यात्रा वृत्तांत

               पंचमढ़ी के प्रपात
                                  ---हरिशंकर राढ़ी  

मध्यप्रदेश के विस्तृत मैदानी और पठारी क्षेत्रफल में यदि प्रकृति की सुंदरता निहारनी हो तो पंचमढ़ी के अलावा अन्य कोई विकल्प हो ही नहीं सकता। सतपुड़ा की रानी के नाम से प्रसिद्ध इस पहाड़ी स्थल का अंदाज ही निराला है। न तो किसी मुख्य रेलमार्ग या राजमार्ग पर होने के बावजूद समय-समय पर यहां पहुंचने वाले सैलानियों की बड़ी संख्या से इसकी रमणीयता और लोकप्रियता का अंदाजा लग जाता है। हाँ, एक बार इस पर्वतीय संुदरी के पास पहुंच जाने पर तन-मन की सारी थकान उतर जाती है। सुंदरता में चार चांद तब और लग जाते हैं यदि भ्रमण पावस काल में हो। वस्तुतः पंचमढ़ी घूमने का सर्वोत्तम समय वर्षाऋतु ही है।
अगस्त महीने की उमस और दोपहरी की धूप झेलते हुए जब हमारी बस मैदानी इलाका पार कर सतपुड़ा की पहाड़ियों की सर्पीली सड़क पर चढ़ने लगी तो मौसम सुहावना हो आया। रिमझिम बूँदों के बीच हवा की शीतलता और प्राकृतिक सुंदरता ने हमारी आंखों को बांध लिया। यह मार्ग हिमालयी सड़कों की भांति खतरनाक नहीं लगता, इसलिए यात्री का पूरा ध्यान आनंद पर ही होता है। यहीं से पंचमढ़ी यात्रा की सफलता का आभास होने लग जाता है। जितना भी समय पंचमढ़ी की वादियों में बीतता है, वह नितांत अपना और विशिष्ट होता है।

दिल्ली से भोपाल तक की हम छह जनों की यात्रा रात में पूरी हो गई और सुबह हम भोपाल से पिपरिया के लिए दूसरी गाड़ी में सवार हो गए। दरअसल पंचमढ़ी का निकटतक रेलवे स्टेशन पिपरिया है जो मुंबई जबलपुर रेलमार्ग पर पड़ता है। दिल्ली से पिपरिया के लिए जबलपुर जाने वाली एक ही गाड़ी है जो बहुत अधिक समय ले लेती है। सो यह निश्चित हुआ कि भोपाल से गाड़ी बदलकर इटारसी होते हुए पिपरिया पहुँचा जाए। पिपरिया हम दोपहर में पहुंच गए। टैक्सी वालों के भाव बहुत ऊँचे थे, इसलिए हमने बस अड्डे से बस पकढ़ी और हंसते बोलते पंचमढ़ी की ओर चल पड़े।

पंचमढ़ी को स्थानीय भाषा में पचमढ़ी कहते हैं। पंचमढ़ी की सीमा में प्रवेश करते ही उड़ती-उड़ती आवाजें पड़ने लगीं कि होटल बुक हो चुके हैं किंतु हमें सहज विश्वास नहीं हुआ। लेकिन यह सच हमें एक-दो होटलों की देहरी लांघते ही मालूम हो गया। जिन कमरों का किराया आठ सौ या अधिकतम एक हजार होना चाहिए था, वे लगभग चार हजार में थे। ऐसी कीमत देखकर माथे पर पसीना चुहचुहा आया, हालांकि रिमझिम बारिश हो रही थी और ठंडी हवा भी चल रही थी। दरअसल, अधिकतर लोगों की भांति हमने भी पचमढ़ी भ्रमण का कार्यक्रम छुट्टियों को ध्यान में रखते हुए बनाया था। स्वतंत्रता दिवस के अड़ोस-पड़ोस में दूसरा शनिवार और रविवार पड़ रहा था और कुल मिलाकर तीन छुट्टियां मिल रही थीं। इस कारण पूरा पंचमढ़ी पर्यटकों से भर रहा था और होटल वालों को यह पता था। होटल और टैक्सी यूनियन वाले इस अवसर का लाभ उठाने में किसी प्रकार की रियायत बरतने या मौका चूकने को तैयार नहीं थे। हर जगह एक भी दर, यहाँ तक कि साधारण तो क्या,गली कूचों के टुटपंुजिए होटलों का भी सितारा बुलंद था।  ”क्या करें जी, हमारे कमाने के यही तो दो-चार दिन हैं ! फिर पंचमढ़ी कौन आता है? मक्खियां मारते रहो। खर्चा भी नहीं निकलता।“ अर्थात् पूरे साल का बिजनेस एक -दो हफ्ते में ही करना है। खैर, काफी देर तक छान-बीन और भाव-ताव करके हमें उसी होटल में आना पड़ा जिसमें हमने सबसे पहले पूछताछ की थी। दो रात का किराया मोलभाव के बाद साढ़े छह हजार मंे तय हुआ और हमें लगा कि हम सस्ते छूटे।

