डर के बिना कुछ न करेंगे जी...!

 

इलाहाबाद में आजकल पब्लिक स्कूलों में बढ़ी हुई फीस के ख़िलाफ अभिभावक सड़कों पर उतर आए हैं। वकील, पत्रकार, व्यापारी, सरकारी कर्मचारी आदि सभी इस भारी फीस वृद्धि से उत्तेजित हैं। रोषपूर्ण प्रतिक्रिया व्यक्त कर रहे हैं। इसे लेकर कानून व्यवस्था की स्थिति बिगड़ने लगी तो जिलाधिकारी को स्कूल प्रबन्धकों के साथ समझौता वार्ता करनी पड़ी है। नतीजा चाहे जो रहे लेकिन इस प्रकरण ने मन में कुछ मौलिक सवाल फिर से उठा दिए हैं।जिलाधिकारी को ज्ञापन

भारतीय संविधान में ८६वें संशोधन(२००२) द्वारा प्राथमिक शिक्षा को अब मौलिक अधिकारों में सम्मिलित कर लिया गया है। मौलिक अधिकारों से सम्बन्धित अध्याय-३ में जोड़े गये अनुच्छेद २१-क में उल्लिखित है कि-

“राज्य ऐसी रीति से जैसा कि विधि बनाकर निर्धारित करे, छः वर्ष की आयु से चौदह वर्ष की आयु तक के सभी बच्चों के लिए निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा उपलब्ध करेगा।”

नागरिकों के लिए निर्धारित मौलिक कर्तव्यों की सूची, अनु.५१-क, में भी यह कर्तव्य जोड़ा गया है कि-

५१-क(ट): छः वर्ष की आयु से १४ वर्ष की आयु के बच्चों के माता पिता और प्रतिपाल्य के संरक्षक, जैसा मामला हो, उन्हें शिक्षा के अवसर प्रदान करें।”

शिक्षा को वास्तविक मौलिक अधिकार बनाने की राह में पहला कदम आजादी के पचपन साल बाद उठाकर हम संविधान में एक धारा बना सके हैं। इसका अनुपालन अभी कोसों दूर है। अभी हमारे समाज में शिक्षा व्यवस्था दो फाँट में बँटी हुई है। बल्कि दो ध्रुवों पर केन्द्रित हो गयी लगती है। पहला सरका्री और दूसरा प्राइवेट। इन दोनों क्षेत्रों में चल रही शिक्षण संस्थाओं पर गौर करें तो इनके बीच जो अन्तर दिखायी देता है उसकी व्याख्या बहुत कठिन जान पड़ती है।

 

सरकारी संस्थाओं में फीस कम ली जाती है। आयोग या चयन बोर्ड से या अन्य प्रकार की प्रतियोगी परीक्षा से चयनित योग्य अभ्यर्थियों को शिक्षण और प्रशासनिक नियन्त्रण  के कार्य के लिए योजित किया जाता है। सरकारी दर से मोटी तन्ख्वाह दी जाती है। सेवा सम्बन्धी अनेक सुविधाएं, छुट्टियाँ और परीक्षा आदि के कार्यों के लिए अतिरिक्त पारिश्रमिक। यह सब इसलिए कि सरकार की सबसे बड़ी जिम्मेदारी के इस काम में कोई कमी न रह जाय। शिक्षादान को बहुत बड़ा पुण्य भी माना जाता है। सरकारी वेतन पाते हुए यदि यह पुण्य कमाने का अवसर मिले तो क्या कहने? ऐसे ढाँचे में पलने वाली शिक्षा व्यवस्था तो बेहतरीन परिणाम वाली होनी चाहिए। लेकिन हम सभी जानते हैं कि वस्तविक स्थिति इसके विपरीत है। सच्चाई यह है कि जिस अध्यापक की जितनी मोटी तनख्वाह है उसके शिक्षण के घण्टे उतने ही कम हैं। गुणवत्ता की दुहाई देने वालों को पहले ही बता दूँ कि बड़े से बड़ा प्रोफेसर भी यदि कक्षा में जाएगा ही नहीं तो उसकी गुणवता क्या खाक जाएगी बच्चों के भेजे में।

 

