डॉ. अरविंद मिश्र की चीन यात्रा -1


विज्ञान कथाकार और ब्लॉगर डॉ. अरविंद मिश्र पिछले दिनों चीन गए थे। उनका यह सफर एक वैज्ञानिक सम्मेलन के उद्देश्य से था। अपना पूरा वृत्तांत उन्होंने फेसबुक पर लिखा। यह वृत्तांत जितना रोचक है, चीन की सीलबंद सभ्यता-संस्कृति को बाहर से जितना देखा जा सकता है, उस लिहाज से ज्ञानवर्धक भी। मेरा अपना अनुभव यह है कि चीनी आदमी के मन की टोह लेना बड़ कठिन काम है। इसकी कई वजहें हैं। सबसे पहली तो भाषा ही है। चीन में अंग्रेजी उतनी प्रचलित नहीं है जितनी भारत में। ऊपर से बोलने का उनका ढंग बिलकुल अलग है। उनकी अंग्रेजी पर भी चीनी उच्चारण का प्रभाव इतना अधिक है कि उसे समझना लगभग टेढ़ी खीर है, बगुले से भी ज्यादा। आम जनमानस पर प्रशासन का भय इतना अधिक है कि मार्केटिंग के बंदों से भी ज्यादा कृत्रिम मुस्कान उन्हें अपने चेहरे पर हमेशा चिपकाए रखनी पड़ती है।

इस यात्रा में पंडित जी ने एक बेईमानी भी की है। चीनी खानपान के नाम पर बच्चों के विशेष आग्रह के बावजूद भौजाई को इस बहाने नहीं ले गए कि वे कट्टर शाकाहारी हैं। भला वहाँ कैसे जिएंगी। मेरे जैसा वेगन [वेजटेरियन से भी एक कड़ी आगे और जिसकी शाकाहार में बहुत सीमित सूची हो] अगर घूम सकता है और डॉ. देंवेंद्र नाथ शुक्ल जैसे पंक्तिपावन अगर तीन साल चीन में रह सकते हैं, तो भला एक शाकाहारी के लिए हफ्ते भर का प्रवास कौन बड़ी बात है। एक-दो हफ्ता तो सतुआ और चिउड़ा पर निपटाया जा सकता है। इस दिलचस्प यात्रा-वृत्तांत को इयत्ता पर लेना तो मैं उसी समय चाह रहा था, लेकिन सोचा कि पहले पूरा हो जाए फिर लें। उनसे मैंने अनुमति भी तभी ले ली थी। लेकिन बाद में कई दूसरी व्यस्तताओं के नाते वह काम रह गया। अब क्रमशः उसी किस्तवार अंदाज में यह रोचक वृत्तांत आपके लिए:

डॉ. अरविंद मिश्र

मित्रों, दक्षिण पश्चिमी चीन के सिचुआन प्रान्त के बेहद खूबसूरत शहर में अभी सम्पन्न तीन दिवसीय अन्तरराष्ट्रीय विज्ञान कथा सम्मेलन से बस लौटा हूं। आपसे साझा करने को इतनी बाते हैं कि मन व्यग्र हो उठा है कि जितनी जल्दी हो सके अपने यात्रा संस्मरण आप को सौंप दूं। मगर मुझे क्रमबद्ध होना होगा और धैर्य से आपको यह यात्रा कथा सुनानी होगी। बस आप ध्यान से सुनते जाईये, हम सुनाते जायेंगे।

यादों का जो जखीरा लेकर लौटा हूं वह उन मित्रों के बहुत काम का है जो कभी निकट या सुदूर भविष्य में चीन जाना चाहते हैं। या फिर जिन्हे भारत चीन संबंधों, कूटनीति में रुचि है। मगर यह दावात्याग भी है कि मेरी दृष्टि से दिखा चीन ही आथेंटिक चीन है। हर व्यक्ति की दृष्टि और समझ अलग होती है। कहा भी गया है कि दृष्टि भेद से दृश्य भेद हो जाता है। बहरहाल यह संस्मरण धीमे धीमे आगे बढ़ेगा जिससे कि कहीं ऐसा न हो कि कोई जरुरी बात जो आपसे कहनी थी छूट जाय और अनावश्यक विस्तार जगह पा ले।

सबसे पहले तो चीन यात्रा की तैयारियों से शुरुआत कर रहा हूं और इस संस्मरण में ही यथावश्यक आभारोक्ति भी समाहित करता रहूंगा। विगत वर्ष भी बीजिंग में आयोजित एशिया पैसेफिक साईंस फिक्शन कॉन्फ्रेंस में मैं बतौर अतिथि के रुप में आमंत्रित था किन्तु गया नहीं। सच कहूं तो अनिच्छा और आलस्य ने हठात रोका था। इस बात का क्षोभ भी कि जब जोशो खरोश कायम था और होशोहवाश दुरुस्त था तो विदेशी आमंत्रण मिले नहीं, एक जर्मनी का आमंत्रण आया भी तो नौकरी और पासपोर्ट की दुश्वारियों ने बढ़े कदम रोक लिये थे। तो इस बार चेंगडू के विश्वप्रसिद्ध विज्ञान कथा पत्रिका साईंस फिक्शन वर्ल्ड (एस एफ डब्ल्यू) ने जब माह जून में अतिथि आमंत्रण भेजा तो खुशी तो हुई मगर उत्साह नहीं था कि जा भी पाऊंगा।

