अन्ना,आई लव यू...बला की तड़प थी तेरे अंदर

दिल्ली के लक्ष्मीनगर की तंग गलियों के क्या कहने...एक बार अंदर घुस गये तो खत्म होने का नाम ही लेता है...बस घुसते जाइये इस गलीसे उस गली में..भूलभूलैये की तरह है...कभी इन मैं इन तंग गलियों का अभ्यस्त था...घर से निकलते वक्त मेरे हाथ में कोई न कोई किताब होती थी, और पन्नों पर सहजता से आंखे गड़ाये हुये मैं इन गलियों निकल जाता था...एक भी कदम गलत नहीं पड़ते थे...सड़क पर चलते-चहते पढ़ने का नशा ही कुछ और है....यह आदत कब और कैसे लगी पता नहीं, लेकिन दिल्ली में इस आदत से बुरी तरह से ग्रस्त था...अभी भी यह आदत छुटी नहीं है...मुंबई की बेस्ट बसों में भी चलते-चलते पढ़ता रहता हूं।

पढ़ने का असली चस्का गोर्की से लगा था, मेरा बचपन, माई एप्रेंटिशीप...और माई यूनिवर्सिटी...इन तीनों किताबों को पढ़ने के दौरान ही गोर्की मेरा लंगोटिया हो गया था...उसे खूब पढ़ता था...खोज खोज कर पढ़ता था...उसके शब्द सीधे मेरा गर्दन पकड़ लेते थे, और फिर मैं हिलडुल भी नहीं पाता था...मेरी भूख तक उसने छिन ली थी...निगोड़ा कहीं का...एसे कहीं लिखा जाता है। मेरी खोपड़ी में वह बुरी तरह से घूसता गया, अपने शब्दों के माध्यम से। मां का एक कैरेक्टर है रीबिन....एक स्थान पर वह कहता है, मेरी हाथ खोल दो, मैं भागूंगा नहीं...सच्चाई से भाग कर मैं कहां जा सकता हूं...रीबिन हमेशा किसानों को लेकर बेचैन रहता है...एक जगह पर कहता है, चाहे खून की नदियां बहा दो, उसमें सच्चाई नहीं छुप सकती...गोर्की अपने कलम से दिमाग में ठंडा उन्माद उत्पन्न करता है, जिसका असर दिमाग पर चीरकाल तक बना रहता है, इसे कहते हैं लेखन....शायद मुझे पढ़ने का नशा गोर्की ने डाला था, जिसकी कीमत मुझे आज तक चुकानी पड़ रही है...

मां को मैंने पहली बार नौवी क्लास में पढ़ा था...एक कामगार यूनियन के नेता की लाइब्रेरी में यह किताब पड़ी हुई थी। उस नेता को न जाने क्या सूझी उसने किताब मेरे हाथ में थमा दी और बोला, इसे पढ़ो...लंबे समये तक उस किताब को मैंने छुआ तक नहीं...पड़ी रही...एक अनमनी सी दोपहरी में, जब करने को कुछ नहीं था, उस किताब पर नजर गई और एक बार पढ़ना शुरु किया तो बस पढ़ता ही चला गया...उसी दिन गोर्की का किटाणु अनजाने में दिमाग में घुस गया था, हालांकि पता नहीं चला था।

अकेले रहने के कई फायदे है, आप जब चाहे सुअर की थूथन उठाकर जिधर मन में आये चल दे...मकान मालिक से पंगा हो, कोई बात नहीं...कल से मकान खाली कर दूंगा...दिल्ली में खूब मकान बदलता रहा, कही न कहीं लगातार मकान बदलते रहने के पीछे गोर्की का किटाणु काम कर रहा था...विभिन्न परिस्थितियों में जिंदगी को देखने की इच्छा दिमाग के किसी कोने में कुलबुला रही थी...जब आप किसी को पढ़ते है तो उसके दिमाग का बीज आपके दिमाग में आ जांता है, और फिर वह अपने तरीके से ज्यामिति के नियमो से इतर जाकर आकार लेता है...उसका असर कहां-कहां हो रहा होता है आपको भी पता नहीं होता है, इसलिये बेहतर है अपने दिमाग का अपने तरीके से आपरेशन करते हुये उन चीजों को समझने की कोशिश की जाये जिनका सबंध आपसे है...

