जॉर्ज़ ओरवेल, संसद और वाराह पुराण

एक ब्लॉगर बंधु हैं अशोक पांडे जी. उन्हें सुअरों से बेइंतहां प्यार हो गया है. इधर कुछ दिनों से वह लगातार सुअरों के पीछे ही पड़े हुए हैं. हुआ यह कि पहले तो उन्होंने अफगानिस्तान में मौजूद इकलौते सुअर की व्यथा कथा कही. यह बताया कि वहां सुअर नहीं पाए जाते और इसकी एक बड़ी वजह वहां तालिबानी शासन का होना रहा है. इसके बावजूद किसी ज़माने सोवियत संघ से बतौर उपहार एक सुअर वहां आ गया था. उस बेचारे को जगह मिली चिड़ियाघर में. पर इधर जबसे अमेरिका में स्वाइन फ्लू नामक बीमारी फैली है, उसे चिड़ियाघर के उस बाड़े से भी हटा दिया गया है, जहां वह कुछ अन्य जंतुओं के साथ रहता आया था. अब उस बेचारे को बिलकुल एक किनारे कर दिया गया है, एकदम अकेले. जैसे हमारे देश में रिटायर होने के बाद ईमानदार टाइप के सरकारी अफसरों को कर दिया जाता है.
कायदे से देखा जाए तो दोनों के अलग किए जाने का कारण भी समान ही है. संक्रमण का. अगर उसके फ्लू का संक्रमण साथ वाले दूसरे जानवरों को हो गया तो इससे चिड़ियाघर की व्यवस्था में कितनी गड़बड़ी फैलेगी इसका अंदाजा आप लगा सकते हैं. ठीक इसी तरह सरकारी अफसरी के दौरान भी ईमानदारी के रोग से ग्रस्त रहे व्यक्ति को अगर इस फील्ड में आए नए रंगरूटों के साथ रख दिया गया और उन्हें कहीं उसका संक्रमण हो गया तो सोचिए कि व्यवस्था बेचारी का क्या होगा? वैसे सुअर जब झुंड में था तब भी यह सहज महसूस करता रहा होगा, इसमें मुझे संदेह है. क्योंकि इसे सुअरों के साथ तो रखा नहीं गया था. वहां इसके अलावा कोई और सुअर है ही नहीं, तो बेचारे को साथ के लिए और सुअर मिले तो कैसे? इसे अपनी बिरादरी के बाहर जाकर हिरनों और बकरियों के साथ चरना पड़ता था.
अब सच तो यह है कि ईमानदार टाइप के सरकारी अफसर भी बेचारे अपने आपको ज़िंदगी भर मिसफिट ही महसूस करते रहते हैं. उन्हें लगता ही नहीं कि वे अपनी बिरादरी के बीच हैं. बल्कि उनकी स्थिति तो और भी त्रासद है. क़ायदे से वे सरकारी अफसर होते हुए सरकारी अफसरों के ही बीच होते हैं, पर न तो बाक़ी के असली सरकारी अफसर उन्हें अपने बीच का मानते हैं और न वे बाक़ी को अपनी प्रजाति का मानते हैं. हालत यह होती है कि दोनों एक दूसरे को हेय नज़रिये, कुंठा, ग्लानि, अहंकार और जाने किन-किन भावनाओं से देखते हैं. पर चूंकि सरकारी अफसरी में ईमानदार नामक प्रजाति लुप्तप्राय है, इसलिए वे संत टाइप के हो जाते हैं. अकेलेपन के भय से. दूसरी तरफ़, असली अफसर भी कुछ बोलते नहीं हैं, अभी शायद तब तक कुछ बोलेंगे भी नहीं जब तक कि समाज में थोड़ी-बहुत नैतिकता बची रह गई है.
यक़ीन मानें, सुअरों से मैं यहां सरकारी अफसरों की कोई तुलना नहीं कर रहा हूं. अगर कोई अपने जीवन से इसका कोई साम्य देखे तो उसे यथार्थवादी कहानियों की तरह केवल संयोग ही माने. असल बात यह है कि उस सुअर की बात आते ही मुझे जॉर्ज़ ओरवेल याद आए और याद आई उनकी उपन्यासिका एनिमल फार्म. यह किताब आज भी भारत के राजनीतिक हलके में चर्चा का विषय है. ‘ऑल मेंन आर एनिमीज़. ऑल एनिमल्स आर कॉमरेड्स’ से शुरू हुई पशुमुक्ति की यह संघर्ष यात्रा ‘ऑल एनिमल्स आर इक्वल, बट सम एनिमल्स आर मोर इक्वल’ में कैसे बदल जाती है, यह ग़ौर किए जाने लायक है. इसे पढ़कर मुझे पहली बार पता चला कि सुअर दुनिया का सबसे समझदार प्राणी है. अब मुझे लगता है कि वह कम से कम उन दलों से जुड़े राजनेताओं से तो बेहतर और समझदार है ही, जहां आंतरिक लोकतंत्र की सोच भी किसी कुफ्र से कम नहीं है. बहरहाल इस बारे में मैं कुछ लिखता, इसके पहले ही अशोक जी ने जॉर्ज़ ओरवेल के बारे में पूरी जानकारी दे दी.
वैसे सुअर समझदार प्राणी है, यह बात भारतीय वांग्मय से भी साबित होती है. अपने यहां हज़ारों साल पहले एक पुराण लिखा गया है- वाराह पुराण. भगवान विष्णु का एक अवतार ही बताया जाता है – वराह. वाराह का अर्थ आप जानते ही हैं, अरे वही जिसे पश्तो में ख़ांनजीर, अंग्रेजी में पिग या स्वाइन तथा हिन्दी में सुअर या शूकर कहा जाता है. अफगानिस्तान में तो यह प्रतिबन्धित प्राणी है और हमारे यहां भी आजकल इसकी कोई इज़्ज़त नहीं है. पर भाई हमारी अपनी संस्कृति के हिसाब से देखें तो यह प्राणी है तो पवित्र.
अब मैंने ख़ुद तो वाराह पुराण पढ़ा नहीं. सोचा क्या पता कि मास्टर ने ही पढ़ा हो. उससे बात की तो उसने कहा, ‘यार तुम्हें बैठे-बिठाए वाराह पुराण की याद क्यों आ गई?’
ख़ैर मैंने उसे पूरी बात बताई. पर इसके पहले कि वह मेरा गम्भीर उद्देश्य समझ पाता उसने समाधान पेश कर दिया. क़रीब-क़रीब वैसे ही जैसे नामी-गिरामी डॉक्टर लोग मरीज़ के मर्ज को जाने बग़ैर ही दवाई का पर्चा थमा देते हैं. ‘अमां यार क्यों परेशान हो तुम एक सुअर को लेकर? आंय! बुला लो उसको यहीं. अभी नई लोकसभा बनने वाली है. जैसे इतने हैं, वैसे एक और रह लेगा. वैसे भी अभी पूरे देश में इनकी ही बहार है. अपने यहां तो इन्हें तुम चुनाव भर जहां चाहो वहीं देख सकते हो. हां, जीत जाने के बाद फिर सब एक ही बाड़े में सिमट कर रह जाते हैं.’
मास्टर तो अपनी वाली हांक कर चला गया. इधर मैं परेशान हूं. उसने भी वही ग़लती कर दी जो जॉर्ज ओरवेल ने की है. इतने पवित्र जंतु को भला कहां रखने के लिए कह गया बेवकूफ़. मैं उस सुअर के प्रति सचमुच सहानुभूति से भर उठा हूं. सोचिए, भला क्या वहां रह पाएगा वह? अगर उसे पता चला कि वह किन लोगों के साथ रह रहा है? जहां सभी किसी न किसी गिरोह के ज़रख़रीद हैं, जो अपने आका के फ़रमान के मुताबिक बड़े-बड़े मसलों पर हाथ उठाते और गिराते हैं, उसके ही अनुरूप बोलते, चुप रहते या हल्ला मचाते हैं और गिरोह का मुखिया पीढ़ी दर पीढ़ी एक ही ख़ानदान से चलता रहता है और उस पर तुर्रा यह कि यह दुनिया का सबसे प्राचीन और सबसे बड़ा लोकतंत्र है ......... ज़रा आप सोचिए, उस पर क्या गुज़रेगी.