मैंने परिजनों को अवगत कराया। बधाईयाँ बटोरी। मगर 'आत्मा वै जायते पुत्र पुत्री' भला हमारी मनोदशा से कैसे अपरिचित रहते। मैंने बेटी Priyesha Mishra को यह जानकारी दी तो संभवतः जानबूझकर उसने बड़ी तिक्त सी प्रतिक्रिया दी कि जाईये भी तो, बताने से क्या फायदा। मतलब अपने तरीके से उसने मुझे जाने को उकसाया और चुनौती दे डाली। मैंने तभी मन ही मन संकल्प ले लिया था कि ठीक है इस बार जाकर तुम्हे दिखा दूंगा और दिखा भी दिया। 😊

मगर पहले ही दिन से बेटे कौस्तुभ Kaustubh Mishra ने खूब प्रोत्साहित करना शुरु किया। और उसके प्रोत्साहन में विश्वसनीयता इसलिए थी कि अपने प्रतिष्ठान की ओर से वह पिछले वर्षों चीन गया था और वहां का फर्स्ट हैंड अनुभव उसके पास था। उसने यह भी जिद्द पकड़ ली कि मम्मी को भी साथ ले जाईये। लो भला, यहां अपने ही जान की आ पड़ी थी और एक भारी लायबिलिटी और... ना बाबा ना.. अकेले ही निभ जाय वही बहुत है। एक शुद्ध कट्टर शाकाहारी ब्राह्मिणी का गुजर बसर चीन में मुश्किल था इसका पूरा अहसास था मुझे। बेटे ने लाख समझाया कि यहाँ से रेडीमेड फूड ले जाईये निर्वाह हो जायेगा। बेटे के प्रोत्साहन पर ब्राह्मणी भी उत्साहित हो गयीं कि वे केवल मीठी पूड़ी पर निर्वाह कर लेंगी। व्रत रह लेंगी। आदि अनादि। मगर मेरी हिम्मत नहीं पड़ी। जब खुद को संभालने का ही संशय हो तो फिर एक और जिम्मेदारी?

और वैसे भी मैं घूमने तो जा नहीं रहा था। एक वैज्ञानिक सम्मेलन था यह और यह बात भी सर्वथा उचित है कि भावनाओं को प्रोफेशन से अलग रखना चाहिए। आखिरकार तैयारियां शुरु हो गयीं। चीन से पत्राचार गति पकड़ने लगा। उन्होंने यात्रा रहन सहन खान पान का खर्चा स्वयं उठाया था। तथापि वीसा आदि औपचारिकताओं पर व्यय खुद करना था।

बेटे ने यात्रा प्रबंध अपने जिम्मे लिया। मैं जब बंगलौर गया तो वीसा के लिये उसने आवेदन दिलवाया। चीन के वीसा के लिये व्यक्तिगत उपस्थिति आवश्यक नहीं है। एजेंट आवेदन की सारी औपचारिकता पूरी कराकर पासपोर्ट ले लेता है और पन्द्रह बीस दिनों में वीसा हासिल करा देता है। जिसके एवज में उसने दस हजार रुपये लिये। बंगलौर में ही मेरे विज्ञान कथा मित्र डा. श्रीनरहरि भी आमंत्रित थे इसलिए हमने वहीं से साझी यात्रा की प्लानिंग की। यात्रा कार्यक्रम इस तरह बना कि हम 21 से 24 - 25 नवंबर की रात तक चेंगडू में रहकर 22 - 24 तक सम्मेलन में रहेंगे और इसलिये 20 नवंबर से बंगलौर से दिल्ली होते हुये चेंगडू पहुंचेंगे।

मैं 17 नवंबर को ही बेटे के पास बंगलौर पहुंच गया। अब मुझे छोड़कर सभी परिजन पड़ोसी आश्वस्त हो चले थे कि इस बार ये चीन चले जायेंगे। मेरा मन अभी भी अनिश्चयों से डिग जाता। जाऊं या न जाऊं? मगर औपचारिकतायें इतनी तेजी से पूरी हो रहीं थीं कि मैं निरुपाय हो चला था। जाना ही पड़ेगा। अब रुपया तो चीन में चलता नहीं। तीन हजार युआन खरीदा। तीस हजार रुपये। कब कौन आफत आ जाये। अपने मोबाइल सिम वहां काम न करते। मुझे या तो वर्चुअल पर्सनल नेटवर्क (वीपीएन) लेना होता या फिर चाईना सिम। दो हजार में यानि काफी सस्ते में दो घंटे टाक टाईम और तीन जीबी डाटा का सिम मैट्रिक्स कम्पनी से अपने पुराने संबंधों के चलते बेटे ने दिलाया। तब भी वहां गूगल, वाट्सअप और फेसबुक प्रतिबंधित होने की भी सूचना थी। संवाद की कठिनता का आभास हो चला था मगर अब तो ओखली में सर जा चुका था।

कुछ और तैयारियां की गयीं। बाटा कम्पनी का एक नया जूता भी खरीदा गया। एमटीआर कम्पनी के रेडी टू ईट पैक्ड आईटम झोलाभर लिया गया। उपमा, पोंगल, नूडल्स, हलवा, बिसे बेले भात भांति भांति के दक्षिण भारतीय आईटम। गृहिणी ने मीठी पूड़ियों की एक पोटली भी थमा दी थी हाड़े गाढ़े समय के लिए। मतलब चीन यात्रा की रणनीति पूरी तैयार हो चुकी थी। खैर प्रस्थान का दिन भी आ गया.....
जारी.........




Comments

  1. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (22-01-2020) को   "देश मेरा जान मेरी"   (चर्चा अंक - 3588)    पर भी होगी। 
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है। 
     --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'  

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  2. रोचक आगाज़। अगली कड़ी का इंतजार है।

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    1. अवश्य मित्र. यह लें.

      http://iyatta.blogspot.com/2020/01/2.html

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  3. सौजन्य के लिए आभार

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