एक दूसरे के ढोल में छेद करते हुये बेसुरे हो चले

एक पते की बात, क्या होगा यदि आप नास्तिक हो जाएंगे ? या फिर निहिलिस्ट, या फिर वादी या गैरवादी? (इष्टदेव जी ने वादी और गैरवादी शब्द का इस्तेमाल किया है, जिसका अर्थ व्यक्ति अपनी अपनी समझदानी के मुताबिक कुछ भी निकाल सकता है) किसी भी धर्म का कुछ बिगड़ जाएगा ?? या फिर कोई धर्म आपका कुछ बिगाड़ लेगा..या फिर आप तख्ता पलट क्रांति कर देंगे....बहरहाल धर्म के मामले में नीत्से की भूमिका कुछ कुछ लुभाने वाला है, खासकर उनलोगों के लिए जो ईश्वर की सत्ता को संदेह की नजर से देखते हैं। लेकिन अभी बात धर्म की है, इसलिये धर्म पर केंद्रित रहेंगे।
नीत्से कहता है, “ईश्वर मर चुका है।” और लोग इधर कहते हैं किताब जिंदा रहता है, और जिंदा किताब के लिए लोगों की हत्या करते हैं..यह ट्रेजडी आफ धर्म है कि कामेडी आफ धर्म... ?? दुनिया में ईश्वर के नाम पर इनसान को गाजर मूली की तरह काटा गया है, सड़कों और चौराहों पर जिंदा जलाया गया है। आज भी इस तरह की झांकियां जहां तहां देखने को मिल जाती है। क्रूसेड, धर्मयुद्ध और जेहाद के नाम पर जितना खून बहा है उसके पाप (यदि दुनिया में पाप और पुण्य है तो) से ईश्वरवादियों को अब तक भस्म हो जाना चाहिये था।
ईश्वर क्या है, इस प्रश्न का उत्तर आप तलाश करते रहे, कोई नतीजा नहीं निकलने वाला...वह बादलों की ओट में रहता है ? आकृति में ढली पत्थरों में?? गुंबजों के नीचे ?? या मूर्तियों में??...यदि नीत्से की माने तो ईश्वर मर चुका है। नीत्से अपने तरीके से ईश्वर के मरने की घोषणा करता है तो मार्क्स ईश्वर के भौतिक अस्तित्व को दिन प्रति दिन के मैकेनिज्म में देखते हुये उसे पूंजी के संग्रह और वितरण से जोड़ता है। ये दोनों ईश्वर के अस्तित्व से इनकार करते हैं।
यदि नीत्से की बात को आगे बढ़ाते हैं, तो पता चलता है कि ईश्वर का जन्म हुआ था, तभी तो वह मरा। मूसा, ईसा और मुहम्मद का ईश्वर अदृश्य है.. जबकि चारणगीत (किसी के मुंह से सुना था कि वेद चारण गीत है, और उसकी बातों पर यकीन कर बैठा, और आज भी यह यकीन बरकरार है, क्योंकि सुनी हुई बाते लिखी हुई बातों से मुझे ज्यादा आकर्षित करती है) वेदों का ईश्वर मानवीय आकार लेता है, बेबिलोनिया के तमाम ईश्वर की तरह। मूसा के ईश्वर का जन्म बेबिलोनिया के आकार वाले ईश्वर की धुर प्रतिक्रिया है। इसलिये वह बेबिलोनिया के तमाम ईश्वर की हत्या करने पर आमाद है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि ईश्वर ईश्वर को जन्म देता है और ईश्वर का जन्म सबसे पहले इंसान के मस्तिष्क में होता है। तो फिर ईश्वर चाहे भौतिक हो या अभौतिक उसका गर्भगृह मानव का दिमाग है। इस गर्भगृह में ईश्वर का जन्म होने के बाद वह पलता बढ़ता है और धीरे धीरे बहुत बड़ी आबादी के लोक व्यवहार को संचालित करने लगता है। दुनिया की जितनी भी प्राचीन सभ्यताएं रही हैं सब में भौतिक ईश्वर का बोलबाला