कमरे में सामान पटककर तरोताजा होकर बूंदाबांदी के बीच चाय पीने और बाजार देखने के लिहाज से हम बाहर निकले। सूरज अब तक डूब गया था और हल्के अंधेरे में जलते बल्बों मंे पंचमढ़ी बाजार बहुत संुदर लग रहा था। पंचमढ़ी में तमाम जिप्सी फोर बाई फोर आवाजाही कर रही थीं।  पता चला कि पंचमढ़ी दर्शन के लिए एकमात्र यही साधन हैं। यहां की ऊँची-नीची, ऊबड़-खाबड़ पहाड़ियों के लिए केवल यही उपयुक्त हैं। छह-सात सवारियां बैठ जाती हैं और पूरे एक दिन, एक रूट का खर्चा ढाई हजार रुपये है। इसके अतिरिक्त वन विभाग का एंट्री पास एक हजार रुपये का अलग। अर्थात् एक दिन का भ्रमण साढे़ तीन हजार में। हम तो छह मित्र थे, इसलिए वजन ज्यादा नहीं पड़ने वाला किंतु जो दंपती या एक परिवार के तीन चार सदस्य थे, उनके माथे पर महंगाई की मार साफ दिख रही थी। वन विभाग का प्रवेश शुल्क तो हमेशा ही एक हजार रहता है, किंतु टैक्सी वालों ने भी शुभ मुहूर्त देखते हुए किराया एक हजार बढ़ा दिया था, अन्यथा सामान्य सीजन में डेढ़ हजार ही होता हैै। यह तय हुआ कि होटल वाले से बात करके कल सुबह ही तय किया जाएगा।
बी  फॉल  का  एक दृश्य        छाया : हरिशंकर राढ़ी 

अगली सुबह पंचमढ़ी को इंद्रदेव ने पूरी तरह अपने कब्जे में ले लिया था। बारिश को जैसे आज ही यहां रहना था। वैसे, पंचमढ़ी इंद्र के आगोश में बहुत ही मनभावन लग रही थी, लगातार भीगती और नहाती हुई। लगभग दस बज गए तो निर्णय हुआ कि अब टैक्सी बुला ली जाए। बारिश तो पूरी तरह रुकेगी नहीं और तमाम सैलानी जिप्सियों में भरे चले जा रहे थे। हाँ, एक व्यवस्था अवश्य थी। पाॅलीथिन के कामचलाऊ ओवरकोट खरीदो और निकल लो। पूरी बाजू से आधी बाजू तक के टोपी सहित। सो, हमने भी जिप्सी में घुसते ही ड्राइवर साहब से निवेदन कर दिया कि किसी दूकान पर रोककर हमें भी पॅालीकोट खरिदवा दें। संयोग ऐसा था कि जिस जगह उसने टैक्सी रोकी, वहां की नजदीकी दूकान पर ओवरकोट अच्छा नहीं मिला। बारिश जारी थी, हममें से एक ही सज्जन दूकान पर गए थे और उन्हें जो ही मिला उठा लाए। चलिए काम तो हो गया। नुक्स कौन निकाले, हाँ वह बारिश को रोकने में ठीक से कामयाब नहीं हुआ।

