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Showing posts from 2018

भक्ति और प्रकृति का अनूठा संगम: भीमाशंकर

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हरिशंकर राढ़ी भीमाशंकर मंदिर का एक विहंगम दृश्य                             छाया : हरिशंकर राढ़ी  भीमाशंकर की पहाड़ियाँ और वन क्षेत्र शुरू होते ही किसी संुदर प्राकृतिक और आध्यात्मिक तिलिस्म का आभास होने लग जाता है। सहयाद्रि पर्वतमाला में स्थित भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग कई मामलों में अन्य ज्योर्तिलिंगों से अलग है, और उसमें सबसे महत्त्वपूर्ण यह है कि यह आरक्षित वन क्षेत्र में स्थित है, जिसके कारण इसका अंधाधुंध शहरीकरण नहीं हो पाया है। यह आज भी पर्यटकीय ‘सुविधओं’ के प्रकोप से बचा विचित्र सा आनंद देता है। वैसे सर्पीली पर्वतीय सड़कों पर वाहन की चढ़ाई शुरू होते ही ऐसा अनुमान होता है कि हम किसी हिल स्टेशन की ओर जा रहे हैं और कुछ ऐसे ही आनंद की कल्पना करने लगते हैं। किंतु वहां जाकर यदि कुछ मिलता है तो केवल और केवल भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग तथा साथ में समृद्धि प्रकृति का साक्षात्कार। पुणे से लगभग सवा सौ किलोमीटर की कुल दूरी में पर्वतीय क्षेत्र का हिस्सा बहुत अधिक नहीं है, किंतु जितना भी है, अपने आप में बहुत ही रोमांचक और मनोहर है। भीमाशंकर मंदिर का सम्मुख दृश्य           छाया : हरिशंकर राढ़ी     

Kya Haal Sunaavan-- book review

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Hari Shanker Rarhi  is with  Narendra Mohan . Just now  ·  समीक्षा      (नरेन्द्र मोहन की आत्मकथा - क्या हाल सुनावाँ) आत्मकथा के बहाने समय से विमर्श                                          - हरिशंकर राढ़ी  हिंदी साहित्य में आत्मकथा लेखन का प्रारंभ निश्चित ही देर से हुआ किंतु समृद्धि तक पहुंचने में इसे बहुत समय नहीं लगा। आज साहित्य जगत के ही नहीं, कला के विभिन्न क्षेत्रों, खेलों और यहां तक की राजनीति जगत के व्यक्तित्वों ने आत्मकथा को अपने समय, समाज और जीवन की अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया है। संस्कृत साहित्य और संस्कार से शुरू भारतीय साहित्य आत्मप्रशंसा के बजाय लोक कल्याण और लोक जीवन को अधिक महत्त्व देता रहा, संभवतः इसी कारण भारतीय भाषाओं में आत्मकथा का अभाव रहा। प्राचीन साहित्यकारों के आत्मपरिचय के अभाव का दंश आज भी पूरा साहित्य जगत झेल रहा है। विश्व साहित्य के प्रभाव और आत्मकथ्य की बेचैनी ने हिंदी में भी आत्मकथा लेखन को बढ़ावा दिया और आज का हर लेखक या कवि आत्मकथा के बहाने उन सभी भावों तथा अनुभवों को उद्गार देना चाहता है जिसे वह अपने साहित्य में नहीं

