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Showing posts from June, 2020

जनता का ध्यान भटकाने का खेल

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इष्ट देव सांकृत्यायन   चीन एक ऐसा परोपकारी है जो चश्मा थमाकर आँखें छीन लेता है और चश्मा भी ऐसा जो सिर्फ़ धूप का होता है. कुछ नज़र आए तब तक तो वो अपने शिकार के पास आँखें होने का निशान भी ग़ायब कर देता है. भारत ने नेहरू के हाथ में अपनी कमान सौंपकर सिर्फ गलती की थी. उनके खानदान को सौंपकर ब्लंडर किया. ऐसी गलती जिसकी भरपाई कभी नहीं हो सकती. नेपाल की जनता ने कम्युनिस्टों पर कभी भरोसा नहीं किया. उसकी गलती सिर्फ यह है कि राजपरिवार के नरसंहार के बाद उसके पास कोई चारा नहीं बचा. दुर्भाग्य से माओवादियों के इस कुकृत्य में हिस्सेदार ख़ुद राजपरिवार के ही कुछ लोग हुए. इसका अभिप्राय उस युवराज से कतई न लिया जाए जिनके सिर बाद में बेवजह सारा दोष मढ़ा गया. उस वक्त जनता के पास कोई चारा नहीं था. सिवा इसके जो भी तथाकथित लोकतांत्रिक प्रक्रिया घोषित कर देती , उसे ही वह मान लेती. इसी क्रम में चीन के पोषित कम्युनिस्टों ने जबरिया नेपाल पर कब्जा कर लिया. चीन ने वहाँ एक झूठमूठ की सत्ता सौंपी नेपाली कम्युनिस्टों को और परदे के पीछे से चलाता वह खुद रहा. बीते करीब दो दशकों से चीन लगातार नेपाल की व्यवस्था को अराजकता

युद्ध में नहीं बदलेगा तनाव

इष्ट देव सांकृत्यायन भारत चीन सीमा पर तनाव को लेकर कुछ लोग युद्ध की आशंका से अभी चिंतित होने लगे हैं। स्वाभाविक है। बात केवल युद्ध की नहीं , उसके बाद बनने वाले हालात की होती है। इसका अंदाजा दोनों देशों को है। आशंका यह है कि अगर यह युद्ध शुरू हुआ तो केवल भारत चीन तक सीमित नहीं रहेगा। यह अंततः विश्वयुद्ध में बदल जाएगा। यह आशंका गलत नहीं है। युद्ध हुआ तो वाकई विश्वयुद्ध में बदलेगा। अमेरिका , इजरायल , आस्ट्रेलिया , फ्रांस जैसे बड़े पहलवान अभी से कमर कसने लगे हैं और सब भारत की ओर अखाड़े में कूद चुके हैं। कांग्रेसियों और कम्युनिस्टों के भारत के अनन्य टाइप मित्र देशों में एक रूस भी शामिल है। पहलवानों में बस एक वही है जो तटस्थ रहेगा। तटस्थ रहने का मतलब हम जानते हैं। भारत का अनन्य मित्र ६२ में भी तटस्थ रहा था। उस तटस्थता में इसने पूरी बेशर्मी के साथ युद्ध के लिए भारत को जिम्मेदार ठहराया था और साथ ही इस युद्ध को भाई और दोस्त के बीच बताया था। इसमें भाई उसके लिए चीन था और दोस्त भारत। अब भी जो लोग रूस को लेकर भ्रम में हों , उन्हें उसकी नई तटस्थता से समझ लेना चाहिए। उधर कांग्रेस और कम्यूनि

