Vishunpur (Rarhi ka Pura ) Azamgarh

विशुनपुर (राढ़ी का पूरा), आजमगढ़  का 

                                          --हरिशंकर राढ़ी 

राढ़ियों का गांव विशुनपुर महराजगंज क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है और इसकी चर्चा पहले के लेखों में की जा चुकी है। दरअसल महराजगंज बाजार का अधिकांश हिस्सा विशुनपुर की जमीन में ही आता है और वहां इनका वर्चस्व सदैव से रहा है। महराजगंज का नया चौक पूर्णतया विशुनपुर की कृषिभूमि में बसा है और अब यह बाजार का सबसे मंहगा और रौनक वाला क्षेत्र है। महेशपुर की भांति विशुनपुर (राढ़ी के पूरा) की स्थापना का समय बताया नहीं जा सकता। आजमगढ़ गजेटियर में महराजगंज के साथ इसका जिक्र बिशनपुर के नाम से है। नाम में आंशिक परिवर्तन निश्चित रूप से अंगरेजों की टेढ़ी जबान के कारण होगा जिससे उन्होंने भारत के अधिकांश शहरों और गांवों की वर्तनी का सत्यानाश कर दिया।

विशुनपुर गांव बांगर क्षेत्र में होने के कारण अपेक्षाकृत समृद्ध था और बाजार के निकट होने से पहुंच में आसान भी। इस गांव के राढ़ी मुख्यतः तीन पूरवे में बसे हुए हैं। सबसे पश्चिम, अक्षयबट से सटा हुआ पोखरा वाला पूरा, फिर बीच का जो सबसे बड़ा है और कुछ घर महराजगंज-कप्तानगंज सड़क से पूरब की ओर। पूरा विशुनपुर महराजगंज टाउन एरिया में आता है अतः साफ-सफाई आदि का विकास हुआ है। गांव के वर्तमान से ज्यादा महत्त्वपूर्ण इसका इतिहास रहा है। एक जमाने में क्षेत्रीय स्तर पर इस गांव का कोई शानी नहीं था। ऐसे कई लोग हुए जो अपनी ताकत और बुद्धि से सम्मानित और विख्यात हुए। हाँ, यह कहा जा सकता था कि राज्य और राष्ट्र स्तर पर पहचान बनाने या बड़े सामाजिक उत्तरदायित्व निभाने में किसी ने बहुत रुचि नहीं दिखाई। बहुत पहले का तो नहीं, किंतु पिछले 70-80 वर्षों का इतिहास कमोबेश बताया जा सकता है, हालांकि यह इतिहास अलिखित है। इसमें से कुछ तो मुझे पिताजी से ज्ञात हुआ था क्योंकि उनका विशुनपुर के राढ़ियों से बहुत अच्छे संबंध थे, आना जाना था और दूसरे वे किस्सागोई में बहुत माहिर थे। कुछ अंश मैंने महेशपुर के बुजुर्गों से सुना था और बहुत कुछ श्री जे0के0 मिश्र का बताया हुआ है। दरअसल, महराजगंज, विशुनपुर और महेशपुर के विषय में इतना लिखने के पीछे श्री मिश्र जी का आग्रह, उत्साहवर्धन, लगातार तकाजे और उनके द्वारा उपलब्ध कराई गई जानकारी का बहुत बड़ा हाथ है। भैरोजी पर लिखने का विचार तो बहुत पुराना था किंतु पिछले साल भैरोजी पर लिखे और ब्लाॅग पर प्रकाशित लेख के बाद मैं इतनी कड़ियां शायद ही इतनी जल्दी लिख पाता। भैरोजी पर लिखे लेख पर पाठकों ने जो रुचि दिखाई, (ब्लाॅग की रीडरशिप काउंटिंग के आधार पर) उससे भी उत्साहवर्धन हुआ। लोग अपने क्षेत्र एवं अपनी श्रद्धा के प्रतीकों के विषय में जानना तो चाहते हैं, किंतु इस पर लेखन कम हो रहा है।
महराजगंज चौक पर लक्ष्मी कांत मिश्र की प्रतिमा 

