भूंसा खोपड़ी में भरा होता है

आज क्या लिखा जाये कुछ समझ में नहीं आ रहा है, जरूरी नहीं है कि आप हर दिन कुछ लिखने की स्थिति में ही होते हैं, कई बार आपके दिमाग में कई तरह के ख्याल आते हैं और आपको लगता कि वो दुनिया के बेहतर ख्याल हैं,लेकिन आप उन्हे कलमबद्ध नहीं कर पाते हैं,और फिर वो ख्याल उड़ जाते हैं और चाहकर भी आप उन्हें दोबारा अपने दिमाग में नहीं ला पाते हैं...कई बार आप कुछ लिखना चाहते हैं, लेकिन आपके दिमाग में लिखने के लिए कुछ खास नहीं होता है। क्या लिखने के लिए किसी विषय का होना जरूरी है..???? हम बेतरतीब तरीके से नहीं लिख सकते हैं..??? कभी इधर की बात, कभी ऊधर की बात, कभी कहीं की बात...शायद लेखन कला के नजरिये से यह गलत हो...
बहुत मुश्किल से लोगों ने लेखन को विभिन्न विधाओं में ढाला है...लिखने के लिए सबजेक्ट मैटर की जरूरत तो होती है...लेकिन जब आप दिमाग के पूरे कैनवास को खोलकर लिखेंगे तो शायद आपको अहसास होगा कि सबकुछ वृतीय रूप में जुड़ा है..इसका मतलब यह हुआ कि आप कही से भी शुरु करके बढ़ सकते हैं, और परिणाम शायद वही आएगा...बेहतर है लेखक की कृति के बजाय लेखक को पढ़ना...यह कहाना ज्यादा उचित होगा कि आप लेखक को नहीं उसके दिमाग को पढ़े...किसी भी लेखक के विभिन्न समय की विभिन्न रचनाये क्रमश उसके दिमाग के विकास की यात्रा को बतलाती है..उसकी रचनाओं से आप उसके दिमागी सफर को समझते हैं..
.कार्ल जुंग मुंह पर स्कूल में उसके एक सहपाठी ने घूसा मारा था..और बेहोश हो गया था....इसके बाद स्कूल जाने के नाम पर ही वह बेहोश हो जाता था...बाद में दिमाग की परतों को खोलते वक्त उसका खुद का दिमाग उस घटना से संचालित होता रहा...उसके काम को आप किसी विषय से बांध कर देखेंगे तो उस विषय को समझेंगे, लेकिन उसे लैक कर जाएंगे
...लेखनी का सीधा संबंध सभ्यता से है, सभ्यता के विस्तार और फैलाव से है...विषय पर ठहरकर लिखने की प्रैक्टिस स्कूलों और कालेजों में करवाई जाती थी...पता नहीं शुरु से ही प्रवाह को पीटा क्यों जाता है...गणित, विज्ञान, साहित्य, राजनीति सभी की जड़े अरस्तू में घूसती हैं...अरस्तू को कहीं से उठाकर पढ़ने पर यही लगता है कि बस उसने यही से शुरु की है...मैकियावेली का प्रिंस मैकियावेली के दिमाग की कुछ परतों को खोलता है...मैकियावेली के प्रिंस को ठीक से पकड़ना है तो अपने इर्दिगिर्द के माहौल से उसे जोड़कर देखिये...उदाहरण के लिये लालू से जोड़ सकते हैं..
.समाज की शक्तियों को नचाते हुये कोई कैसे सत्ता पर सवार होता है, और अपनी सत्ता को बचाने के लिये क्या-क्या खेल खेलता है साफ-साफ दिखने लगेगा...विषय और फार्मेट धारा को कुंद करती है...और दुनिया में किसी भी व्यवस्था का काम ही धारा को कुंद करना और उसे अपनी व्यवस्था के अनुकूल बनाना....व्यवस्था में बंधी हुई चिंतन और लेखनी विषय से शुरु होती है...
.रूसो के सामाजिक समझौता को क्या कहा जाएगा....?किस विषय पर कही गई किताब है वह....?वह शुरु ही करता है, इनसान स्वतंत्र पैदा हुआ है और सर्वत्र जंजीरों में जकड़ा है....इस एक वाक्य को पढ़कर क्या कहा जा सकता है...किस विषय को वह टच कर रहा है....उसकी किताब पढ़कर लोग बास्तिल पर धावा मार देते हैं...और फिर फ्रांस गिलोटिन की राह पकड़ लेता है....असल बात है लिखना नहीं, कहना....लेखनी तो एक माध्यम है....भूंसा खोपड़ी में भरा होता है...अब उसे भूंसे का इस्तेमाल आप खाद के रूप में करते हैं या चारे के रूप में यह पूरी तरह से आप पर निर्भर करता है...विषय एक आवश्यक बुराई है, जिससे जितनी जल्दी निजात पाले बेहतर होगा....