प्राइवेट स्कूलों का नजारा बिल्कुल उल्टा है। फीस अपेक्षाकृत बहुत ज्यादा। प्रबन्ध तन्त्र द्वारा अपने व्यावसायिक हितों (कम लागत अधिक प्राप्ति) की मांग के अनुसार शिक्षकों की नियुक्तियाँ की जाती हैं। गुणवत्ता की कसौटी काफी बाद में आती है। परिवार के सदस्यों और रिश्तेदारों को सधाने के बाद सरकारी नौकरी पाने  में असफल रहे मजबूर टाइप के लोगों को औने-पौने दाम पर रख लिया जाता है। दस से बारह तक भी काम के घण्टे हो सकते हैं। सुविधा के नाम पर कोई छुट्टी नहीं, एल.डब्ल्यू.पी. की मजबूरी साथ में, शिक्षण के अतिरिक्त विद्यालय के दूसरे काम मुफ़्त में, नाच-गाना। लगभग बन्धुआ मजदूर जैसा काम।

 

इन दोनो मॉडल्स में जो अन्तर है उसके बावजूद एक अभिभावक की पसन्द का पैटर्न प्रतिलोमात्मक है। कम से कम प्राथमिक स्तर की शिक्षा का तो यही हाल है। जो सक्षम हैं वे अपने बच्चों का प्रवेश प्राइवेट कॉन्वेन्ट स्कूलों में ही कराते हैं। थोड़े कम सक्षम लोग भी गली-गली खुले हुए ‘इंगलिश मीडियम मॉन्टेसरी/ नर्सरी’ में जाना चाहेंगे। सरकारी स्कूल में जाने वाले तो वे भूखे-नंगे हैं जिन्हें दोपहर का मुफ़्त भोजन चाहिए। सरकारी वजीफा चाहिए जिससे मजदूर बाप अपनी बीड़ी सुलगा सके। मुफ़्त की किताबें चाहिए जिससे उसकी माँ चूल्हे में आग पकड़ा सके, स्कूल ड्रेस चाहिए जिससे वह अपना तन ढँक सके। नियन्त्रक अधिकारियों से लेकर उच्चतम न्यायालय तक का ध्यान भी इन्हीं विषयों तक अटक कर रह जाता है। पठन-पाठन का मौलिक कार्य मीलों पीछे छूट जाता है। बहुत विस्तार से बताने की जरूरत नहीं है क्योंकि सब जानते हैं कि सरकारी पाठशालाओं की हालत कैसी है।

 

मेरा प्रश्न यह है कि इसी समाज में पला-बढ़ा वही व्यक्ति सरकारी महकमें में जाकर बेहतर परिस्थियाँ पाने के बावजूद अपने कर्तव्य के प्रति उदासीन क्यों हो जाता है। नौकरी की सुरक्षा के प्रति आश्वस्त होते ही हरामखोरी उसके सिर पर क्यों चढ़ जाती है? बच्चों को नैतिक शिक्षा का पाठ पढ़ाने की जिम्मेदारी जिसके सिर पर है वह स्वयं क्यों अनैतिक हो जाता है? जिसे बच्चों में सदाचार और अनुशासन का बीज बोना है, वे स्वयं अनुशासनहीन और कदाचारी कैसे हो जाते हैं? जो व्यक्ति प्राइवेट संस्थानों में सिर झुकाए कड़ी मेहनत करने के बाद तुच्छ वेतन स्वीकार करते हुए उससे बड़ी धनराशि की रसीद तक साइन कर देते हैं वही सरकारी लाइसेन्स मिलते ही आये दिन हड़ताल और प्रदर्शन करके अधिक वेतन और सुविधाओं की मांग करते रहते हैं। ऐसा क्यों है?

 

यहाँ मैं अपवादों की बात नहीं कर रहा हूँ। लेकिन सामान्य तौर पर जो दिखता है उससे मेरा निष्कर्ष यह है कि हमारा समाज ऐसे लोगों से ही भरा पड़ा है जिनके भीतर स्वार्थ, मक्कारी और मुफ़्तखोरी की प्रवृत्ति प्रधान है। अकर्मण्यता, आलस्य और अन्धेरगर्दी की फितरत स्वाभाविक है। कदाचित्‌ मनुष्य प्रकृति से ही ऐसा है। यह हालत केवल शिक्षा विभाग की नहीं है बल्कि सर्वत्र व्याप्त है। यह भी कि कायदे का काम करने के पीछे केवल एक ही शक्ति काम करती है, वह है “भय”।