मैं क्यों नहीं लेता चीनी सामान

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इष्ट देव सांकृत्यायन  चीनी सामान खरीदने से मेरा परहेज कोई नया नहीं , बहुत पुराना है. और यह किसी राष्ट्रवाद की नहीं , बल्कि चीनी माल की समझ के नाते है. इसकी भी अपनी एक कहानी है और इस कहानी में समय के साथ कई आयाम जुड़ते चले गए. मैं जिस क्षेत्र से हूँ , वह नेपाल की सीमा से बिलकुल सटे है. नेपाल का सबसे मशहूर सीमावर्ती बाज़ार मेरे गाँव से बमुश्किल 50 किलोमीटर की दूरी पर है. उन दिनों लड़के आम तौर पर साइकिल से चले जाते थे. यह केवल लड़कों की ही बात नहीं है , साइकिल से ही और भी बहुत कुछ होता था और उसकी खबरें तो अखबारों में कम छपती थीं , पर कस्टम में तैनात सिपाही तक साल भर में लखपति बन जाते थे. बॉर्डर के आसपास के पुलिस वालों पर भी लक्ष्मी जी की कृपा ऐसे ही अपरंपार होती थी. गोरखपुर से सोनौली वाले रोड पर कहीं भी पोस्टिंग पाने के लिए पुलिस और कस्टम विभाग में निरंतर एक से एक उद्यम चलते रहते थे. हालांकि तब मुझे इन उद्यमों का कुछ पता नहीं था. इसकी वजह थी. तब भारत उदारीकृत नहीं हुआ था. हमारी अपनी तकनीक ऐसी नहीं थी कि हम उस तरह की चीजें बना पाते. भारतीय जन और उद्योग दोनों का जोर अच्छी और टिकाऊ चीजों पर होत

परपीड़ा में आनंद की प्रवृत्ति

इष्ट देव सांकृत्यायन    अभी कोविड- 19 जी को सी-ऑफ नहीं किया जा सका है कि एपोकैलिक जी की आहट आने लगी है. श्रीमान कोविड- 19 चमगादड़ के सूप की देन थे और एपोकैलिक महाशय चिकन मीट के. विभिन्न प्राणियों और उनके मांस से उपजे वायरस शायद मनुष्य से कुछ कहना चाहते हैं... क्या ? आप पचास साल पहले की तुलना में देखें तो सभी तरह के फल-सब्जियां और अनाज पहले की तुलना में बहुत अधिक जगहों पर पैदा होने लगे हैं. उपज कई गुना बढ़ गई है. इसके बावजूद मांस की खपत भी पहले की तुलना में बहुत बढ़ गई है. मैंने किसी वैज्ञानिक अध्ययन में ऐसा नहीं पढ़ा कि कोई शाकाहारी प्राणी मांसाहारी हो गया हो. जंगली प्राणियों की सूची में किसी नए मांसाहारी का नाम नहीं जुड़ा है. जो शाकाहारी थे वे शाकाहारी ही हुए हैं. बस वही मांसाहारी हैं जो पहले से मांसाहारी थे. मैंने कभी नहीं सुना कि हिरनों की नई पीढ़ी मांसाहारी हो गई. यह बात केवल मनुष्यों में सुनी जाती है. जिनके पूर्वज कभी मांसाहारी नहीं रहे और जिनकी आँतें भी मांसाहार के लिए नहीं बनी हैं , वे मांसाहारी हो रहे हैं. मांसाहारी होने के पीछे कोई वाजिब कारण नहीं है. न तो अन्न , जल , फल

विरह का पर्याय ‘बिरही बिसराम’

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हरिशंकर राढ़ी किसी भी देश या भाषा के साहित्य की मजबूती उसके लोकसाहित्य पर टिकी होती है। लोक ही साहित्य का मूल आधार होता है; लोक से कटकर साहित्य अपनी आत्मा गँवा देता है। परिष्कृत साहित्य में यदि लोकचेतना न हो, लोक की अनुभूतियाँ न हों तो वह बौद्धिक जुगाली मात्र रह जाता है। लोकसाहित्य व्याकरण या प्रस्तुतिकरण में अमानकीकृत हो सकता है, किंतु अनुभूतियों एवं सहजता में अतुलनीय होता है। लोकभाषा का सोता अंदर से आता है और पूरा प्रभाव लेकर आता है। इस दृष्टि से देखा जाए तो भोजपुरी भाषा एवं साहित्य बहुत ही समृद्ध और मनमोहक है, यह बात अलग है प्रगतिशीलता की दौड़ में बहुत सी अच्छी बातें पीछे छूट गई हैं। समय के प्रवाह में न जाने कितने लोककवि विस्मृत हो गए या विस्मृत कर दिए गए। सभ्यता की चकाचौंध में मातृ भाषाएँ हीनताबोध पैदा करने लगीं; चटकारा साहित्य उदीयमान और प्रकाशमान होने लगा। भाषा को आर्थिक स्तर से जोड़कर देखा जाने लगा। भिखारी ठाकुर, भोलानाथ गहमरी, महेंदर मिसिर जैसे न जाने कितने ज्ञात-अज्ञात कवियों की भाषा भोजपुरी आज के लालची, अबोध और स्तरहीन कवि-गायकों के कारण अश्लीलता का पर्याय बनती जा रही है।

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