शीर्षक क्या है....एक तकनीकी टग्गा...अब अथातों जुता जिज्ञासा को कुछ भी माना जाये...क्या फर्क पड़ता है...इसका सार्वजनिक इस्तेमाल राजनीती के कुलीन लोगों पर होने लगा है...यानि की यह व्यवहारिक रूप में दिखने लगा है...इसे कहते हैं समय को पकड़ करके अपनी बात कहना...और समय द्वारा उसका प्रत्युतर दिया जाना....मंत्री पर जूता चलाने वाले पत्रकार ने भले ही जूता कथा नहीं पढ़ी हो, लेकिन काम तो वही कर गया, जिसके बारे में इसमें कहा जा रहा है....वैसे लोकतंत्र में जनता को वोट के बजाये सीधे जूते चलाने का अधिकार दे दिया चाहिये...इससे सिर फूटता नहीं है, लेकिन अपना काम कर जाता है....या फिर नेतापद की उम्मीदवारी के लिए प्रत्याशियों के जूते खाने की काबिलियत को सम्मिलित कर लेना चाहिये...जैसे सांसदों के लिये 8 जूते, विधायकों के लिये 4 जूते...ग्रामीण और कौंसिल लेवर पर दो-दो जूते आदि...देश के एक पत्रकार ने जूते चलाने की अदा दिखा दी है.....मुद्दें बहुत हैं, जूतें चलाने लिये, और देश के हर कोने से हैं। उनकी गिनती कर पाना मुश्किल है, भारत को विदेशों से जूतों का आयात करना पड़ सकता है....
आदमी सोंच कर के एक ही दिशा में क्यों लिखे ?? एक होता है लिखने के लिये लिखना, और एक होता है कुछ कहने के लिये लिखना ...यदि आप कुछ कहने के लिये लिखना चाहते हैं तो आपको विषय के झंझट में पड़ने की कोई जरूरत नहीं है। बस अपनी बात कहते जाइये...सामाजिक समझौता रूसो का बकवास है...विज्ञान, कला और मानवता पर!!...उसका बकवास लोगों की खोपड़ी पर चढ़ता गया..
पढ़ा है मेरी अंतोनोयत की कमर बहुत पतली थी...यह फैक्ट हुआ, जो किसी ने फेंका है...इस फैक्ट के सहारे 14 साल तक मैं उसकी कमर की परिकल्पना करता रहा....और आज तक भी सही नतीजे तक नहीं पहुंच पाया हूं कि उसकी कमर कैसी थी...गिलोटिन ने उसके खूबसूरत कमर को मांस के लोथड़ों में बदल दिया....उनलोगों ने उसकी पतली कमर का भी ख्याल नहीं किया....विषय पर लिखना अपने इमैजिनेशन को फार्मेट में लाने जैसा है...हां विषय का सही इस्तेमाल फैक्ट्स के संकलन में है।
जूता कथा फैक्ट से इतर बह रही है...फैक्ट को पहिये बनाकर ...अपनी बात को कहने के लिये फैक्ट्स अच्छा काम करता है..लेकिन असल चीज है कहना....रेलवे संभालते संभालते लालू के दिमाग में रोलर घूमने लगा है...इस इलेक्शन को लामबंद करने के लिये लालू वरुण पर खेलने की पूरी तैयारी कर चुके हैं...लालू की बात हवा में उछलेगी और उसी के तर्ज पर इलेक्शन का समीकरण बनता जायेगा...इलेक्शन में खबरों को रद्दोबदल करके निकालने का सौदा होता है...और खबरों के धंधा में लगे लोग इस समीककरण के असली पार्ट पूर्जे होते हैं...उनका धंधई गुर के कारण मैकेनिकल इस्तेमाल होता है...खबरों को प्रसारित करने के लगाम कहीं और होता है...इसे देख पाना या पकड़ पाना डान को जिंदा पकड़ने की तरह मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है। लालू ताल ठोककर कह रहा है कि अडवाणी के हाथ में सत्ता को नहीं आने दिया जाएगा...लालू की इस आक्रमकता को समझने के लालू के दिमाग का आपरेशन किया जा ना चाहिये...एक घाघ नेता है...और जानता है कि कहां क्या बोला जाता है, और सार्जनिक सभाओं में कही गई बात का क्या असर होता है। लालू बकरी का बच्चा नहीं है, कि दौड़े और पकड़ लिये...लालू मैकियावेली के प्रिंस के बहुत करीब है....प्रिंस का सीधा सा मतलब है, जो सत्ता के खेल में है। लालू पिछले 20 साल से सत्ता का खेल खेल रहा है,..लालू महिमा लिखने का कोई इरादा नहीं है, लेकिन यह हकीकत है।