रति का अध्यात्म: खजुराहो

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हरिशंकर राढ़ी कंदरिया महादेव मंदिर       छाया : हरिशंकर राढ़ी   यदि किसी को धरती पर कामक्रीडा का सौंदर्य ] वैचारिक खुलापन,   शारीरिक सुंदरता के प्रतिमान तथा कलात्मक जीवंतता एक साथ देखनी हो तो उसे खजुराहो की धरती पर एक बार जरूर आना चाहिए। ऐसे मंदिर शायद ही कहीं और हों जहां गर्भगृह में ईश्वरीय सत्ता के दूत ] हिंदू मान्यता के कल्याणकारी देव विराजमान हों और दीवारों पर सृश्टि की सुंदरतम रचना नारी के लावण्यमयी अंगों का पुरुष संसर्ग में अनावृत्त चित्रण हो। आज से लगभग एक हजार साल पहले प्रेम,   सौंदर्य और संभोग की पूजा करने वाला समाज हमारे इस तथाकथित विकसित समाज से कितना आगे और वैज्ञानिक सोच वाला था ] इसका अंदाज खजुराहो की धरती पर फैली विशाल मंदिर शृंखला को देखकर सहज ही हो जाता है। चरित्र,   वासना और गोपनीयता के नाम पर मनुष्य अपनी नैसर्गिकता और तार्किक सोच से कितना दूर हो गया है,   इसका अनुमान यहीं लगाया जा सकता है। ऐसा भी नहीं है कि आज भी खजुराहो जाने वाला हर भारतीय पर्यटक इन कामक्रीडारत मूर्तियों को देखकर बहुत सहज महसूस करता है या इसे एक विकसित सोच का नमूना मानता है। कुछ लोग अभी भी पूर

आख़िर कब तक और क्यों ढोएँ हम?

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हमारी अपनी ही आबादी 134 करोड़ पार कर चुकी है. यह रुकने का नाम नहीं ले रही है. घटने की तो बात ही बेमानी है. यह बढ़ती आबादी हमारे लिए एक बड़ी मुसीबत है. वे लोग जो आबादी को ह्यूमन रिसोर्स और इस नाते से लायबिलिटी के बजाय असेट मानने की दृष्टि अपनाने की बात करते हैं , जब इस ह्यूमन रिसोर्स के यूटिलाइज़ेशन की बात आती है तो केवल कुछ सिद्धांत बघारने के अलावा कुछ और कर नहीं पाते. दुनिया जानती है कि ये सिद्धांत कागद की लेखी के अलावा कुछ और हैं नहीं और कागद के लेखी से कुछ होने वाला नहीं है. ये कागद की लेखी वैसे ही है जैसे किसी भी सरकार के आँकड़े. जिनका ज़मीनी हक़ीक़त से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं होता. आँखिन की देखी के पैमान पर इन्हें कसा जाए तो ये प्रायः झूठ और उलझनों के पुलिंदे साबित होते हैं. इस बढ़ती आबादी से पैदा होने वाली उलझनों की हक़ीक़त ये है कि देश में बहुत बड़ी आबादी या तो बेरोज़गारी की शिकार है या फिर अपनी काबिलीयत से कमतर मज़दूरी पर कमतर रोज़गार के लिए मजबूर. इस आबादी में हम और आबादी जोड़ते जा रहे हैं. नए-नए शरणार्थियों का आयात कर रहे हैं. दुनिया भर के टुच्चे नियम-क़ानून और बेसिर-पैर

कश्मीर की आवाज़

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जिस कश्मीर को आप केवल आतंकवादियों की सहायता में पत्थरबाजी के लिए जानते हैं , वहाँ ऐसे लोग भी हैं जो आतंकवादियों के छक्के छुड़ाने का हौसला रखते हैं. बल्कि ऐसे लोगों की तादाद ज़्यादा है. और ये वही लोग हैं जो ख़ुद भारतीय मानते हैं और जमू-कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग. हुआ बस यह था कि इनकी आवाज़ दबा दी गई थी. यह दबाने का काम किसी और ने नहीं , शेख़ अब्दुल्ला के शासन ने किया था. ख़ुद नेहरूजी ने महसूस किया अब्दुल्ला का साथ देकर उन्होंने ग़लती कर दी. लेकिन जब उन्होंने महसूस किया तब तक पानी सिर से गुज़र चुका था. अगस्त 1953 में जब उसकी पहली गिरफ़्तारी की गई तब तक वह अपने गुर्गे पूरे कश्मीर में फैला चुका था और उन्हें अपना शासन रहते बहुत मजबूत कर चुका था. इसके पहले वह विलय के पक्ष में आंदोलन करने वाले तमाम हिंदुओं और मुसलमानों पर बेइंतहां जुल्म ढा चुका था. जेल में डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की जान ले चुका था. कई और लोगों की जान जेल से बाहर ले चुका था. लिहाजा उसका और उसके गुर्गों का ख़ौफ़ लोगों पर क़ायम रहा. पाकिस्तान से भेजे गए गुर्गों को भी वह जगह-जगह स्थापित कर चुका था. इनसे मिलकर उसके

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