कोरोना के बाद की दुनिया-3

इष्ट देव सांकृत्यायन 

तो क्या अब केवल अपनी इस आर्थिक ताक़त के भरोसे चीन दुनिया का नंबर एक बन जाएगा। यह सिर्फ सोचने की बात होगी। जब अमेरिका इस रास्ते पर बढ़ रहा था तब और भी कई देशों के पास आर्थिक और सामरिक ताक़त उससे बेहतर थी। विचारधारा के तौर पर लगभग वे सभी कमोबेश पूँजीवाद के समर्थक थे, लेकिन वे बन नहीं सके। पूँजीवाद को बाजारवाद तक सीमित मान बैठे पालतू बुद्धिजीवियों ने इस बात पर विचार करने की कभी जरूरत भी नहीं समझी कि ऐसा क्यों हुआ। एक विचार के तौर पर देखें तो पूँजीवाद खामियों से भरा हुआ है। लेकिन जो लोग सोचते हैं कि साम्यवाद उससे भिन्न है, वे बहुत बड़े मुगालते में हैं। मार्क्स ने जो कल्पना दी थी और लेनिन या माओ ने उसे जिस रूप में धरती पर उतारा, उन दोनों के बीच उतना ही अंतर है जितना जॉर्ज बर्नार्ड शॉ के शब्दों में इस्लाम और मुसलमान में। दोनों ही ने उसे अव्यावहारिक, अप्रासंगिक और यहाँ तक कि अमानवीय सिद्ध कर दिया। अपनी खामियों के बावजूद पूँजीवाद आमजन को एक सेफ्टी वॉल्व देता है। तथाकथित साम्यवाद वह भी बंद कर देता है। चीन के मामले में उसके साथ पूरी दुनिया में विश्वास और भरोसे की विहीनता और जुड़ जाती है।

यह बात केवल उसके शासकीय चरित्र के साथ नहीं, उसके बनाए हुए उत्पादों और उसकी बाजार व्यवस्था के साथ भी उतने ही गहरे स्तर पर जुड़ी हुई है। यह केवल भारत की बात नहीं है, पूरी दुनिया में चीनी उत्पादों को लेकर जितने लतीफे हैं उतने और किसी देश के उत्पादों को लेकर नहीं हैं। यह सच है कि चीन ने ऐसी बहुत सारी चीजों को सर्वसुलभ बनाया है जो अन्यथा आमजन की पहुँच से दूर थीं। लेकिन ध्यान रहे, ऐसा करने वाला वह पहला नहीं है। जिन चीजों को उसने सर्वसुलभ बनाया है, वे सभी उन खास उत्पादों की दूसरी-तीसरी बल्कि कुछ मामलों में सातवीं तक पीढ़ियां हैं। उस हर चीज को सर्वसुलभ बनाने का काम कोई और कर चुका था। चीन ने उसमें जो काम किया है वह सिर्फ क्वॉलिटी से समझौता है। भोजन से लेकर जीवन तक की क्वॉलिटी से समझौते का नाम ही चीन है। 

इस छवि के साथ दुनिया के बाजार में थोड़े दिन फायदा उठाया जा सकता है, टिका नहीं जा सकता। अभी जिन कंपनियों के जो शेयर उसने हासिल किए हैं, वे उसके हाथ में कितने दिन टिकने वाले हैं यह आपको बहुत जल्दी ही पता चल जाएगा। जिस तरह क्वॉलिटी गिराने की एक हद होती है, वैसे ही प्राइस‌ वॉर की भी एक सीमा होती है। एक नियत हद से ज्यादा न तो क्वॉलिटी से समझौता किया जा सकता है और न ही प्राइस वॉर चलाया जा सकता है। उसके बाद?

अभी की बात लें तो चीन ने लोमड़ी जैसी चालाकी दिखाते हुए पूरी दुनिया को एक महामारी की भट्ठी में झोंककर जिस चीज़ को दुनिया की तमाम कंपनियों पर अपना मालिकाना हक़ समझ लिया है, उसकी हक़ीक़त वह ख़ुद तो अच्छी तरह जानता ही है, आपको भी जान लेने की जरूरत है। कुल मिलाकर हुआ यह है कि कई कंपनियों में उसने अपना शेयर एक प्रतिशत से अधिक बढ़ा लिया है। भारत में वह ऐसा केवल एक कंपनी में कर सका और वह है एचडीएफसी बैंक। बाकी किसी कंपनी की ओर ड्रैगन अपनी जीभ लपलपाता उसके पहले ही भारत सरकार ने अपने एक मामूली से कानून से उसकी जीभ कुतर दी। इसी पर उसके दूतावास का बिलबिलाता हुआ बयान आया था। उस बयान ने एक तरह से भारत का और दुनिया का भला ही किया। भला इस तरह कि कूटनीति और भारत या दुनिया के दूसरे देशों में मौजूद उसके अंडर कवर समर्थकों के थेथरपन को लकवा मार गया। असल में अपने बयान से उसने खुद ही खुद को नंगा कर लिया। एक ऐसे समय में जब पूरी दुनिया में महामारी फैली हुई है और हर देश अपने हालात से निपटने में लगा हुआ है, तब तुम्हारी प्राथमिकता उसकी अर्थव्यवस्था पर कब्जे की है। तुम केवल लॉक डाउन के चलते अर्थव्यवस्था में आई कमजोरी का फ़ायदा उठाने में लगे हो। वह भी इस तरह कि इसमें जरा सा भी खलल तुम बर्दाश्त नहीं कर सकते। इस हद तक कि किसी देश की संप्रभुता की भी तुम्हें फ़िक्र नहीं है।