लक्ष्मीनगर का एक मकान मालिक अव्वल दर्जे का कंजूस था, और उसकी उसकी बेटी के पास कुत्ता था, जिसे वह खूब प्यार करती थी...और उस कुत्ते को प्यार करते हुये देखकर, उस मकान में रहने वाले सारे लौंडे उस कुत्ते का दुश्मन बने हुये थे...जाड़े के दिनों में वह अक्सर अपने छोटे से कुत्ते को गुनगुनी धूप में सैंपू से नहाने के बाद छत पर बांध देती थी, और काम करने के लिये नीचे चली जाती थी। इसके बाद लौंडे उस कुत्ते के नाक में छाडू के तिनके घुसेड़ते थे, और वह जोर-जोर से भौंकता था...उसकी भूक सुनकर वह लड़की भागी हुई छत पर आती थी...और इस तरह से लौंडे धूम में अपना बदन सेंकेते हुये अपनी आंख भी सेकते थे....लड़की का बाप 47 के बंटवारे के समय पाकिस्तान आया था, बुरी हालत में.., उसके लिये एक -एक पैसा किमती था...घनघोर असुरक्षा को झेलते हुये उसके दिमाग के किसी कोने में यह बात घुस गई थी कि सिर्फ पैसा ही उसे बचा सकता है...गोर्की इन चीजों को समझने के लिये उकसाता था...बेहतरीन किताबें वो होती है, जो आपको अंतरदृष्टि देती हैं...या यूं कहा जाये कि आपके अंतरदृष्टि को खोलती है...बाकी सब तो जोड़तोड़ है...समझने और समझाने की प्रक्रिया है...असल चीज है अंतरदृष्टि...लगता है कुछ फिलासिफिकल हो रहा हूं ...भाई हर आदमी फिलासफर है...

खैर दिल्ली और मुंबई की गलियो में भयानक असमानता है...मुंबई की गलियां कुछ ज्यादा ही तंग है...गोर्की का किटाणु आज भी गलियों की ओर खीच ले जाता है...कोई-कोई गली तो इतनी पतली है कि एक बार में एक आदमी ही उस गली से निकल सकताहै...गली में आपके सामने कोई लड़की आ गई तो उसके शरीर से रगड़ा खाने के लिये तैयार हो जाइये...मुंबई की ट्रैफिक का एक ही फार्मूला है...बस आगे निकलते रहो...इब्सन की एक कविताएं गोर्की को बहुत पसंद थी...किसी ब्लागर भाई के पास इब्सन की कोई कविता हो तो अपने ब्लाग पर चिपका कर उसका लिंक मुझे जरूर दे...यदि नोह की जहाज वाली कविता हो तो क्या बात है...महादेवी वर्मा की कवितायें मुझे पकाऊ लगती थी...मैं नीर भरी दुख की बदली-उमड़ी कल थी मिट आज चली....सुभद्रा कुमारी चौहान में ओज था...खूब लड़ी मर्दानी वो तो झांसी वाली रानी थी...दिनकर दिमाग को पगलाता है.., वह कौन रोता है वहां इतिहास के अध्याय पर, जिसमें लिखा है नौजवानों की लहू का मोल है...दिमाग की खुजली कुछ शांत हो गई है...