Comments

  1. हकीकत को बयान करते हुए इतना कुछ लिख दिया की हकीकत मे क्या कहा यह भी भूल गया हूँ। लेकिन सोचा एक तरह से बात तो सही ही कही है।बस कहीं से भी पकड़कर लिखना शुरू कर दो।अब वही कोशिश करेगें।देखते हैं कोई बात बनती है या नही।

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  2. बहुत अच्‍छा लिखा है ।

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  3. विषय और फॉर्मेट धारा को कुन्द नही करती आलोक जी. असल बात तो यह है कि जब आप सोच रहे होते हैं कि आप बिना विषय के लिख रहे हैं तो भी आप किसी विषय पर ही काम कर रहे होते हैं. फ़र्क़ बस यह होता है कि उसे आप प्रचलित फॉर्मेट में व्यक्त नहीं कर रहे होते हैं. आप उसे अपने ढंग से व्यक्त कर रहे होते हैं. और वस्तुत: एक समर्थ रचनाकार अगर किसी फॉर्मेट में बन्धा दिखता है तो भी वह फॉर्मेट में बन्धा नहीं होता है, वह उसका अपने ढंग से इस्तेमाल कर रहा होता है. जिसे आप बिना विषय और फ़ॉर्मेट का लेखन कह रहे हैं असल में वह रैंडम राइटिंग है. जॉर्ज बर्नार्ड शॉ का ज़्यादातर लेखन इसी कोटि का है. ख़ास तौर से उनकी सर्वोत्तम कृति (मेरी नज़र में) मैक्ज़िम्स फॉर रिवोल्यूशनिस्ट्स तो पूरी तरह रैंडम राइटिंग ही है.

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  4. प्रश्न 1) यदि कोई seldom राईटर है और उसे boredom राईटर बन जाने का भय सता रहा हो तो वह freedom राईटर कैसे बनेगा ?निष्कर्ष निकालें और उदाहरण सहित विस्तारपूर्वक उल्लेख करें।
    5 MARKS
    जी लेखन कला का प्रशिक्षण देने का आप सज्जनों का धन्यवाद जी=ii=
    जी आपने विचारों का जो भूंसा इस पोस्ट में उड़ाया है जी उसमे कुछ कुछ चुन-बीनकर जुगाली करने लायक भी है जी.जी मेरे भेजे में तो सिर्फ भूंसे का पचा हुआ रूप मौजूद है जी हालांकि इसका इस्तेमाल खाद के तौर पर किया जा सकता है जी. ":-)

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  5. Istdev ji...aapane sahi nam diya hai randam writing...aap baithte hai aur bus shuru ho jate hai...aapaka dimag ka ghora darata jata hai aur aur key board per ungliya daurate rahate hai...
    anonymous bhai aapake question ko par ke lot pot ho raha hun....chunki aapake is 5 marks ke question me samy sima nahi hai ...isliye isaka answer aram se dene ki koshir karunga....Chalega na?

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  6. एनॉनिमस भाई का जवाब
    अगर सेल्डम राइटर को बोरडम राइटर बन जाने का डर है, तो बोरडम राइटर बनने से कोई रोक नहीं सकता. हां, ऐसी स्थिति में फ्रीडम राइटर वह आसानी से बन सकता है और उसका उपाय यह है कि वह भारत महान के किसी भी महान लेखक संघ की सक्रिय सदस्यता ले ले. उसकी राइटिंग जितनी ज़्यादा से ज़्यादा बोरियत भरी और निरर्थक होती जाएगी, उसके प्रशंसकों की संख्या उतनी ही ज़्यादा बढ़ती जाएगी. फिर धीरे-धीरे वह लेखक संघ के बहाने उसके पीछे खड़ी पार्टी का ग़ुलाम होता जाएगा. वह जितना ज़्यादा ग़ुलाम होता जाएगा उतना ज़्यादा ज़ोर से उसे स्वतंत्र कहा जाएगा. बिलकुल वैसे ही, जैसे दुनिया भर के दकियानूसों और भाई-भतीजावादियों को प्रगतिशील कहा जाता है.

