आयाम से विधा की ओर

इष्ट देव सांकृत्यायन 


वर्धा स्थित सेवाग्राम अश्रम परिसर में बापू कुटी
अगले दिन सुबह मैं ठीक समय पर तैयार होकर नागार्जुन सराय आ गया. बस निकलने ही वाली थी, इसलिए और कुछ भी किए बग़ैर मैं सीधे बस में बैठ गया. बस में भरपूर हंसी-ठिठोली करते थोड़ी ही देर में हम लोग सेवाग्राम पहुंच गए. बिलकुल प्राकृतिक वातावरण में मौजूद एक बड़े से परिसर में कई छोटे-छोटे घर... प्रकृतिप्रदत्त सुविधाओं से संपन्न. खपरैल के इन्हीं  घरों में से एक में गांधी जी का ऑफिस हुआ करता था, एक में वह रहते थे और एक में भोजन करते थे. एक घर के बारे में बताया गया कि यहां एक बार जब वे बीमार पड़ गए थे, तब रहे थे. यह उनके लिए उद्योगपति जमनालाल बजाज ने बनवाया था. कुछ लोग बड़ी श्रद्धापूर्वक गांधी जी को याद कर रहे थे, कुछ उनके ब्रह्मचर्य के प्रयोगों की चर्चा में मशगूल थे, कुछ क्रांतिकारियों के प्रति उनके दृष्टिकोण और कुछ उनके अहिंसा और सत्य पर किए गए प्रयोगों के. वैसे यशपाल के माध्यम से गांधी जी को जानने वालों की भी कमी नहीं थी. अच्छी बात यह थी कि सभी ने सच्चे गांधीवादी होने का परिचय दिया. बीच-बीच में व्यंग्यकार संतोष त्रिवेदी सबका भरपूर मनोरंजन भी करते रहे. मतों का आधिक्य और भेद भरपूर था, लेकिन टकराव बिलकुल नहीं. J लौटते हुए मेरा मन राष्ट्रपिता के प्रति श्रद्धा से भर आया था. वाक़ई क्रांति तो ऐसे ही करनी चाहिए. आगे-पीछे दो-चार सेठ जी लोगों की मदद हो, थोड़ा-बहुत हो-हल्ला, थोड़ी-बहुत नारेबाजी, दो-चार दिन धरना-प्रदर्शन, बहुत हुआ जेल चले गए... बस और क्या! पुलिस के लात-जूते खाने-पिटने के लिए दो-चार लाख टुटपुंजिए मिल जाएं, (मने अपने न पिटना हो) तो वाक़ई अहिंसा से बेहतर प्रयोग हो ही नहीं सकता. ये क्या कि चिरकुटों की तरह जंगल-जंगल भागते रहें, पुलिस से लेकर सेना तक से बचो, न खाने-पीने का ठिकाना, न रहने का बसेरा और घर-परिवार की बर्बादी अलग. पकड़े गए तो जेल-फेल टाइप मामला नहीं, सीधे फांसी. ये भी कोई क्रांति हुई, न अपना भला न दूसरे का!
चूंकि सेवाग्राम में ही काफ़ी देर हो गई थी और हमें अपना कार्यक्रम भी समय से शुरू करना था, लिहाज़ा तय किया गया कि पवनार आश्रम का कार्यक्रम फ़िलहाल मुल्तवी किया जाए. पवनार विनोबा जी का आश्रम है. हालांकि मन मेरा पवनार जाने का ज़रूर था, पर इस बार नहीं हो सका. मेरे इलाके में जो इकलौता इंटर कॉलेज है, उसमें विनोबा भावे के भूदान आंदोलन का सबसे महत्वपूर्ण योगदान रहा है. बुज़ुर्गों में ऐसे लोग अभी भी मिल जाते हैं, जिन्हें अपने सर्वोदयी होने पर गर्व है. ये अलग बात है कि उनमें से किसी ने भी चुनाव वगैरह लड़ने जैसा कोई पुण्यकार्य नहीं किया. ये लोग केवल स्कूल-अस्पताल टाइप चीज़ें ही बनवाते रह गए. बाक़ी  अपने लिए उनमें से कोई कुछ ख़ास कर पाया हो, ऐसा ज्ञान प्राप्त नहीं होता. (मैं तो पवनार का आश्रम असल में देख नहीं पाया, आपके लिए गूगल बाबा से साभार लेकर लगा दे रहा हूं.)