Comments

  1. बड़े भाई, बड़ी भारी टाईप पोस्ट दिख रही है अनुभव के आधार पर..दिन में पढ़ते हैं इत्मिनान से. जब आप सो रहे होगे..फिर टिपियायेंगे!!!

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  2. मास्टर जी नें सही उत्तर फरमाया है .

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  3. अथ वाराह पुराणाय नमो नमः

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  4. वाराह पुराण का चमत्कार,
    आपको नमस्कार।
    सूकर की जय हो।

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  5. चलो एक सिम्पेथी तो मिली इस प्राणी को.....पहले ही लोग हड़काए रखते थे...इस फ्लू से खामखाँ ओर नजर में आ गया है......बेचारा आज की शहरी दुनिया में मिसफिट जो है जी....

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  6. कारण कुछ भी हो पर चर्चा में खूब हैं शूकरदेव...

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  7. यह पोस्ट पढ़ कर अपने दफ्तर के शीशे में शकल पुन: देखी। बदली न दिखी, पर डर जरूर हो गया अपने रिटायरमेण्ट के बाद होने वाले आइसोलेशन से।
    अभी कुछ साल बाकी हैं रिटायार्मेण्ट में - क्या डैमेज-कण्ट्रोल किया जा सकता है? जरा चिन्तन युक्त सलाह देने का कष्ट करें।

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  8. रोचक प्रस्तुति. भारत के सबसे बड़े वराह को देखना हो तो विदिशा आईये.

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  9. आदरणीय भाई ज्ञान दत्त जी!

    मैंने इस स्थिति को बड़े निकट से देखा है. इसीलिए निजी अनुभव से कह सकता हूं कि सतर्क रहें तो ठीक रहेगा. ब्लॉगिंग पर अपना परचम लहराए रहिए. यह आइसोलेशन से बचाएगा.

    और भाई सुब्रमणियन जी!

    इस उम्दा जानकारी के लिए धन्यवाद. पता नहीं विदिशा जा सकूंगा या नहीं, आप अपने ब्लॉग पर दिखा दीजिए वह मन्दिर.

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  10. :) :)

    अब सुब्रमणियन जी की वराह चर्चा का इंतजार है।

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  11. क्या बात है, सुअर से तो मैं भी प्यार करता हूं

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