रहा है। चाहे वह मिस्र की सभ्यता हो, या फिर दजला और फूरात की या फिर यूनान की, या फिर चीन की या फिर सिंधू घाटी की। भौतिक ईश्वर की उपस्थिति इन सभ्यताओं में मजबूती से दर्ज है। भौतिक ईश्वर ने इन तमाम सभ्यताओं की संरचनाओं को बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है और निर्माण की यह प्रक्रिया काफी लंबी खींची है। कालक्रम में भौतिक ईश्वर के संचालकों ने मानवीय व्यवहारों को नियंत्रित करते हुये उत्पादन के हिस्सों को बड़ी खूबसूरती के साथ अपने खाते में न सिर्फ समेटा बल्कि पीढ़ी दर पीढ़ी इसे समेटते रहने की एक ठोस व्यवस्था भी बनाने की कोशिश की और इसमें वे सफल भी हुये। किसी भी काल खंड में उत्पन्न सभ्यता की संरचना को इस परिप्रेक्ष्य में बेहतर तरीके से समझा जा सकता है। समय समय पर इसके खिलाफ विभिन्न स्तर पर प्रतिक्रियाएं भी होती रही हैं। हिन्दुओं के ईश्वर के खिलाफ चार्वाक की उपहासजनक प्रतिक्रिया भौतिक ईश्वर को केंद्र में रख कर गढ़ी गई संरचना के खिलाफ प्रतिक्रिया थी। बाद में बुद्ध और जैन ने भी अपने अपने तरीके से इसी धारा को आगे बढ़ाया था, जिन्हें बहुत ही चालाकी के साथ भौतिक ईश्वर के रूप में ढाल कर इस धारा को कुंद करने की कोशिश की गई। भौतिक ईश्वर के खिलाफ मूसा का प्रतिक्रिया उग्र था। फराओ के राज्य में रह रहे अपने लोगों को गुलामी से निकालने के लिए उसे एक उग्र ईश्वर की आवश्यकता था। एक अदृश्य ईश्वर (अभौतिक ईश्वर) का निर्माण करके उसने अपने लोगों को एक जुट किया। और इसी के साथ बूतों में व्याप्त ईश्वर की हत्या का सूत्रपात हुआ। करुणा रस से ओतप्रोत ईसा भी इसी धारा की अगली कड़ी था, लेकिन मोहम्मद ने इस धारा को उग्रतम बिंदू तक पहुंचा दिया।
ईश्वर के जिंदा रहने के लिए यह जरूरी है कि वह लोक व्यवहार में दिखाई दे। यह नियम दोनों भौतिक और अभौतिक ईश्वर के अस्तित्व के लिए जरूरी है। लोक व्यवहार में दोनों तरह के ईश्वर के प्रति निष्ठा व्यक्त करने के तौर तरीके अलग अलग होते हैं। दंड बैठक करते हुये मस्जिदों में अल्लाह के प्रति मुसलमानों का सजदा करना और और मंदिरों में चप्पल बाहर निकाल कर पत्थरों में तराशे गये ईश्वर के सामने सर झुकना, गिरजा घर में ईसा की रक्तरंजित मूर्ति के सामने प्रार्थना भौतिक और अभौतिक देवताओं के नाम पर निर्मित लोक व्यवहार ही हैं। समाज में हिंसक टकराव का एक मुख्य कारण भौतिक और अभौतिक ईश्वर के नाम पर रचा गया यह लोक व्यवहार ही है। बहुत बड़ी आबादी लोक व्यवहारों से संचालित होते हुये ईश्वर को करीब महसूस करने की कोशिश करती है। तमाम तरह के धर्मालयों का निर्माण इन्ही लोक व्यवहारों को संचालित करने के लिए किया जाता है और किया जाता रहेगा।