इससे जहाँ एक तरफ यह बात जाहिर हुई कि भारत उन देशों में शुमार था जो मुख्य रूप से चीन के निशाने पर थे, वहीं वे अन्य देश भी उससे सचेत हो गए जो इसके निशाने पर तुरंत या दूर भविष्य में थे। इस एक-दो प्रतिशत शेयर का मालिकाना हक़ निपटाने में किसी भी कंपनी को कितना वक़्त लगेगा, ये स्टॉक एक्सचेंज की गतिविधियों की थोड़ी भी समझ रखने वाला व्यक्ति बख़ूबी जानता है। और यह भी कि जब बात कंपनी के कामकाज में हस्तक्षेप की आती है तो कंपनियां अपने बड़े से बड़े घाटे को कितना महत्व देती हैं। इसका हाल ही में आए अमेरिका के बयान से आकलन किया जा सकता है। अमेरिका ने फ़ैसला कर लिया है कि वह चीन से अपना निवेश हटाएगा और उसका अगला रुख़ भारत की ओर है। तो आर्थिक महाशक्ति बनने की ओर अब कौन बढ़ेगा, इसका आकलन आप ख़ुद कर सकते हैं।

हालांकि भारत के इस रास्ते में अभी बड़े रोड़े हैं। भारत में कोरोना फैलाने में तब्लीगियों का जो योगदान रहा है, क्या वह ऐसे ही है? एक संयोगमात्र है? भारत की कुछ राजनीतिक पार्टियां और मीडिया में बैठे उनके सिपहसालार जिस तरह चीनी वायरस और तब्लीगियों को चिन्हित किए जाने से खफा हैं, क्या वह संयोगमात्र है? या ओआइसी का बेसिरपैर का जो बयान आया, वह क्या ऐसे ही था? छोड़िए वह सब, अभी हाल में जिस तरह दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष ने जबरिया अरब तक को लपेटा, वह क्या केवल ज़बान की फ़िसलन है? नहीं। इतनी सारी बातें संयोगमात्र नहीं हो सकतीं। ये सभी बातें एक दूसरे से जुड़ी हुई हैं। साथ ही यह तथ्य भी कि पाकिस्तान और उसकी वास्तविक नियामक संस्था आइएसआइ से चीन के कितने गहरे रिश्ते हैं। यह भी कि ख़ुद पाकिस्तान को पीओके और बलूचिस्तान में ओबीओआर को लेकर क्या कुछ झेलना पड़ा है और इससे चीन और पाकिस्तान दोनों किस तरह पस्त हैं। इसी बीच एक और बात यह भी हुई कि भारत के रक्षामंत्री ने दक्षिण कोरिया से मिलकर चीन की परियोजना का काम ही ठप करवा दिया। उधर डोकलाम पर भी चीन को मुँह की खानी पड़ी। जाहिर है, चीन भारत से इसका बदला लेने के लिए बिलबिला रहा है और हमेशा की तरह वह ख़ुद इसके सामने आने के बजाय पाकिस्तान के कंधे पर रखकर बंदूक चलाने की कोशिश कर रहा है। भारत को इन सभी मुश्किलों से निपटना होगा।

बाकी अगली कड़ियों में

©Isht Deo Sankrityaayan


Comments

  1. चीन और चीन द्वारा फैलाई गई विश्व व्यापी महामारी कोरोना-19 वस्तुस्थिति की सुंदर व सटीक जानकारी से अवगत कराने के लिए आपका हार्दिक आभार विज्ञ बन्धुवर��

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  2. उम्दा लेख के लिए धन्यवाद

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  3. Nice analysis. General agreement on most of ur observations. To be a right wing thinker is not a crime. But to prove this u wrote the last paragraph which took away the sheen of ur article. Anyway keep on writing.

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    1. Thanks. By the way, I don't like much to know your opinion about my ideological inclination. I think, most of the people either deceive themselves in the name of ideology or confused. However, I will appreciate if you can logically convince if that point in this analysis is wrong.

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  4. Nice analysis. General agreement on most of ur observations. To be a right wing thinker is not a crime.
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