वह समय था जब क्षेत्र में उच्च तो क्या, माध्यमिक शिक्षा व्यवस्था नहीं थी। ले-देकर एक प्राइमरी विद्यालय और कूपर साहब के जाने के बाद भैरोजी में एक मिडिल स्कूल। हाँ, एक संस्कृत पाठशाला भी भैरोजी में थी जिससे आधुनिक और रोजगारपरक शिक्षा की आवश्यकता की पूर्ति नहंी हो सकती थी। मिडिल से ऊपर की शिक्षा में महराजगंज इंटर काॅलेज की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही।(मैं भी इस काॅलेज का छात्र रह चुका हूँ।) महराजगंज इंटर काॅलेज की स्थापना एक विद्यालय के रूप में सर्वप्रथम विशुनपुर के पोखरे के पास- महराजगंज बाजार के बजरंग चैक से देवतपुर जाने वाली सड़क पर- हुई थी। इसके संस्थापक सदस्यों में इस क्षेत्र के प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी और सामाजिक कार्यकर्ता स्व0 श्री कृष्णमाधव लाल, अक्षयबट गांव के श्री बाबूराम सिंह और विशुनपुर पोखरा के स्व0 श्री कमलाकांत  मिश्र जी थे। एक शिक्षक के तौर पर मिडिल स्कूल भैरोजी के प्रधानाध्यापक श्री इदरीश मौलवी भी सहायता कर जाते थे। उल्लेखनीय है कि मौलवी इदरीश यहां एक शिक्षक के तौर पर बहुत सम्मानित व्यक्ति थे। कालांतर में यह विद्यालय अधिक जगह की तलाश में अपने वर्तमान स्थान पर स्थापित कर दिया जो गांव प्रतापपुर की जमीन में है। तब यहां जमीन की समुचित उपलब्धता थी। बाद में बगल में थाना स्थापित हो गया और सामने आम की विशाल बाग का उपयोग छात्रगण खेलकूद के लिए करने लगे। जब मैं महराजगंज इंटर काॅलेज का छात्र था (1980 के आसपास) तब इस बाग में प्राय स्वतंत्रता दिवस के कार्यक्रम होते थे और नागपंचमी पर होने वाली कुश्ती भी यहीं आयोजित होने लगी। संभवतः यह 1935-36 की बात होगी।

महराजगंज इंटर काॅलेज के पहले प्रधानाचार्य स्व0 श्री सुदर्शन शुक्ल हुए। आज भी उनकी चर्चा एक योग्य, कर्मठ, सीधे-सरल किंतु सत्यनिष्ठ एवं न्यायनिष्ठ प्राचार्य के रूप में होती है। उनके समय तक इस इंटर काॅलेज की उच्च प्रतिष्ठा थी। हाँ, शुक्ल जी की कृपणता की चर्चा भी बहुत विस्तार से सुनी-सुनाई जाती है। वे काॅलेज में ही रहते थे। तत्कालीन अध्यापकों ने बताया कि वे चपरासी से एक पाव छोटे बताशे मंगाते थे और उसकी गिनती करते थे, क्योंकि वे प्रतिदिन सुबह एक बताशा खाकर पानी पीते थे। यदि किसी दिन बताशा साइज में बड़ा होेने कारण गिनती में एक भी कम होता तो उस चपरासी को दुबारा कन्हैया हलवाई की दुकान पर वापस भेजते और संख्या में पूरे बताशे मंगाते। बाद में स्व0 श्री बाबूराम सिंह प्रधानाचार्य हुए। कठोर तो वे भी बहुत थे, किंतु तब शिक्षा जगत में राजनीति घुस चुकी थी। शिक्षा और विद्यालय खोलना समाजसेवा न होकर निज सेवा होती जा रही थी। परिणाम यह हुआ कि प्रबंधन, प्राचार्य और वरिष्ठ अध्यापकों के झगड़े में शिक्षा पतन की ओर अग्रसर होती गई। आज तो शायद ही कोई इंटर काॅलेज होगा जो स्वस्थ हो, जहां नकल और राजनीति का बोलबाला न हो।

