सागर कमल की पाँच कविताएँ
पेशे से शिक्षक सागर कमल मेरठ जिले के बाफर गाँव के रहने वाले हैं. एक सहज, संवेदनशील और उत्साही युवा सागर तोमर (मूल नाम) के लिए खेती-किसानी सिर्फ नारा नहीं है. किसान परिवार में जन्मे सागर आज भी गाँव में रहते हैं और गाँव के ही संस्कारों में रचे-बसे हैं. वह गाँव आपको सागर की कविताओं में मूल संवेदना के रूप में सहज भाव से बहता हुआ दिखेगा. फिलहाल उनकी पाँच कविताएँ:
क्योंकि मैं सूर्य हूँ
मैं उगता हूँ
मैं चढ़ता हूँ
मैं जल-जलकर चमकता
हूँ
डूबना भी मुझी को
पड़ता है
क्योंकि मैं सूर्य
हूँ !
मैंने भोगी है
परिवर्तन की अनंत
ज्वलंत यात्रा
यही जलता हुआ
परिवर्तन मेरी पूँजी है
इस पूँजी का समान
वितरण
करना मुझी को पड़ता
है
क्योंकि मैं सूर्य
हूँ !
मैं ही तो हूँ
सृष्टि का मूलाधार
मेरे बिना
तुम्हारे कल्प-विकल्प क्या हैं ?
तुम्हारी सर्द
विचारों से भरी दुनिया को
भावों का ताप ,
देना मुझी को पड़ता
है
क्योंकि मैं सूर्य
हूँ !
आशा !
एक अतिक्षीण
डोरी-सी
कभी तो अदृश्य
जिस पर हम जीवन के
महत्त्वपूर्ण
निजी सुख-दु:खपूर्ण
आवरण टाँगते हैं,
सुखाते हैं
और निराशा ?
मुखद्वार में ठुकी,
एक अरसे से रुकी
थोड़ा आगे को झुकी
स्थूल और मज़बूत
कील के जैसी
जो घर से बाहर
निकलते
रोज़ ही आते-जाते
माथे से टकराती है
और अक्सर घायल कर
जाती है ⃓
तो क्यों न डोरी
को कील से
बाँध,
तानकर स्थिरता दी जाए ?
क्योंकि ‘निराशा’
का शब्दांत भी
‘आशा’
ही तो है !
तुमने हमेशा मुझे
एक टूटी हुई
चप्पल की तरह
निबाहा !
और मैंने ?
तुम्हें अपनी
लाइब्रेरी में रखी
किसी किताब की तरह
चाहा !
मैं तुम्हारे लिए
सदा ही
एक डस्टबिन से
ज़्यादा
कुछ नहीं रहा
और तुम मेरे निकट
जैसे मोक्ष बनकर
रहीं !
हमारा संबंध भी
नाजायज़ माँ-बाप की
तरह था
कि ना कोई दोस्ती
ना दुश्मनी ही रही
गड़े हुए धन पर
साँप की तरह था !
ये निबाहट,
ये चाहत
ऐसे रही कि जैसे
खट्टी दही में
थोड़ी मीठी खाँड
मिला दी जाए,
जैसे बिनब्याही
माँ
अपने बच्चे को
जिए जाए !
चाहे जो कुछ रहा
हो
तुम्हारे लिए
पर मेरे लिए
कमबख़्त
प्रेम से कम कुछ भी नहीं ! !
जैसे कि . . .
जैसे नदी में
दोहराव नहीं होता
जैसे हवा सिर्फ़
बहना जानती है
जैसे कविता का
धर्म है
सिर्फ़ कविता
होना !
जैसे हाली धरती का
सीना चीरता है
इसलिए नहीं कि उसे
‘चीर’
पसंद है
बल्कि इसलिए कि
वह बीज को चूमना
और फ़सल को दुलारना
चाहता है !
जैसे किताब का
मुड़ा हुआ पन्ना
ठोस प्रमाण है
लगावट का
जैसे चूल्हे की आग
में
संघर्ष पकता है
माँ के जनमभर का ! !
जैसे पीढ़ियों का
अंतराल
एक चिलम के धुएँ
में उड़ जाता है
जैसे धुआँ शायद
बादल बन जाता है !
जैसे जैसे जैसे .
. .
कि मैं बस तुम्हें
प्रेम करना चाहता
हूँ
क्योंकि यही तो एक
समस्या है
कि इसके सिवा
मुझे कुछ आता भी
नहीं ! !
इससे पहले कि
पतझड़ बसंत में
बदले
और सूखे पत्ते फिर
लहरा उठें
इससे पहले कि
बंजर धरती हाली को
पुकारे
और बेचारी फिर से
धीरज धरे
इससे पहले कि
भादवे का रामजी
टूटकर बरसे
और मेरा मन फिर
तरसे
इससे पहले कि
असोज के सफ़ेद बादल
काले हो जाएँ
और अपेक्षा के बीज
में अंकुर निकल आएँ
इससे पहले कि
अंकुर विवश हो
पौधा बनने के लिए
और उस पेड़ की
भावनाएँ फिर पिघलें !
इससे पहले कि . .
.
मेरे शब्दों को
तुम सिर्फ़
‘अच्छी
कविता’
कहकर बरी हो जाओ . . .
तुम लौट जाओ
हाँ,
हाँ तुम लौट जाओ ! !
© सागर कमल
सु न्दर सृ जन और अभिव्यक्तियां
ReplyDeleteबहुत सारा धन्यवाद आदरणीय सुशील कुमार जोशी जी 🙏
Deleteशिक्षक-दिवस की अनंत शुभकामनाओं सहित कृण्वंतो विश्वमार्यम् 🙏🙏🙏
सागर कमल
सुन्दर और सारगर्भित।
ReplyDeleteशिक्षक दिवस की बहुत-बहुत बधाई हो आपको।
ख़ूब सारा धन्यवाद आदरणीय डाॅ• रूपचंद्र शास्त्री 'मयंक' जी 🙏
Deleteशिक्षक-दिवस की शुभकामनाएँ स्वीकार करें 🙏
कृण्वंतो विश्वमार्यम् 🙏
सर अतिसुन्दर
ReplyDelete7007690363
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