पचमढ़ी के अधिकांश दर्शनीय स्थल संरक्षित वन क्षेत्र में पड़ते हैं और वन विभाग प्रवेश हेतु एक हजार रुपये शुल्क के रूप वसूलता है। यह शुल्क अदा कर हम अपने पहले गंतव्य ‘बी’ फाॅल की तरफ चल दिए। कुल ही दूर सफर करने के बाद जो पहाड़ी संकरे, अधकच्चे और चढ़ाई वाले रास्ते मिलने शुरू हुए कि रोमांच हो आया। अभी तो हम ढलान पर थे और ढलान देखी नहीं जा रही थी। कहीं-कहीं तो इतनी खड़ी ढलान की लगता हमारी जिप्सी सीधे नीचे ही जाएगी और स्वाभाविक है कि वापसी वालों के लिए उतनी ही खड़ी चढ़ाई। अब जाकर चारो पहियों में गियर होने का असर और पचमढ़ी में केवल जिप्सी का चलन होने का कारण समझ में आने लगा। इतनी ही क्यों, वहां के ड्राइवरों की हिम्मत और कुशलता की प्रशंसा न करना भी उनके साथ अन्याय ही होगा।

बी  फॉल  के सामने  हरिशंकर राढ़ी 

‘बी’ फॅाल: पचमढ़ी के संुदर और दर्शनीय स्थलों में ‘बी’ फाॅल अपनी ऊँचाई, तीव्र प्रवाह और ध्वनि के लिए प्रसिद्ध है। हमारी टैैक्सी इस फाॅल से कुछ दूर ही रुक गई क्योंकि इसके आगे वाहन योग्य रास्ता नहीं था। हम लोग लगभग तीन-चार सौ मीटर पैदल चलकर जब एक छोटे प्रपात पर पहुंचे तो लगा कि सारा श्रम बेकार गया। बारिश हो रही थी और पर्यटक आ-जा रहे थे। दिशा से हमें हरहराहट का तीव्र वेग सुनाई दे रहा था और कुछ यात्री उधर ही चले जा रहे थे। तो अभी कुछ बाकी है। और जब उस तरफ कदम बढ़े तो प्रकृति के अनूठे रूप के साक्षात्कार का आभास होने लगा। आगे पतली पगडंडियों और सीढ़ियों से लगातार नीचे उतरते हुए एक दिव्य, मनोहारी झरने का संगीत, नृत्य और दृश्य हमें सम्मोहित करने लगा। यह झरना ही ‘बी’ फाॅल के नाम से जाना जाता है। दरअसल जो छोटा झरना पहले मिला था वह ‘ए’ फाॅल और ये दूसरा विशाल वाला ‘बी’ फाॅल है। मौसम बारिश का था और पानी की प्रचुरता के कारण यह अपनी पूरी जवानी पर था। सतपुड़ा की पहाड़ियां हिमालय की भांति बर्फीली नहीं हैं और ये झरने साल के अन्य मौसमों में गरीब हो जाते हैं और इनका सौंदर्य चुक जाता है। हम सौभाग्यशाली थे कि मानसून काल में गए थे और वह भी उस दिन बारिश भी हो रही थी। वस्तुतः यह झरना पचमढ़ी की शान है।

रजत और अप्सरा प्रपात:  पचमढ़ी के प्रपात मार्ग कितने खतरनाक हैं, इसका पता हमें ‘बी’ फाॅल से वापस आते और रजत फाॅल जाते समय लगा। एकाध जगह तो इतनी तीव्र चढ़ाई, अंधे मोड़ और कच्चे रास्ते पड़े और ऊपर से सामने से आती दूसरी जिप्सी कि सांसें हलक में अटक जाएं। यदि रास्ते पक्के हों तो कुछ गनीमत भी। हाँ, इसमें संदेह नहीं कि आनंद भी कम नहीं आ रहा था। रजत और अप्सरा प्रपात पचमढ़ी के दूरस्थ दर्शनीय स्थानों में हैं और घने जंगल में स्थित हैं। गाड़ियां एक निश्चित स्थान तक ही जा पाती हैं और आगे लगभग दो किलोमीटर पैदल ही जाना होता है। कुछ दूर चलने के बाद पगडंडियां शुरू हो जाती हैं। हमारा दल कुल छह लोगों का था, सो गप्पें लड़ाते और टीका-टिप्पणी करते कब पहुंच गए, पता ही नहीं चला। इन दोनों झरनों की ओर जाने वाले सैलानियों की संख्या कम नहीं थी। युवक-युवतियां, बच्चे और उम्रदराज, हर तरह के लोग कुदरत के रूप को निहारने चले जा रहे थे।
सिल्वर फॉल की ओर             छाया : हरिशंकर राढ़ी 
रजत प्रपात की तरफ जाने वाले दर्शकों की संख्या कम ही होती है। कारण यह है कि यह प्रपात बहुत बड़ा नहीं है और अपेक्षाकृत दुर्गम है। घाटी के दूसरी ओर गिरता यह झरना दूर से चांदी की धारा जैसा लगता है, अतः इसका नाम रजत प्रपात (सिल्वर फाॅल) है। अप्सरा प्रपात कुछ बड़ा और चैड़ी धार वाला है जिसमें कुछ सैलानी नहाने का आनंद भी लेते हैं। इसके लिए भी धरातल से काफी नीचे जाना पड़ता है। जब हम वहां पहुंचे तब भी कुछ युवक और युवतियाँ झरने के नीचे नहाने का सुख लूट रहे थे और युवतियों का जलविहार देखकर एक बार वाकई लगा कि इसका नाम अप्सरा प्रपात ही होना चाहिए।