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  7. व्यंगात्मक प्रश्न.2)यदि चुनाव के वक़्त तालिबान-अल कैदा-कश्मीरी मुजाहिदीन-पाकिस्तान आर्मी के कंसोर्टियम का हमला हो जाए तो हमारे नेता-अफसरान देश छोड़कर फॉरेन सेटल होने कैसे भागेंगे ?
    क.चीता हेलीकॉप्टर से
    ख.साइकिल से
    ग.राजदूत से
    घ.मारुती 800 से
    marks 5 TIME LIMIT १८५७-१९४७

    RESULT:
    student's name : इष्ट देव
    marks ऑफ़ प्रश्न १=5/-5

    "भारत महान के किसी भी महान लेखक संघ की सक्रिय सदस्यता ले ले"
    क्या गुलाम स्वतंत्रता सचमुच स्वतंत्र गुलामी के हद तक पहुच गयी है ?

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  8. बोरियत भरे पल से बचने के लिये यदि आप लिखने बैठेंगे हैं तो आप अपनी राइटिंग से लोगों को बोर ही करेंगे। और आपको खुद यह लगने लगेगा कि आपकी राइटिंग बोरियत भरी है...जैसे गांधी का सत्य के साथ प्रयोग। यह एक ऊबाऊ राइटिंग है, उसमें प्रयोग जैसा कुछ भी नहीं है...एक औसत सी आत्मकथा है। क्या गांधी जी को सेलडम राइटर की कैटेगरी में रख सकते हैं। महानता के सिहासन पर बैठा देने के बाद उनकी आत्मकथा भी महान हो जाती है, और बोरियत भरा उनका लमहा फ्रीडम राइटिंग में तब्दील हो जाती है।
    यदि विश्वास नहीं है तो गांधी जी के आत्मकथा को किसी एसे आदमी के हाथ में पकडि़ये जिसने गांधी जी का नाम नहीं सुना है, एक सीटिंग में वह किताब कोई नहीं पढ़ सकता है। इसमें उन ढोलकियों को शामिल नहीं किया जा सकता जो, पीढी दर पीढ़ी यह सुनाते आ रहे हैं कि गांधी जी को जब कोई एक तमाचा मारता था तो वह अपना दूसरा गाल आगे बढ़ा देते थे। गांधी जी की आत्मकथा को मैंने जितनी बार पढ़ने की कोशिश की, हर बार असफल ही रहा।

    सेल्ड़म राइटर को यदि लगता है कि वह बोरियत भरा राइटिंग करने लगा है, और फ्रीडम राइटर बनने की इच्छा उसके अंदर बलवती हो रही है तो बेशक वह हिटलर की मीन कैफ पढ़ सकता है। गांधी की आत्मकथा में विश्व दृष्टिकोण तो क्या, किसी भी तरह के दृष्टिकोण नहीं दिखाई देते हैं, जबकि हिटलर की आत्मकथा मीन कैंफ आपके दिमाग के उन छोटे छोटे तंतुओं को उत्तेजित करता है,जिसके सक्रिय होने पर निसंदेह आप बोरडम राइटिंग से तो बच ही जाएंगे...और इस बात की पूरी गारंटी है कि आप फ्रीडम राइटिंग करने लगेंगे। मीन कैंफ आपको एक्ट्रीम पर ले जाता है,वह बीच-बीच में नहीं छोड़ता है। या तो आप हिटलर पर नाकभौं सिकोड़ते हुये नजर आएंगे या फिर उसके साथ डूबते चले जाएंगे।

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  9. हम बेतरतीब तरीके से नहीं लिख सकते हैं..??? कभी इधर की बात, कभी ऊधर की बात, कभी कहीं की बात...शायद लेखन कला के नजरिये से यह गलत हो...

    सहमत हूं मित्र ... आपके इन विचारों को संभवत: मेरे जैसे अनेक लोगों ने अनुभव किया होगा ..... आपकी लेखनी की उन्मुक्तता (स्वछंदता नहीं) और प्रवाह बढ़िया लगा.

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  10. Alok is an author with diffrence.I like his boldness and new thoughts.Keep it up!

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