ईष्टदेव जी अपने आलेख ‘ये जो धर्मनिरपेक्ष’ में कहतें हैं, “हर धार्मिक मत ईश्वर को परमपिता कहता है।“ ऐसा कह कर वह एक सर्वमान्य सत्य को स्थापित तो करते ही हैं, लेकिन इसके साथ ही वह अनजाने में तमाम धर्मों की एक क्रूर हकीकत को भी बयां कर जाते हैं। उनके इस एक वाक्य से एक सहज सा सवाल निकलता है, हर धार्मिक मत ईश्वर को परमपिता ही क्यों कहता है। इसका सहज सा उत्तर है हर धर्म की संरचना में पुरुषों की भागीदारी रही है। ईश्वर और उसके सजदा करने के तौर तरीकों के निर्माण के दौरान पुरुषों ने स्त्रियों को नियंत्रित करने पर खासा बल दिया, क्योंकि उन्हें पता था कि किसी भी धार्मिक व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने के लिए स्त्रियों के व्यवहार को नियंत्रित किया जाना जरूरी है। इस्लमा स्त्रियों के संदर्भ में चार शादी की व्यवस्था को स्थापित करता है, जबकि इस व्यवस्था के बहुत पहले ही हिन्दू धर्म में द्रौपदी पांच पांच पतियों से व्यवहारिक रूप से रू ब रू होती है, हालांकि द्रौपदी का यह फार्मूला लोकाचार का रूप धारण नहीं करता जबकि इस्लाम में चार शादी का रिवाज दूर तक जाता है और फिर आर्थिक कारणों से एक सीमा के बाद खुद ब खुद दम तोड़ता हुआ नजर आता है।
नैतिकता और अनौतिकता का कांटा धर्म के से जुड़ा हुआ है। किसी धर्म में स्थापित नियमों के खिलाफ यदि आप सोंचते हैं या जाते हैं तो आप नैतिकता की सीमा को पार करते हैं।
शादी व्यवस्था पर सभी धर्मों में बड़ी बारीकी से काम किया गया है, और इसी के आधार पर पर समाज को व्यवस्थित किया गया है। भौतिक और अभौतिक ईश्वर के संस्थापकों ने अपनी अपनी संरचनाओं में मानव मस्तिष्क को व्यवस्थित करने की पूरजोर कोशिश की है। चेतन के साथ-साथ अचेतन को भी सीमाओं मे बांधने की कोशिश की गई है और साथ ही इसे वस्तु विनिमय से जोड़ते हुये पवित्रता का जामा भी पहनाया गया है। इस्लाम में शादी एक समझौते के रूप में सामने आता है, और इसके लिए एक निश्चत रकम लड़की के ओर से तय की जाती है, और फिर कबूल है, कबूल है के साथ यह सम्पन्न होता है। हिन्दू धर्म में अग्नि के चारों ओर फेरे लेने पड़ते हैं, और लड़की वाले एक मुश्त दहेज देते हैं। यदि थोड़ी देर के लिए हम सिगमंड फ्रायड के नजरिये से शादी व्यवस्था में किसी स्त्री की मानसिकता को पकड़ने की कोशिश करे तो सभी धर्मों की संचरना धड़धड़ा कर टूटती हुई सी प्रतीक होती है। फ्रायड मानव मस्तिष्क को तीन भागों में बांटता है..चेतन, अर्धचेतन और अचेतन। वह कहता है कि व्यक्ति का दस प्रतिशत भाग चेतन व अर्ध चेतना में होता है जबकि 90 प्रतिशत भाग अचेतन में, और इस अचेतन के केंद्र में होता है सेक्स। वह कहता है कि व्यक्ति के बाह्य व्यवहार का अध्ययन करने पर यह स्पष्ट रूप से पता चलता है कि उसके अधिकतर कार्य सेक्स से ही संचालित हो रहे हैं। इसी आधार पर हम थोड़ा सा और आगे बढ़ते हैं, यदि शादी के बाद कोई स्त्री अपने पति से कहती है कि वह उसके किसी दोस्त के साथ उसकी उपस्थिति में हमबिस्तर होना चाहती है तो इस स्थिति पर तमाम धर्मों का रूख क्या होगा ?? (क्षमा करे स्त्री अस्मिता पर चोट पहुंचाने का मेरा कोई इरादा नहीं है)। स्त्री की इस इच्छा के सामने दुनिया का कोई भी धर्म नहीं टिकता है, जबकि धर्म की पकड़ स्त्रियों पर सबसे मजबूत है, इसलिये ईश्वर परम पिता के रूप में सामने आता है, चाहे वह भौतिक ईश्वर हो या अभौतिक ईश्वर।
