प्रेम की गहन पड़ताल

सीन बाई सीन देखिये फिल्म राब्स ..बिना पर्दे का

आइए, हम हिंदीजन तमिल सीखें