पढने की तरह लिखना भी एक नशा है...इस नशे का कहीं कोई इलाज हो तो मुझे जरूर बताये...इसी तरह सोचना भी एक नशा है...अंद्रेई बोलोकोन्सकी प्येर से कहता है, इन किसानों की ओर देखो , जिस तरह ये बिना काम के नहीं रह सकते, वैसे ही तुम और मैं बिना सोंचे हुये नहीं रह सकते...तोलोस्तोव के शब्द भी दिमाग को पकड़ते हैं, लेकिन वे दिल में नहीं उतरते...तोलोस्तोव की लेखनी एक विशेष दिमागी स्तर की मांग करते हैं...अपने साथ काम करने वाली एक चुलबुली सी लड़की को मैंने तोलोस्तोव को पढ़ने के लिये उसे सजेस्ट किया था...एक सप्ताह बाद मुझे पर आकर बसर पड़ी...क्यों आप बकबास लेखकों को पढ़ने की सलाह देते हैं...मैंनं कहा, यार वह क्लासिक है...अपने बालों को झटकते हुये बोली, होगा अपने घर का...उसकी बाल के खुश्बू मेरे नथूनों से टकरा रहे थे, मैं पंगा के मूड में नहीं था...अब तोलोस्तोव के कारण आदमी अपना भविष्य क्यों खराब करे..

.अन्ना कैरेनिना, आई लव यू...बला की तपड़ थी तेरे अंदर...रूस में मरने वाले लोगों का स्वर्ग नरक, भारत में मरने वाले लोगों के स्वर्ग नरक से इतर है...पता नहीं....अन्ना कैरेनिना आपको डूबा ले जाएगी...मैं तो आज तक उससे निकल नहीं पाया हूं...स्कूल के दिनों में सभी लफाड़े मोहल्ले की लड़कियों को आपस में अपने तरीके से बांट लेते थे, हालांकि लड़कियो को इस बात की खबर तक नहीं होती थी...पूरे आत्म विश्वास से कहते थे...वो मेरी माल है.....भाई लोग, अन्ना कैरेनिना मेरी माल है....वैसे आप भी इसमें डूब सकते हो।

Comments

  1. एक रवानगी है लिखे में ऐसी की बस लगातार पढ़े जाने का मूड बनता है .तब अचानक लगा की ख़त्म हो गया....लक्ष्मी नगर से रोमांस उठाना ...वाकई जिगर की बात है....

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  2. इसके बाद लौंडे उस कुत्ते के नाक में छाडू के तिनके घुसेड़ते थे, और वह जोर-जोर से भौंकता था...उसकी भूक सुनकर वह लड़की भागी हुई छत पर आती थी.

    यह तरीक़ा निश्चित रूप से आपका ही निकाला हुआ रहा होगा. और हाँ, अन्ना कैरेनिना पर मैं भी दावा करता, पर आपने इतना बिन्दास लिखा है और उसके लिए इतनी तड़प दिखाई है, लिहाजा मैं ख़ुश होकर उसे आपके लिए छोड़ दे रहा हूँ.

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  3. और ये उन गोर्की का किटाणु ही है जिसकी वजह से आपका लिखा पढ़ रहे हैं ....हट पंक्ति पढना अच्छा लगा ...पता ही नहीं चला कब ख़त्म हो गयी

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  4. बेहतरीन लेख शानदार! बेहतरीन किताबें वो होती है, जो आपको अंतरदृष्टि देती हैं...या यूं कहा जाये कि आपके अंतरदृष्टि को खोलती है...बाकी सब तो जोड़तोड़ है...समझने और समझाने की प्रक्रिया है...असल चीज है अंतरदृष्टि...
    सत्यवचन!

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  5. "उसकी बाल के खुश्बू मेरे नथूनों से टकरा रहे थे, मैं पंगा के मूड में नहीं था...अब तोलोस्तोव के कारण आदमी अपना भविष्य क्यों खराब करे.."
    ha ha ha
    खैर. काश इन अच्छी किताबों को पढना मेरे नसीबों में भी होता ....डूब कर मर ही जाता मै,अपने अच्छे किताबी अनुभवों को यूँ ही साझा करते रहे ,धन्यवाद

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  6. अन्ना कारनीना तो ठीक है पर वह लक्ष्मीनगर वाली का क्या हुआ?!

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  7. शानदार...तोलस्तोव की लेखनी के दिमागी स्तर पर जा कर रोमांस के नुस्खे लिखने के लिये बधाई .

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