अगर पिछली सदी के मध्य दशक में विशुनपुर के प्रभावी और ताकतवर लोगों की बात की जाए तो कुछ नाम स्वतः ही उभरकर क्षेत्रीय लोगों के मस्तिष्क में आ जाते हैं। इनमें सर्वप्रमुख स्व0 श्री रामनारायण मिश्र, श्री विजय नारायण मिश्र और स्व0 श्री शिवपूजन मिश्र थे। इन लोगों की लंबी जमींदारी और रुतबा था तथा प्रभाव एवं स्वभाव में ये किसी ़क्षत्रिय से कम नहीं  थे। बाद में श्री रामनारायण राढ़ी के पुत्र स्व0 श्री त्रिवेणी मिश्र ने अपने पिता की विरासत को संभाला। वास्तविकता यह थी कि एक समय श्री त्रिवेणी मिश्र से आँख मिलाकर बात करने की हिम्मत रखने वाला या उनसे शत्रुता मोल लेने वाला क्षेत्र में कोई नहीं था। हाँ, राढ़ी बिरादरी के लोगों का वे बहुत सम्मान करते थे और भाईचारा रखते थे। श्री त्रिवेणी मिश्र और श्री शिवपूजन मिश्र जब हाथी पर बैठकर अपने क्षेत्र में घूमते तो इनका जलवा होता था। श्री त्रिवेणी मिश्र का निधन अस्सी के दशक में हुआ होगा और श्री शिवपूजन मिश्र दीर्घजीवी रहे। श्री शिवपूजन मिश्र तो अंततः आर्थिक पतन को प्राप्त हुए और क्षेत्र के लोग उनका उत्थान - पतन, संपन्नता - विपन्नता के उदाहरण में उनके नाम का प्रयोग करने लगे। एक समय स्व0 श्री कामेश्वर मिश्र ने भी अपना परचम लहराया। उनका लंबा कुर्ता उनकी पहचान गया और वे भाजपा के स्थानीय नेता के रूप में स्थापित हुए। मधुमेह और सड़क दुर्घटना ने उन्हें लील लिया। प्रभाव और रुतबे के क्रम में स्व0 श्री राजेश्वरी मिश्र भी खड़े दिखते हैं और उनके पुत्र स्व0 श्री शीतला मिश्र ने भी वह विरासत संभाली। समय के साथ परिवर्तन आया और अब जातीय प्रभाव और आर्थिक शक्ति के बजाय आपराधिक प्रवृत्ति के लोग हर जगह प्रभावशाली हो रहे हैं, भले ही उनकी अपनी कोई औकात न हो।

ब्राह्मणत्व, विद्वता, सामथ्र्य, शक्ति और सज्जनता का समन्वय एक साथ यदि राढ़ी के पूरा में देखना होता तो उस समय पोखरा वाले पुरवे की ओर रुख करना पड़ता था। मैं अपने लेख में आदरणीय श्री जाह्नवी कांत  मिश्र का कई बार उल्लेख कर चुका हूँ। आप इसी टोले के हैं। श्री मिश्र जी के पिता स्व0 श्री कमलाकांत मिश्र (1914-2003) उस समय एक अच्छे पढ़े-लिखे व्यक्ति थे जो अंगरेजी सरकार में रेलवे अधिकारी थे। तब रेलवे को ई आई आर (ईस्ट इंडिया रेलवे) के नाम से जाना जाता था। एक अधिकारी होने के कारण उन्होंने कई लोगों की नौकरियां लगवाई थीं। श्री जे0के0 मिश्र ने इंजीनियरिंग पास की और भारत सरकार की सेवा से सेवानिवृत्त होकर इस समय बैंगलुरु में जीवन व्यतीत कर रहे हैं।
राढ़ी के पूरा  का पोखरा 

इसी पोखरा टोले के स्व0 श्री रामप्यारे मिश्र भी बहुत सम्मानित व्यक्ति रहे। मध्य शिक्षा प्राप्त श्री रामप्यारे मिश्र एक शिष्ट, योग्य, विनम्र किंतु निडर व्यक्ति थे। अदालती कार्यवाही, कानून और संगीत के वे अच्छे जानकार थे और हारमोनियम में निष्णात थे। उनके पास बैठने का सौभाग्य इस लेखक को भी बहुत मिला था क्योंकि पहले पिताजी से उनके संबंध बहुत अच्छे थे और बाद में मैं स्वयं बहुत निकट पहुंच  गया। उनकी संगीत की विरासत को उनके छोटे पुत्र श्री जगदीश मिश्र ने बखूबी संभाला। स्व0 श्री रामप्यारे मिश्र के बड़े पुत्र श्री त्रिलोकी नाथ मिश्र इंटर काॅलेज के प्रधानाचार्य पद से सेवानिवृत्त हैं और अच्छे अध्येता और ज्ञाता हैं और आज भी उनके अंदर का विद्यार्थी जीवित है। भैरोजी के विषय में मुझे उनसे भी अच्छी जानकारी मिली थी।

विशुनपुर, महाराजगंज की बात की जाए तो आस-पास के कुछ महत्त्वपूर्ण गांवों को उपेक्षित नहीं किया जा सकता। महराजगंज का दूसरा निकटतम और सशक्त गांव अक्षयबट है जिससे स्थानीय अपभ्रंश में अखैबर कहा जाता है। प्रमुखतया यह क्षत्रियों का गांव है और गांव की प्रसिद्धि क्षत्रियोचित कारणों से ही है। किसी समय भैरोजी के मंदिर पर मुसलमानों का आक्रमण हुआ था और शायद वह फारूख शेख का समय था, तब अक्षयबट के क्षत्रियों ने हमले का जवाब बड़ी बहादुरी से दिया था। उस आक्रमण में फारूख शेख के सिपाहियों ने हिंदुओं का कत्लेआम शुरू किया था किंतु अक्षयबट के क्षत्रियों ने विशुनपुर के राढ़ियों के साथ मिलकर उनका सामना किया था, अगुवाई की थी और आक्रांताओं को मुंह की खानी पड़ी थी। अक्षयबट की बाग में अंगरेजों के खिलाफ सभाएं हुई थीं और विद्रोह का बिगुल बजा था।
श्री जे- के - मिश्र के माता-पिता (स्व० श्री कमला कांत मिश्र )