विश्वविद्यालय परिसर पहुंचने के बाद थोड़ी ही देर में तैयार होकर सभी हबीब तनवीर सभागार पहुंच गए. प्रेक्षागार है तो छोटा ही, लेकिन हमारे आयोजन के लिए पर्याप्त थी. पहले सत्र का संचालन मुझे ही करना था. यह साहित्य के उन आयामों पर केन्द्रित था, जिन्हें ब्लॉग और इंटरनेट जगत समेट और सहेज सका है. विज्ञान कथाकार डॉ. अरविंद मिश्र, कवि-सैलानी ललित शर्मा, व्यंग्यकार अविनाश वाचस्पति मुन्नाभाई, हमारे पुराने साथी रह चुके डॉ. अशोक मिश्र, डॉ. मनीष मिश्र, चिकित्सक ब्लॉगर डॉ. प्रवीण चोपड़ा, संस्कृत साहित्य से आज के हिंदी जगत को परिचित कराने में लगी शकुंतला शर्मा और कई विधाओं में निरंतर सक्रिय वंदना अवस्थी दुबे इस सत्र के प्रतिभागी थे. आरंभ डॉ. अरविंद मिश्र से हुआ, जिन्होंने ब्लॉगिंग को एक अलग विधा के ही रूप में देखने का आग्रह किया और इससे ही जोड़कर ब्लॉगिंग में आई साहित्य की विधाओं पर बात की जानी चाहिए. इसके साथ ही वहां मौजूद कई चिट्ठाकारों की विचारोत्तेजक टिप्पणियां आने लगीं, जो अगर अधिक खिंच जातीं तो बहुत हद तक आशंका इस बात की थी कि कहीं हमें पटरी ने छोड़ देनी पड़े. कई लोगों की असहमतियों के चलते उठ रही बहस को शायद विराम देने के इरादे से ही सिद्धार्थ जी ने विधाओं का समुच्चय बताने की कोशिश की. ललित जी ने इस चर्चा को आगे बढ़ाते हुए ब्लॉग पर उपलब्ध साहित्य के विभिन्न आयामों की बात की. अविनाश जी ने ब्लॉग और साहित्य के रिश्तों पर प्रकाश डाला. अशोक जी ने साहित्य और मीडिया के अंतर्संबंधों का ज़िक्र करते हुए साहित्य के प्रसार और उसकी पहुंच बढ़ाने में ब्लॉग की भूमिका पर प्रकाश डाला. ब्लॉग ने जिस तरह गुदड़ी छिपे साहित्य के लालों को दुनिया के सामने आने, पढ़े जाने और लोकप्रिय होने का मौक़ा दिया, वह सचमुच महत्वपूर्ण है. इस महत्व को रेखांकित करते हुए उन्होंने इसे साहित्यालोचन का विषय बनाए जाने की बात भी की. आम तौर पर हिंदी की बात जब की जाती है तो उसका दायरा केवल रचनात्मक साहित्य यानी कविता-कहानी तक सीमित कर दिया जाता है. लेकिन साहित्यकारों से कहीं ज़्यादा हिंदी की सेवा वे लोग कर रहे हैं, जो तथाकथित (इसे अन्यथा अर्थ में न लें) साहित्य नहीं रच रहे हैं. उन्हें अपने साहित्यकार या कुछ विशिष्ट कर रहे होने का कोई दंभ भी नहीं है, जबकि भाषा और समाज के हित में विशिष्ट कर वही रहे हैं. दुर्भाग्य यह है कि उनके रचनाकर्म पर हिंदी के ठेकेदार विचार तक नहीं कर रहे हैं, जो हिंदी साहित्य जगत की पिछड़ी मानसिकता के अलावा किसी और बात का परिचय नहीं देती. स्वभावतः सहज और विनम्र चिकित्सक डॉ. प्रवीण चोपड़ा ने बिलकुल ऐसा ही कहा तो नहीं, लेकिन उनकी बातें सुनकर यह विचार मेरे मन में आया. साहित्य के आलोचक तो यह काम करेंगे नहीं (जो ठेठ साहित्य के साथ ही न्याय करने को अपने साथ अन्याय मानते हैं, उनसे ऐसी बेजा उम्मीद भला कैसे की जा सकती है!), इसके लिए ब्लॉग जगत में कुछ लोगों को सामने आना चाहिए.  शकुंतला जी ने ब्लॉग को साहित्य के 10 रसों के इतर एक और यानी 11वां रस बताकर यह स्पष्ट कर दिया साहित्य के बहुतेरे आयामों को समेटने का काम ब्लॉग जगत बख़ूबी कर रहा है. मुंबई से डॉ. मनीष ने साहित्य के इतर ब्लॉग के अन्य आयामों की भी चर्चा की और अंत में वंदना अवस्थी दुबे ने कहा कि ब्लॉग साहित्य आयामों को सहेजने का काम बख़ूबी कर रहा है. मैंने हिंदी की कुछ महत्वपूर्ण साहित्यिक कृतियों के इंटरनेट और चिट्ठों पर उपलब्ध न होने की बात भी उठाई. केवल दो पोर्टल हैं; एक तो http://kavitakosh.org/ और दूसरा http://gadyakosh.org/gk/ जिन्होंने हिंदी के आदिकाल से लेकर आधुनिक काल तक के साहित्य को बिना किसी पूर्वाग्रह के एक साथ समेटने की कोशिश की है. मुश्किल ये है कि ये साइटें भी ललित कुमार अपने निजी संसाधनों से चला रहे हैं और निजी संसाधनों से कोई प्रयास कब तक जारी रखा जा सकता है, यह कहना मुश्किल है. इसीलिए मैंने अंग्रेजी के http://www.online-literature.com/ जैसा कोई पोर्टल विकसित किए जाने के प्रयास की बात भी की. संयोग से इस बीच कुलपति विभूति नारायण राय भी आकर दर्शक दीर्घा में बैठ गए थे. उन्होंने स्पष्ट किया कि इसका प्रयास चल रह है और काफ़ी हद तक सफल भी हो रहा है. विश्वविद्यालय के ही पोर्टल http://www.hindisamay.com/ पर कई महत्वपूर्ण कृतियां उपलब्ध कराई जा चुकी हैं. आगे और रचनाएं उपलब्ध कराने का काम भी चल रहा है. साथ ही, सिद्धार्थ ने भी http://www.hindisamay.com/ पर उपलब्ध कई कृतियों का ब्योरा भी दे दिया. अच्छी बात यह थी कि इस सत्र में ब्लॉगरों, प्रतिभागियों, अध्यापकों और छात्रों सबको अपने मत रखने और प्रश्न उठाने यानी विमर्श की पूरी स्वतंत्रता थी. संचालक होने के नाते मेरी यह ज़िम्मेदारी थी कि इस लोकतंत्र को भारत के लोकतंत्र की तरह केवल घोषणा तक सीमित न रहने देकर सही मायने में कम से कम आयोजन का ज़मीनी सच बनाऊं और बिलकुल मैत्रीपूर्ण माहौल के नाते इस बात का भरोसा भी था कि इसे कोई अन्यथा नहीं लेगा. यह अलग बात है कि ब्लॉग को एक अलग विधा मानने की अरविंद जी की बात से जो चखचख शुरू हुई और उसमें छात्र तो कम दर्शक दीर्घा में मौजूद अनूप शुक्ल, हर्षवर्धन त्रिपाठी जैसे विशेषज्ञों ने अपनी निर्णयात्मक स्थापनाओं की जो आहुति डाली J उसे संभालते हुए सत्र को समय से संपन्नता के मकाम तक पहुंचा पाना मुश्किल लगने लगा था. 

