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Showing posts from April, 2020

कोरोना के बाद की दुनिया-3

इष्ट देव सांकृत्यायन  तो क्या अब केवल अपनी इस आर्थिक ताक़त के भरोसे चीन दुनिया का नंबर एक बन जाएगा। यह सिर्फ सोचने की बात होगी। जब अमेरिका इस रास्ते पर बढ़ रहा था तब और भी कई देशों के पास आर्थिक और सामरिक ताक़त उससे बेहतर थी। विचारधारा के तौर पर लगभग वे सभी कमोबेश पूँजीवाद के समर्थक थे , लेकिन वे बन नहीं सके। पूँजीवाद को बाजारवाद तक सीमित मान बैठे पालतू बुद्धिजीवियों ने इस बात पर विचार करने की कभी जरूरत भी नहीं समझी कि ऐसा क्यों हुआ। एक विचार के तौर पर देखें तो पूँजीवाद खामियों से भरा हुआ है। लेकिन जो लोग सोचते हैं कि साम्यवाद उससे भिन्न है , वे बहुत बड़े मुगालते में हैं। मार्क्स ने जो कल्पना दी थी और लेनिन या माओ ने उसे जिस रूप में धरती पर उतारा , उन दोनों के बीच उतना ही अंतर है जितना जॉर्ज बर्नार्ड शॉ के शब्दों में इस्लाम और मुसलमान में। दोनों ही ने उसे अव्यावहारिक , अप्रासंगिक और यहाँ तक कि अमानवीय सिद्ध कर दिया। अपनी खामियों के बावजूद पूँजीवाद आमजन को एक सेफ्टी वॉल्व देता है। तथाकथित साम्यवाद वह भी बंद कर देता है। चीन के मामले में उसके साथ पूरी दुनिया में विश्वास और भरोसे की विहीनता और

कोरोना के बाद की दुनिया - 2

इष्ट देव सांकृत्यायन    जंगल में दो गैंडे आम तौर पर लड़ते नहीं हैं। शायद इसलिए कि गैंडे अमूमन शांतिप्रेमी होते हैं और शायद इसलिए भी कि उन्हें एक दूसरे की ताक़त का अंदाज़ा होता है , लेकिन ऐसा भी नहीं है कि वे लड़ते ही नहीं हैं। वे लड़ते भी हैं और तभी लड़ते हैं जब उनके बीच कोई सीमा विवाद होता है। जब वे लड़ते हैं तो खरगोश , चूहे , गिलहरी , नेवले जैसे कई जानवर बेवजह जान से हाथ धो बैठते हैं। हालांकि अपनी लड़ाई में किसी दूसरे जानवर को मारना उनका इरादा कतई नहीं होता। लेकिन यह हो जाता है। किसी दूसरे जानवर को बेवजह मारना उनका इरादा इसीलिए नहीं होता क्योंकि वे जानवर होते हैं। अगर वे इंसान होते तो बौद्धिकता के दंभ से भरे होते और बौद्धिकता का कुल मतलब उनके लिए केवल निहायत घटिया दर्जे का काइयांपन होता। और तब वे अनजाने में नहीं , जान बूझकर तमाम छोटे-मोटे जंतुओं को मार डालते केवल अपने को सबसे ताक़तवर बनाने के लिए। इसमें वे ऐसे गैर परंपरागत तौर-तरीकों ( मनुष्य के लिहाज से कहें तो हथियारों) का भी इस्तेमाल कर सकते थे जो पशुता को शर्मसार कर देते (मनुष्यता के पास तो अब शर्मसार होने लायक कुछ बचा नहीं)। और यहा

कोरोना के बाद की दुनिया - 1

इष्ट देव सांकृत्यायन  लॉक डाउन के एक महीने में हम भारतीयों के धैर्य , समझदारी , अपने या दूसरों के जीवन को लेकर हमारी गंभीरता और अर्थव्यवस्था के प्रति हमारे बड़े बड़े विशेषज्ञों की समझ सब कुछ सामने आ गया है। कोई यमुना तैर कर हरियाणा से यूपी तो कोई तरबूज - प्याज खरीदते बेचते मुंबई से प्रयागराज आ जा रहा है। किसी को पूजा के लिए जान की परवाह छोड़कर मंदिर जाना है तो किसी को नमाज अदा करने मस्जिद और गले भी मिलना है। कुछ लोगों को अपने स्वास्थ्य की वास्तविक स्थिति बताने तक से परहेज है और अगर चिकित्साकर्मी खबर मिलने पर जाँच के लिए उनके घर पहुँचें तो उन पर पत्थरबाजी भी करनी है। यह तो हद है कि बीमारों के इलाज के लिए चिकित्साकर्मियों को पुलिस लेकर जानी पड़े और पुलिस को उनके परिजनों-पड़ोसियों से पूरा संघर्ष करना पड़े। इतना ही नहीं , खुद को खतरे में डालकर लोगों के इलाज में जुटी नर्सों के सामने अश्लील हरकतें , सीढ़ियों की रेलिगों और अस्पताल की दीवारों तक पर थूक-लार लगाना , पेशाब-मल बोतलों में भरकर फेंकना , लोगों में संक्रमण फैलाने के इरादे से हैंडपाइप तक में मल डाल देना... निकृष्टतम सोच की सारी हदें पार कर ल