मिश्रपुर (चांदपुर) की चर्चा किए बिना इस क्षेत्र का इतिहास अधूरा ही रहेगा। किसी समय जब संस्कृत, वैदिक आचार और शुचिता का बोलबाला था तो मिश्रपुर इसका ध्वजारोही था। इसे छोटा काशी कहा जाता था, और यह प्रकरण 1950 के आस-पास तक का होगा। कई जिलों के पंडित, शास्त्रज्ञ और विद्वान यहां के पंडितों से शास्त्र समझने आते थे। शास्त्रार्थ में चुनौती देने का साहस शायद किसी में रहा हो। न जाने कितनी किंवदंतियां यहां के विषय में प्रचलित हैं। सुना तो यह भी जाता है कि लगभग 100 साल पहले संस्कृत यहां की बोलचाल की भाषा थी। यदि अपुष्ट प्रमाणों की बात की जाय तो कहा जाता है कि एक बार बनारस में यहां के पंडितों के ज्ञान की चर्चा चली तो कुछ बनारसी विद्वान मिश्रपुर के पंडितों की परीक्षा लेने पहुंच  आए। बरसात का मौसम था। मुख्यमार्ग से गांव के बीच में कोई बरसाती नाला था जिसमें पानी भरा था । एक बनारसी विद्वान ने पास में खड़ी एक महिला (जो संभवतः कहार जाति से थी) से पूछा - नाले में कितना पानी है? इसपर महिला ने कहा- भीतो मा भव, केवलं कटिमानं जलं वर्तते’’। संस्कृत में दिए गए उसके इस उत्तर को सुनकर बनारसी विद्वान वहीं से उल्टे पांव वापस लौट गए। इस गांव के दो शास्त्रज्ञ विभूतियों को देखने का अवसर इस लेखक को भी मिला है। स्व0 त्रिवेणी तिवारी तो एक मिथक थे ही, स्व0 श्री रामदरश मिश्र भी कम विद्वान नहीं थे। यह मेरा सौभाग्य है कि श्री रामदरश मिश्र जी का बहुत ही अधिक स्नेह मुझे प्राप्त हुआ था।

कुल मिलाकर यह क्षेत्र भारतीय संस्कृति का एक उन्नत उदाहरण रहा है। भौतिकता के इस युग में भी अभी यह बड़े दावे के साथ कहा जा सकता है कि पूर्वी उत्तर प्रदेश भाईचारा, प्रेम, सौहार्द और अपनत्व में अपना शानी नहीं रखता। सीधी-सपाट जिंदगी, न दिखावा न अतिशयता। आजमगढ़ का यह क्षेत्र हर काल में अपना महत्त्व रखता रहा है। भैरोजी की यह पावन भूमि अतुलनीय है और रहेगी।

Comments

  1. ऐसा क्या हुआ जो सिर्फ १०० साल में संस्कृत की ऐसी हालत हो गयी है। लगता है आने वाले ५० साल में यह भाषा लुप्त न हो जाये। या सिर्फ पुस्तकों तक सिमट कर रह जाये

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  2. I am also afraid of the same and agree with you...

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  3. प्रणाम एक महत्वपूर्ण एवं सारगर्भित लेख जो इस पावन भूमि का परिचय करा रही है साथ ही साथ एतिहासिक जानकारी से भी परिपूर्ण है ,, ..... बहुत बहुत अभिनन्दनीय!!

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  5. शायद आप जमीदार स्व श्री उमानंद मिश्र को भूल गए उनके भी बड़े लड़के स्व श्री कृष्णदत्त मिश्र लेखपाल , और छोटे लड़के स्व श्री छोटकू मिश्र जो की स्वतंत्रता संग्रामी थे उनको काला पानी हुआ था मुझे लगा आपको बता दु जिससे आप अपनी लेखनी में लिख सके , इसके बारे में लगता है मिश्रा जी नही बता पाए
    धन्यवाद

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  6. Please introduce yourself. You have commented as anonymous and have not given me any details. If you have facts, please send me on hsrarhi@gmail.com

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