ईष्टदेव जी के आलेख पर अपनी प्रतिक्रिया में रंजना जी कहती हैं, “...आज भी यदि सांप्रदायिक सौहाद्र कायम है तो सिर्फ आम जनता के सहिष्णुता के कारण ही..” भौतिक और अभौतिक ईश्वर व्यवस्था के आपसी टकराव में खून खराबा तो काफी हुआ है, लेकिन जमीनी स्तर पर इनके मानने वालों में आपसी मेल मिलाप की लंबी प्रक्रिया भी चली है। और इसी प्रक्रिया का नतीजा है कि आमजन सहज रूप से अपनी मुरादों के लिए एक दूसरे के स्थापित धार्मिक स्थलों की रुख करता रहा है, एक दूसरे के लोक त्योहारों में अपनाता रहा है। यह सब कुछ सहज रूप से हुआ है और होता रहेगा। यह हमेशा ध्यान देने वाली बात है कि उन्मादी हवा हमेशा ऊपर से नीचे की ओर आती है, जनसामान्य को अपनी लपेट में ले लेती है। हरिशंकर राढी जी बड़ी सहजता से इस सत्य को उदघाटित करते हैं कि धर्म कट्टरता से आम जनता कैसे बची रह जाती है। ईष्टदेव जी के आलेख पर अपनी प्रतिक्रिया में वह कहते हैं, “मुझे तो कई बार ऐसा लगता है कि इस समय कोई धर्म निरपेक्ष है तो वह कोई अनपढ ही होगा।”
राज्यारोहण के समय भरी सभा में पोप के हाथों से राजमुकुट को अपनी तलवार की नोक पर लेते हुये क्रातिपुत्र नेपोलियन बोनापार्ट ने कहा था, “यह ताज फ्रांस की धुल में लिपटा हुआ था, इसे मैंने तलवार के नोक पर पाया है।” नेपोलियन के ऐसा कहने के पहले ही इंग्लैंड में हेनरी अष्टम ने अपनी मनपसंद महिला को अपना बनाने के लिए धर्म की सत्ता को बेखौफ होकर चुनौती दे चुका था। और शायद धर्मनिरपेक्ष जैसे शब्दों का इस्तेमाल तभी से होता आ रहा है। धर्म को तलवार के नोक पर रखने वाले बोनापार्ट ने एक बार कहा था कि धर्म के माध्यम से इनसान पर शासन करना आसान होता है, यदि धर्म नहीं होता है मुझे इसकी स्थापना करनी पड़ती। यानि कि धर्म व्यापक पैमाने पर जन व्यवहार को नियंत्रित करने का एक साधन है, लेकिन धर्म की हवा बनाने वाले लोगों को पूरी ईमानदारी के साथ यह स्वीकार करना होगा कि इस साधन का इस्तेमाल सकारात्मक रूप में हो।
इस बात से कतई इंकार नहीं किया जा सकता है कि दुनिया के तमाम धर्म बुद्धिमता पूर्ण वाक्यों से भरे पड़े हैं। विभिन्न परिस्थितियों में इंसान को निश्चित तरीके से व्यवहार करने के लिए प्रेरित करते हैं। एक जीवन की पूरी व्यवस्था इनमे निहित है। नये राज्यों के अभ्युदय के साथ व्यक्तिगत स्वतंत्रता की अवधारणा ने जोर पकड़ा है। स्वतंत्रता को परिभाषित करते हुये जान स्टुअर्ट मिल लिखता है, “व्यक्ति तभी तक स्वतंत्र है जब तक उसकी स्वतंत्रता किसी अन्य व्यक्ति की स्वतंत्रता में बाधा न बने।” धर्म की चौहद्दी को भी इसी परिभाषा के तहत निर्धारित करने की जरूरत है। मार्क्स धर्म को उखाड़ फेकने की बात करता है, धर्म तो नहीं उखड़ा लेकिन मार्क्स उखड़ गया। शायद मार्क्स इष्टेदव जी तरह लोकाचार में व्याप्त धर्म के सकारात्मक संचलन को नहीं समझ सका था। तमाम तरह के वादी और गैरवादी अपना अपना ढोल पीटते हुये एक दूसरे के ढोल में छेद करने में लगे हुये हैं, नतीजा ये हो रहा है सब के सब बे सुरे हो गये हैं।


