भाष्य से उलझती गुत्थियां उर्फ़ अंग्रेज़ीदाँ होने का भूत

डॉ. गणेश पाण्डेय

हिंदी में महिला आलोचक नहीं के बराबर हैं। जब भी किसी महिला को आलोचना में काम करते देखता हूं, ख़ुशी होती है। अभी कल ही एक युवा भारती की मेरे एक उपन्यास पर स्वत:स्फूर्त ढंग से की गई पारदर्शी भाषा में टिप्पणी देखकर ख़ुशी हुई। मैं आलोचना में महिलाओं का उत्साह बढ़ाने के पक्ष में हूं। अलबत्ता, कभी-कभी गड़बड़ हो जाती है।

कल ही कवयित्री सविता सिंह जी का शमशेर बहादुर सिंह की एक कविता 'टूटी हुई बिखरी हुई' का भाष्य उलझाऊ हिंदी में लिखा देख, दुखी भी हुआ। और भी लेखक इस भाषा में लेख और भाष्य लिखते हैं। भाष्य कविता की गुत्थी को सुलझाने के लिए होता हैं, यहाँ भाष्य से उलझाने का काम लिया गया। हद तो तब हो गयी, जब मंगलेश डबराल की हिंदी में दर्ज़ की गई  असहमति का उत्तर सविता जी ने अंग्रेज़ी में देना शुरू कर दिया और फिर दोनों अंग्रेज़ी में भिड़ गए।

भले सविता जी कविताएं अच्छी लिखती हों, लेकिन यहां अंग्रेज़ी में उलझना उचित नहीं लगा। मंगलेश जी हों या सविता जी, जब आप ख़ुद को अंग्रेजी में व्यक्त करने में ज़्यादा सहज महसूस करते हैं, तो हिंदी कविता और हिंदी आलोचना लिखते ही क्यों हैं? अंग्रेजी में कविताएं और आलोचना लिखिए, क्या बुरा है? क्या संपादक महावीर प्रसाद द्विवेदी हिंदी की टाँग अपनी पत्रिका में टूटते देखना पसंद करते? वे किस हिंदी के पैरोकार थे?

शिवकिशोर तिवारी जी की बिंदुवार और विचारणीय टिप्पणी का जवाब सविता सिंह ने नहीं दिया, जबकि तिवारी जी का पहला वाक्य ही भाष्य पर बहुत भारी है-
"यह ढीला लेखन है - तीन चौथाई बेकार की बातें और अनावश्यक उद्धरण और एक चौथाई कविता की स्त्रीवादी टीका। अन्य लेखकों के उद्धरणों पर हमेशा भरोसा नहीं होता। उदाहरण के लिए जर्मेन ग्रियर के नाम से जो कुछ दिया है वह मुझे सही या सार्थक नहीं प्रतीत होता ('वस्तुनिष्टिकरण ' क्या होता है? )'

नोट :
1-हिंदी आलोचना का माध्यम हिंदी की सर्जनात्मक भाषा को बनाएं, जो रामचंद्र शुक्ल से लेकर रामविलास शर्मा और नामवर सिंह तक की भाषा है। शर्मा-सिंह से आगे कर्ण सिंह चौहान की पीढ़ी से लेकर आज तमाम नये आलोचक तक, इसी सर्जनात्मक भाषा का इस्तेमाल कर रहे हैं।

2-आलोचना को न अनुवाद बनाएं, न आलोचना की भाषा को अनुवाद की भाषा।

3-हिंदी के लेखकों को फिल्म के उन कलाकारों की तरह आचरण नहीं करना चाहिए, जो फिल्म में काम हिंदी में करते हैं और बाद में पत्रकारों से उस फ़िल्म के बारे में अंग्रेज़ी में बात करते हैं।

4- आप अंग्रेज़ी में अधिक सक्षम हैं, तो हिंदी को छोड़ दें, अंग्रेज़ी में काम करें।

5- ज़रूरत होने पर हिंदी के लेख में अंग्रेज़ी या दूसरी भाषाओं का उद्धरण या संदर्भ देना बुरा नहीं है। आप ज़रूरत होने पर ऐसे संदर्भों की झड़ी लगा दें।

6-आलोचना, पाण्डित्य-प्रदर्शन और अनावश्यक खण्डन-मण्डन का माध्यम नहीं है।

7-आलोचना का काम, रचना के मर्म को पाठक के लिए "सुलभ" बनाना है।

8- जिस आलोचना को पाठक हृदयंगम नहीं कर सकता, वह आलोचना नहीं, आलोचना का शव है।

9-आख़िर, आलोचना को भी रचना क्यों कहा जाता है?

10- मार्क्सवादी दृष्टि के बाद, स्त्रीवादी और दलितवादी दृष्टि आयी, क्या यह अंतिम है और इसे पाँच लाख साल तक चलना है? इस नज़रिये से आज के लेखन की जगह भक्तिकाल, रीतिकाल, छायावाद और नयी कविता को देखने का औचित्य क्या है? क्यों, क्यों, क्यों? और यह दृष्टि मुकम्मल है, इसकी गारंटी किसके पास है?

© Ganesh Pandey

 

  

Comments

Post a Comment

सुस्वागतम!!

Popular posts from this blog

रामेश्वरम में

इति सिद्धम

Bhairo Baba :Azamgarh ke

Most Read Posts

रामेश्वरम में

Bhairo Baba :Azamgarh ke

इति सिद्धम

Maihar Yatra

Azamgarh : History, Culture and People

पेड न्यूज क्या है?

...ये भी कोई तरीका है!

विदेशी विद्वानों के संस्कृत प्रेम की गहन पड़ताल

सीन बाई सीन देखिये फिल्म राब्स ..बिना पर्दे का

आइए, हम हिंदीजन तमिल सीखें