अगर चाहते हो कि लॉक डाउन जल्दी हटे

इष्ट देव सांकृत्यायन   दिल्ली और पश्चिम बंगाल से लेकर पटियाला और कलबुर्गी तक जो यह हो रहा है , यह धार्मिकता तो है नहीं... अधिक से अधिक अगर इसे कुछ कहा जा सकता है तो वह है पां थिकता। कर्मकांड का एक ख़ास तरीक़ा। चाहे यह तरीका हो या वह। एक से दूसरे की पांथिकता में कोई बड़ा फर्क नहीं है। कमोबेश एक ही तरह के दुराग्रह। यह बहुत थोड़े से मामलों में धर्म का बाहरी स्वरूप कहा जा सकता है। ज्यादा ढक्कन और उससे भी ज्यादा आडंबर। जैसे बहुत महंगे और सुंदर कपड़े पहन लेने से कोई अक्लमंद और इज्जतदार नहीं हो जाता , नैतिकता बघारने से कोई सचमुच नैतिक नहीं हो जाता , वैसे ही कर्मकांड या दिखावे से कोई धार्मिक नहीं हो जाता। इस दिखावे या आडंबर से ज्यादा से ज्यादा यह पता चलता है कि वह कितना अंधविश्वासी , कितना असंतुष्ट , कितना डिमांडिंग या सीधे शब्दों में कहें तो यह कि वह कितना बड़ा भिखमंगा है। ये मंदिर , मस्जिद , गिरजा , गुरुद्वारा जाने वाले सब भिखमंगे ही हैं ज्यादातर। वहां भगवान की सेवा तो सिर्फ एक झांसा है। जो अपने को जितना बड़ा धार्मिक (सही मायने में पांथिक) बता रहा है , वह उतना ही बड़ा झांसेबाज है। उ

बाजार और सभ्यताओं के युद्ध मे पिस रही है दुनिया

संजय तिवारी याद कीजिये। पिछली सदी का आखिरी दशक। विश्व मे कपड़ा उत्पादन का सबसे बड़ा केंद्र सूरत। सूरत के कपड़ो की मांग पूरी दुनिया मे बढ़ गयी थी। वे अन्य देश सूरत के इस प्रभुत्व से परेशान थे जो कपड़े का उत्पादन कर रहे थे। अचानक सूरत में प्लेग का संक्रमण हो गया। सूरत तबाह हो गया। उस समय भी सूरत से मजदूरों का वैसा ही पलायन हो रहा था जैसा आज आनंद विहार के जरिये दिखाया जा रहा है। उस समय सूचना तकनीक इतनी विकसित नही थी। न कोई सोशल मीडिया था और न ही कोई निजी चैनल। केवल दूरदर्शन था और अखबार थे। दूरदर्शन पर केवल रात 8 बज कर 20 मिनट पर एक बार समाचार आता था। रेडियो यानी आकाशवाणी था । तब मोबाइल का कही अतापता भी नही था। सूरत की तबाही की खबरें थी। उसी दौरान एक बड़े विशेषज्ञ की एक टिप्पणी एक अखबार में छपी। उसमें लिखा था कि सूरत में जो प्लेग फैला है इसमें चीन का हाथ है। चीन का यह जैविक युद्ध है । इसके पर्याप्त कारण भी गिनाए गए थे। लिखा था कि सूरत के कपड़ा उद्योगों के कारण चीन के कपड़ा उद्योग बुरी तरह प्रभावित हुए। चीन में इसके कारण बाजार बिगड़ने लगे। इसी से घबरा कर चीन ने सूरत के कपड़ा उद्योग को अपने जैविक व

मुरादाबाद की पत्थरबाजिनें

इष्ट देव सांकृत्यायन    मुरादाबाद शहर की करीब नौ लाख आबादी है और इसमें लगभग चार लाख मुसलमान हैं. क्या ये सारे ४ लाख मुसलमान सिर्फ तब्लीगी हैं ? अगर नहीं तो मुरादाबाद के किसी मुसलमान की ओर से पत्थरबाजों का विरोध क्यों नहीं किया गया ? इक्वल का दर्जा तो भारत में सबको मिला हुआ है. इसमें कोई दो राय नहीं है. आपको पहले ही मोर इक्वल मिला हुआ है. आज भारत के अगल बगल जो दो टुकड़े पड़े हुए हैं , वे इसी   # मोर _ इक्वल   के प्रमाण हैं. इतनी आबादी के बावजूद   # अल्पसंख्यक   शब्द की कोई परिभाषा तय किए बिना आपको जो अल्पसंख्यक दर्जा मिला हुआ है और उसके साथ हद से बहुत ज्यादा जो सुविधाएं मिली हुई हैं , वह इसी मोर इक्वल का साक्ष्य है. देश के दोनों तरफ दो टुकड़े फेंके जाने के बाद भी आप भारत में पूरे सम्मान से रखे गए और आपको आपकी धार्मिक शिक्षाओं वाले मदरसे , तमाम संस्थान और धर्मस्थल चलाने दिए गए , हर बहुसंख्यक ने हमेशा आपकी भावनाओं और सुविधाओं का ख्याल रखा , वह इसी मोर इक्वल का साक्ष्य है. एक बार अपने चारो तरफ नजर दौड़ाएं. और अपनी बदतमीजियों का भी हिसाब लगाइए. भारत ने सैकडो बार विस्फोटों , दुश्

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