पांडव गुफा  का  एक दृश्य                   छाया : हरिशंकर राढ़ी 
पांडव गुुफाएँ: पचमढ़ी नगर से कुछ ही दूरी पर पांडव गुफाएं हैं। ये गुफाएं एक ऊँची सी पहाड़ी को काट कर  बनाई गई हैं। कहा जाता है कि पांडव अपने वनवास के दिनों में यहीं रहा करते थे और ये गुफाएं उन्होंने ही बनाई है। हालांकि एक सामान्य समझ केे व्यक्ति के दृश्टिकोण से यह बात सही नहीं लगती। कारण यह कि ये गुफाएं न तो इतनी पुरानी लगती हैं और न प्राकृतिक रूप से बनी हुई। हाँ, यह मानव निर्मित जरूर लगती हैं और आस पास का वातावरण देखकर भी नहीं लगता कि ये गुफाएं पांडवनिर्मित हैं। ये सामान्यतः किसी भी सामान्य व्यक्ति के रहने लायक हैं और कुछ हद तक कमरों के आकार की हैं। ऊपर तक पतली सीढ़ियां जाती हैं। पांडव गुफाएं संख्या में पांच हैं जिनके आधार पर ही इस स्थान का नाम पंचमढ़ी या पचमढ़ी रखा गया। हो सकता है कि पांडव घूमते-घामते कुछ दिन के लिए यहां प्रवास पर आए हों। यहां पर गुफा संख्या तीन पर एक लेख उत्कीर्ण है जिससे पता चलता है ये गुफा किसी भगवक नामक भिक्षु ने बनाई थी जो संभवतः गुप्तकाल में यहां आया था। हाँ, यहां थोड़ा बहुत समय आराम से बिताया जा सकता है। गुफा की ऊँचाई से पचमढ़ी का दृश्य सुंदर लगता है।

जटाशंकर गुफा के सामने   हरिशंकर राढ़ी 
जटाशंकर गुफा: यह पचमढ़ी की सर्वोत्तम गुफा और बी फाॅल समान नयनाभिराम स्थल है। पचमढ़ी बस स्टैंड और शासकीय महाविद्यालय से लगभग दो किलोमीटर की दूरी पर स्थित यह धार्मिक और प्राकृतिक सौंदर्य का स्थल पचमढ़ी यात्रा को सार्थक कर देता है। ज्ञातव्य है कि यह जिप्सी की दूसरी दृश्य सूची में आता है और पहले दिन की ढाई हजार की बुकिंग से बाहर है। यदि यहां जाना है तो इसके साथ के अन्य गंतव्य जोड़कर फिर एक दिन का टैक्सी किराया खर्च करना होगा। समस्या यह है कि यहां सामान्य आॅटो और नगर सेवा की टैक्सियां नहीं चलतीं कि आप अपनी इच्छानुसार जहां चाहंे जाएं और जहां चाहें न जाएं। यहां तो आपको पैकेज ही लेना पड़ेगा, हाँ आप कोई बिंदु चाहें तो छोड़ने के लिए स्वतंत्र हैं।

जटाशंकर गुफा का आंतरिक दृश्य             छाया:  हरिशंकर राढ़ी 
हमारे साथ ऐसी कोई समस्या नहीं थी। देश के अधिकांश पर्यटन और धार्मिक स्थलों को घूमने से इतना तो अनुभव हो ही चुका है कि आधे से अधिक दर्शनीय बिंदु केवल कहने और गिनने के लिए होते हैं। सो हमने स्थानीय लोगों से पहले ही पता कर लिया था और छहो जनें जटाशंकर के लिए पैदल ही अगली सुबह निकल पड़े। वैसे भी हमारे पास समय कम था और हमें भोपाल तथा भीमबेटका देखने केे लिए आज ही दोपहर से निकलना था। होटल का किराया यूं भी यहां पर्यटकों को ठहरने नहीं दे रहा था।