Comments

  1. बहुत परिश्रम से लिखी पोस्ट है -गांधी किसी अजूबे से कम नहीं, उनको समझ पाना बहुत मुश्किल है -शायद वे अंत तक खुद को भी समझने की जद्दोजेहद में लगे रहे ! आगे की प्रतीक्षा है !

    ReplyDelete
  2. बढ़िया रहा यह चर्चा सत्र। डॉ.अरविंद जी की नयी स्थापना को कम ही ग्राहक मिल सके।
    मैं एक बात कह सकता हूँ कि साहित्य में जो-जो है वह सब ब्लॉग में मौजूद है लेकिन ब्लॉग में मौजूद सभी चीजें पारंपरिक साहित्य में नहीं है। यह जो कुछ अलग सा ब्लॉग में है उसे कौन सी विधा मानेंगे यह तय किया जाना चाहिए।

    ReplyDelete
    Replies
    1. जो अलग से है, उसे ग्रेपवाइन या लोकचर्चा जैसा कुछ कहा जा सकता है. हालांकि इस पर मैं किसी भिड़ंत के लिए तैयार नहीं हूं. :-)

      Delete
  3. "यह जो कुछ अलग सा ब्लॉग में है उसे कौन सी विधा मानेंगे यह तय किया जाना चाहिए।"
    = ब्लॉग विधा :-)
    अलग क्या क्या है हम इसे रेखांकित करते चलें

    ReplyDelete
    Replies
    1. जवाब दे दिया है सर. हालांकि आप सहमत होंगे, इसमें संदेह है. :-)

      Delete
  4. निर्णयात्मक स्थापनाओं की जो आहुति डाली- ये अच्छा है

    ReplyDelete
    Replies
    1. धन्यवाद हर्षवर्धन जी! वाक़ई हमारे यहां लोग सीधे फ़ैसला देने के ही आदी हैं. (पता नहीं कोर्ट क्यों इतनी देर लगाती है :-) ) अरविंद जी की अलग स्थापना थी, अनूप जी अलग, आपकी अलग.... मैं तो वाक़ई चकरघिन्निया गया था. :-) वैसे इस पर भी अभी मुझे लिखना है, अलग से.

      Delete
  5. इतने अनुभवी लोगों के बीच बैठना अपने आप में एक अनुभव था।

    ReplyDelete
    Replies
    1. सही है प्रवीण जी. मेरे लिए तो वर्धा की यात्रा और इन आयोजनों में शिरकत दोनों ही बड़े अच्छे अनुभव रहे.

      Delete
  6. बहुत अच्छी परिचर्चा रही।

    ReplyDelete

Post a Comment

सुस्वागतम!!

Popular posts from this blog

रामेश्वरम में

इति सिद्धम

Bhairo Baba :Azamgarh ke

Most Read Posts

रामेश्वरम में

Bhairo Baba :Azamgarh ke

इति सिद्धम

Maihar Yatra

Azamgarh : History, Culture and People

पेड न्यूज क्या है?

...ये भी कोई तरीका है!

विदेशी विद्वानों के संस्कृत प्रेम की गहन पड़ताल

सीन बाई सीन देखिये फिल्म राब्स ..बिना पर्दे का

आइए, हम हिंदीजन तमिल सीखें