 

केवल भय ही एक ऐसा मन्त्र है जिससे मनुष्य नामक जानवर को सही रास्ते पर चलाया जा सकता है। शारीरिक प्रताड़ना का भय हो, या सामाजिक प्रतिष्ठा का भय, नौकरी जाने का भय हो या नौकरी न मिल पाने का भय, रोटी छिन जाने का भय हो या भूखों मर जाने का भय; यदि कुछ अच्छा काम होता दिख रहा है तो सिर्फ़ इसी एक भय-तत्व के कारण। जहाँ इस तत्व की उपस्थिति नहीं है वहाँ अराजकता का बोलबाला ही रहने वाला है। आज ड्ण्डे की शक्ति ही कारगर रह गयी लगती है।

 

जय हो “भय” की...!!!

(सिद्धार्थ)

Comments

  1. भय ही एक ऐसा मन्त्र है जिससे मनुष्य नामक जानवर को सही रास्ते पर चलाया जा सकता है। -बिल्कुल सही कह रहे हैं.

    ReplyDelete
  2. नौकरी की सुरक्षा के प्रति आश्वस्त होते ही हरामखोरी उसके सिर पर क्यों चढ़ जाती है? बच्चों को नैतिक शिक्षा का पाठ पढ़ाने की जिम्मेदारी जिसके सिर पर है वह स्वयं क्यों अनैतिक हो जाता है?
    बहुत सही प्रश्‍न उठाया आपने ।

    ReplyDelete
  3. भय की जय हो, कमसकम यहाँ तो जय बोल दो

    ---
    चाँद, बादल और शाम

    ReplyDelete
  4. क्या कहें हम तो स्वयं इस तमाशे को देख परेशान हैं। बच्चों के जीवन के साथ खिलवाड़ हो रहा है।
    घुघूती बासूती

    ReplyDelete
  5. विडम्बना यह है कि हिन्दी माध्यम के स्कूलों में
    दिन-प्रतिदिन छात्रों की संख्या घट रही है।

    ReplyDelete
  6. सही है ,इन लोंगों नें लूट का अड्डा बना रखा है .

    ReplyDelete
  7. सौ फ़ीसदी सही बात है सिद्धार्थ भाई. मुश्किल बात ये है कि शिक्षा के सारे निजी संस्थान किसी न किसी बड़े राजनेता से जुड़े हैं. या तो वे ख़ुद चला रहे हैं या फिर उनका काला धन वहां लगा हुआ है. इसलिए मुझे तो ऐसा लगता है कि सरकारी शिक्षण संस्थानों की कार्यसंस्कृति का जान-बूझ कर सत्यानाश किया जा रहा है. सुनियोजित साजिश के तहत उनकी हत्या की जा रही है.

    ReplyDelete
  8. शिक्षा पर माफिआओं का कब्जा है..एक से एक घनघोर माफिया इसमें लगा हुआ है...उच्च शिक्षा और व्यवसायिक शिक्षा में भी माफियागिरी है...यहां तक की पत्रकारिता की शिक्षा भी इसके लपेटे में आ गई है...इसको ठीक करने के लिए डंडा चलाने के पहले पूरे शिक्षा तंत्र पर हल चलाने जरूरत है...सबकुछ को कोड़ डालना होगा.. तभी हम नई फसल के उगाने के लिए बेहतर खेत तैयार कर पाएंगे...

    ReplyDelete
  9. अब भयभीत भयोत्पादक कैसे बन जायं -ये ऐस्यीच ही चलेगा !

    ReplyDelete
  10. rajmata ki jai ho
    purohitg ki jai ho
    bechari janta ka ho yuvraj ki jai ho

    ReplyDelete

Post a Comment

सुस्वागतम!!

Popular posts from this blog

रामेश्वरम में

इति सिद्धम

Bhairo Baba :Azamgarh ke

Most Read Posts

रामेश्वरम में

Bhairo Baba :Azamgarh ke

इति सिद्धम

Maihar Yatra

Azamgarh : History, Culture and People

पेड न्यूज क्या है?

...ये भी कोई तरीका है!

विदेशी विद्वानों के संस्कृत प्रेम की गहन पड़ताल

सीन बाई सीन देखिये फिल्म राब्स ..बिना पर्दे का

आइए, हम हिंदीजन तमिल सीखें