जटाशंकर गुफा के रास्ते में 
मौसम बहुत ही सुहावना था। आसमान में बादल छाए हुए थे और तापमान सुखकर था। हम सभी बातें करते, हंसते और सुंदर दृश्यों के साथ फोटोग्राफी करते जटाशंकर पहंुच ही गए। यहां एक बहुत ऊँचे पहाड़ के नीचे एक गुफा और शिव मंदिर है। कहा जाता है कि जब भगवान शिव ने भस्मासुर का हाथ रखते ही भस्म हो जाने की शक्ति प्रदान की तो वह राक्षस वर की परीक्षा हेतु शिव के पीछे ही पड़ गया। भगवान शिव अपनी जान बचाकर भागे और यहीं गुफा मंे छिप गए। उन्हांेने अपनी पहचान छिपाने के लिए जटा यहीं उतार दी और इस स्थल का नाम पड़ गया जटाशंकर। यहां पहाड़ी के नीचे एक गुफानुमा मंदिर है जिसमें ठीक से खड़ा हो पाना संभव नहीं होता। हर तरफ ऊँची खड़ी पहाड़ियां हैं। कहीं कहीं झरने गिरते दिख जाते हैं और पूरा वातावरण मनोरम हो जाता है। गुफा की ओर जाते समय ही संकट मोचन हनुमान मंदिर है। सड़क के किनारे चाय और शीतल पेय की दूकाने मिल जाती हैं। प्रसाद और धार्मिक पुस्तकें इत्यादि तो मिलना स्वाभाविक ही है।

रजत प्रपात 
यहां हमने काफी समय बिताकर प्रकृति का आनंद लिया और भोपाल के लिए दोपहर दो बजे वाली बस पकड़ने के इरादे से वापस हो लिए। पचमढ़ी में दो रात्रि का निवास एक सुखद एहसास दे गया। हालांकि हम यहां के दर्शनीय स्थलों से इतने प्रभावित नहीं हुए, किंतु यहां की शांति, प्रकृति और पर्यटकीय विविधता देखकर बहुत अच्छा लगा था।

आवश्यक जानकारियाँ: पचमढ़ी का निकटतम रेलवे स्टेशन पिपरिया है जो मुंबई जबलपुर रेलमार्ग पर पड़ता है। जबलपुर की ओर जाने वाली लगभग सभी गाड़ियां पिपरिया में ठहरती हैं। यहां से बस द्वारा या किराए की टैक्सी से पचमढ़ी आराम से पहंुचा जा सकता है। पचमढ़ी मध्यप्रदेश के होशंगाबाद जिले मंे पड़ता है। पूरा पचमढ़ी कैंट क्षेत्र है और सेना की प्रचुरता है। एक प्रकार से यहां सेना का ही कब्जा है और प्रशासन भी उसी प्रकार है। भोपाल और जबल पुर से सीधी बसें मिल जाती हैं। पिपरिया से पचमढ़ी लगभग 60 किमी तथा भोपाल से लगभग 200 किमी है। पचमढ़ी में लगभग हर प्रकार के होटल उपलब्ध हैं और भोजनालय भी बस स्टैंड के पास बहुतायत में हैं। वैसे जलाराम गुजराती भोजनालय शुद्ध शाकाहारी भोजन और अपनी सफाई के लिए प्रसिद्ध है।

















Comments

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (25-05-2018) को "अक्षर बड़े अनूप" (चर्चा अंक-2981) (चर्चा अंक 2731) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

    ReplyDelete

Post a Comment

सुस्वागतम!!

Popular posts from this blog

रामेश्वरम में

इति सिद्धम

Bhairo Baba :Azamgarh ke

Most Read Posts

रामेश्वरम में

Bhairo Baba :Azamgarh ke

इति सिद्धम

Maihar Yatra

Azamgarh : History, Culture and People

पेड न्यूज क्या है?

...ये भी कोई तरीका है!

विदेशी विद्वानों के संस्कृत प्रेम की गहन पड़ताल

सीन बाई सीन देखिये फिल्म राब्स ..बिना पर्दे का

आइए, हम हिंदीजन तमिल सीखें