Comments

  1. नतमस्तक हुआ महराज।
    मार्क्स और माओ तो उन्हें मानने वालों के लिए 'नए ईश्वर' ही हैं। इस मन्दिर के पुजारियों का मंत्र था/है - All are equal but some are more equal.
    कभी कभी लगता है कि ईश्वर धर्म वगैरह इंसानी जरूरत बन गए हैं - हटाओ तो किसी न किसी रूप में गढ़ ही लेता है।
    आभार, विचारोत्तेजक लेख पढ़वाने केलिए।

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  2. अद्भुत लिखा है आलोक जी आपने. क्षमा करें यह कहने के लिए बाल का खाल निकालने में आपका कोई जवाब नहीं है. इसमें आपके किसी भी तर्क से इनकार नहीं किया जा सकता है. एक बात और कहने का मन हो रहा है, वह यह कि पूंजीवादियों ने पहले अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए नोट का भगवान बनाया तो अब धर्मनिरपेक्षतावादियों ने वोट का भगवान बना लिया है. हालांकि इनके वोट के भगवान के पीछे भी नोट ही ताक़त के बतौर काम कर रहा है और इसका उद्देश्य भी नोट की प्राप्ति ही है. दौर चाहे धुर मोनार्की का रहा हो या फिर आज का लोकतंत्र, सत्ता के धर्म हमेशा एक औजार ही रहा है. ऐसा औजार जिसके जरिये लोगों पर शासन करना आसान हो जाता है. पहले लोग सीधे-सादे थे तो राजतंत्र उनके भीतर ईश्वर का भय उत्पन्न करके शासन करता था. अब लोग पढ़-लिख गए हैं और ज़्यादा चालाक हो गए हैं. तो उन्हें धर्म के नाम पर आपस में ही लड़ा कर कमज़ोर किया जाता है और फिर शासन किया जाता है. नीत्से की बात मुझे भी आकर्षित करती है, लेकिन मेरा गंवई मन मुझे बार-बार कभी डीह बाबा के थान पर लिए जाता है तो कभी पीर बाबा के. हालांकि वह ताक़त भी गंवई मन ही देता है जो मुझे मुल्ला और महंतों की चालों से बचाता है. साथ ही, धर्मनिरपेक्षतावादियों के छद्म से भी.

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  3. कुछ ऐसा ही कुकुर-झौं-झौं ब्लॉगरमण्डलियों के बीच भी देखने में आ रहा है।
    इस विस्तृत संसार में प्रत्येक विचारधारा के लिए पर्याप्त स्पेस उपलब्ध है। लेकिन भाई लोग बिना कोई रगड़ मचाए चैन से रहना पसन्द ही नहीं करते। मेरी कमीज ज्यादा सफेद की मानसिकता हावी है।

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  4. आजकल तो यही हो रहा है।
    कानों को फटे ढोल की आदत हो गई है।

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  5. are bhaaee dharm naheen hota to dharm ke thekedaar kahaan hote?

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